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3-9 मार्च की अवधि में करते हैं ये सारे काम तो होगा आपका ही नुकसान, जानें क्यों?

ज्योतिष शास्त्र में शुभ मुहूर्त तय कर उस हिसाब से ही कोई काम करने की अनुमति होती है। कोई भी कार्य यदि शुभ मुहूर्त में किया जाता है तो वह उत्तम फल प्रदान करने वाला होता है। शुभ मुहूर्त का मतलब ऐसे समय से है जो उस कार्य की पूर्णता के लिए उपयुक्त हो।

suman
Published on: 1 March 2020 1:46 AM GMT
3-9 मार्च की अवधि में करते हैं ये सारे काम तो होगा आपका ही नुकसान, जानें क्यों?
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जयपुर: ज्योतिष शास्त्र में शुभ मुहूर्त तय कर उस हिसाब से ही कोई काम करने की अनुमति होती है। कोई भी कार्य यदि शुभ मुहूर्त में किया जाता है तो वह उत्तम फल प्रदान करने वाला होता है। शुभ मुहूर्त का मतलब ऐसे समय से है जो उस कार्य की पूर्णता के लिए उपयुक्त हो।

ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक शुभ कार्य के लिए समय निर्धारित किया गया है। इस शुभकाल में प्रारंभ किया गया कार्य अवश्य ही पुण्य फलदायी एवं शुभकारी बताया गया है, किंतु इसी काल में ऐसा भी समय होता है जब शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं। एक ऐसा ही काल होता है होलाष्टक जो मांगलिक कार्यों के लिए उत्तम नहीं माना गया है।

होलाष्टक 3 मार्च से प्रारंभ हो रहा है, जो कि 9 मार्च होलिका दहन के साथ समाप्त होगा अर्थात इन दिनों में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ करना वर्जित होगा। ज्योतिशास्त्र के अनुसार होलाष्टक के दौरान किया गया कार्य विपरीत परिणाम लेकर आ सकता है और ये पीड़ादायी एवं कष्टकारी बन सकता है। होलाष्टक के आठ दिन किसी भी ऐसे कार्य करने के लिए पूर्णत अशुभ माने जाते हैं, जो आपके जीवन में मंगलकारी माने गए हैं।

भोग से दूर रहे

फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी 3 मार्च से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा 9 मार्च तक होलाष्टक रहेगा। इस अवधि में भोग से दूर रह कर तप करना ही अच्छा माना जाता है। इसे भक्त प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है।

मान्यता

सत्ययुग में हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान पा लिया। वह पहले विष्णु का जय नाम का पार्षद था, लेकिन शाप की वजह से दैत्य के रूप में उसका जन्म हुआ था। वरदान के अहंकार में डूबे हिरण्यकशिपु ने देवताओं सहित सबको हरा दिया। उधर भगवान विष्णु ने अपने भक्त के उद्धार के लिये अपना अंश उसकी पत्नी कयाधू के गर्भ में पहले ही स्थापित कर दिया था, जो प्रह्लाद के रूप में पैदा हुए। प्रह्लाद का विष्णु भक्त होना पिता हिरण्यकशिपु को अच्छा नहीं लगता था। दूसरे बच्चों पर प्रह्लाद की विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता देख पहले तो पिता हिरण्यकशिपु ने उसे समझाया। फिर न मानने पर उसे भक्ति से रोकने के लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बंदी बना लिया। जान से मारने के लिए यातनाएं दीं, पर प्रह्लाद विष्णु भक्ति के कारण भयभीत नहीं हुए और विष्णु कृपा से हर बार बच गए।

इसी प्रकार सात दिन बीत गए। आठवें दिन अपने भाई हिरण्यकशिपु की परेशानी देख उसकी बहन होलिका, जिसे ब्रह्मा जी ने अग्नि से न जलने का वरदान दिया था, प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठाकर अग्नि में प्रवेश कर गई, पर हुआ उल्टा। देवकृपा से वह स्वयं जल मरी, प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु का वध किया। तभी से भक्ति पर आए इस *संकट के कारण इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।इस अवधि में शुभ कार्य- गर्भाधान, विवाह, नामकरण, विद्यारम्भ, गृह प्रवेश और नव निर्माण आदि नहीं करना चाहिए। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से ही होलिका दहन करने वाले स्थान का चयन भी किया जाता है। पूर्णिमा के दिन सायंकाल शुभ मुहूर्त में अग्निदेव से स्वयं की रक्षा के लिए उनकी पूजा करके होलिका दहन किया जाता है।

निषेध है काम

होलाष्टक के में 16 संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाता है, यहां तक की अंतिम संस्कार करने से पूर्व भी शांति कार्य किये जाते है। इन दिनों में 16 संस्कारों पर रोक होने का कारण इस अवधि को शुभ नहीं माना जाता है। सोलह संस्कारों गर्धाभान संस्कार, अन्न प्रासन और अंतिम संस्कार आते हैं। इसके अलावा विवाह आदि इन 8 दिनों में नहीं होते हैं। होलाष्टक मुख्य रुप से उत्तर भारत में माना जाता है।

होलाष्टक से जुडी मान्यताएं

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है। होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान शंकर ने क्रोध में आकर कामदेव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी। होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को भारत के कुछ भागों में ही माना जाता है। इन मान्यताओं का विचार सबसे अधिक पंजाब में देखने में आता है। यहां होली के रंगों की तरह होली को मनाने का ढंग भी अलग है। होली उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गोवा आदि में अलग ढंग से मनाने की परंपरा है।

होलिका पूजन

होलिका पूजन करने के लिये होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकड़ी व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है। जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारंभ का दिन भी कहा जाता है। होली का डंडा स्थापित होने के बाद से होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है।

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