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Election 2024 : पीर पराई चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता?

Election 2024 : लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण पुरा हो गया है, जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं राजनेताओं एवं उम्मीदवारों के दागदार चरित्र की परते खुलती जा रही है। एक समय था कि जब लोग देश के नेताओं के सार्वजनिक जीवन में आचरण का अनुसरण करते थे।

Lalit Garg
Written By Lalit Garg
Published on: 8 May 2024 11:29 AM GMT (Updated on: 8 May 2024 11:31 AM GMT)
Election 2024 : पीर पराई चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता?
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Election 2024 : लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण पुरा हो गया है, जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं राजनेताओं एवं उम्मीदवारों के दागदार चरित्र की परते खुलती जा रही है। एक समय था कि जब लोग देश के नेताओं के सार्वजनिक जीवन में आचरण का अनुसरण करते थे। नेताओं को भी समाज में अपनी छवि व प्रतिष्ठा की फिक्र रहती थी। लेकिन हाल के वर्षों में राजनीति में कई क्षत्रप परिवारों के ऐसे नेता भी सामने आए हैं जिन्होंने सत्तामद में चूर होकर तमाम नैतिकताओं व मर्यादाओं को ताक पर रखा। पिछले दिनों कर्नाटक में हासन सीट से जनता दल (सेक्यूलर) के सांसद प्रज्वल रेवन्ना पर सैकड़ों महिलाओं के साथ दुराचार के जो गंभीर आरोप लगे, उसने राजनीति में पतन की पराकाष्ठा को दर्शाया है। वही रांची में एक पुराने मामले की जांच कर रही ईडी को रेड में झारखंड सरकार में मंत्री आलमगीर आलम के निजी सचिव के घर पर काम करने नौकर के यहां से 39 करोड कैश बरामद हुआ है। यौन उत्पीड़न, दुराचार, भ्रष्टाचार एवं देशद्रोह पर सवार नेताओं एवं दागदार उम्मीदवारों से जुड़ा यह चुनाव लोकतंत्र पर एक गंभीर प्रश्न है। हमारी राजनीति एक त्रासदी बनती जा रही है। राजनेता सत्ता के लिये सब कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया, यही कारण है देश की फिजाओं में विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है और कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। डर लगता है राजनीतिक भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से, देश की एकता एवं अखण्डता को दांव पर लगाने वालों से एवं यौन उत्पीड़न व दुराचार से नारी अस्मिता को नौंचने वालों से।

देश दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती है, भयभीत करती है। समाज में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प सब में परिवर्तन है। चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली होती जा रही है। ईमानदार होना आज अवगुण है। अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। धर्म और अध्यात्म में रुचि लेना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोही अव्यावहारिक है। भ्रष्टाचार को प्रश्रय नहीं देना समय को नहीं पहचानना है। चुनाव के परिप्रेक्ष्य में इन और ऐसे बुनियादी सवालों पर चर्चा होना जरूरी है। आखिर कब तक राजनीतिक स्वार्थों के नाम पर नयी गढ़ी जा रही ये परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को वीभत्स दिशाओं में धकेलती रहेगी? विकासवाद की तेज आंधी के नाम पर हमारा देश, हमारा समाज कब तक भुलावे में रहेगा? चुनाव के इस महायज्ञ में सुधार की, नैतिकता की, मूल्यों की, सिद्धान्तों की बात कहीं सुनाई नहीं दे रही है? दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं दिख रही है। बड़ी अंधेरी और घनेरी रात है। न आत्मबल है, न नैतिक बल।

महान एवं सशक्त भारत के निर्माण के लिए आयोज्य यह चुनावरूपी महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है, यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है। विशेषतः चारित्रिक अवमूल्यन, आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को प्रश्रय देने का चुनावों में नंगा नाच होने लगा है और हर दल इसमें अपनी शक्ति का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन कर रहे हैं। बात केवल चुनावी चंदे ही नहीं बल्कि विदेशों से मिलने वाले चंदों की भी है। आज सवाल बहुत बड़ा है और वह है भारत की राजनीति को प्रत्यक्ष विदेशी प्रभाव से बचाना। आम आदमी पार्टी पर जिन कथित भारत-विरोधी विदेशी ताकतों से भारी राशि लेने के आरोप लगे हैं, वह हमारी समूची चुनाव प्रणाली के लिए चुनौती है।


क्या कभी सत्तापक्ष या विपक्ष से जुडे़ लोगों ने या नये उभरने वाले राजनीतिक दावेदारों ने, और आदर्श की बातें करने वाले लोगों ने, अपनी करनी से ऐसा कोई अहसास दिया है कि उन्हें सीमित निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ राजनेता समझा जाए? यहां नेताओं के नाम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं न ही राजनीतिक दल महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस तरह का कूपमण्डूकी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना सकता है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है, और इसके लिए राजनेताओं में जिस तरह की परिपक्वता की अपेक्षा होती है, उसका समूचे विपक्षी दलों में अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है। और हम हैं कि ऐसे नेताओं के निर्माण में लगे हैं!

चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं। इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चौराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। महाभारत की लड़ाई में सिर्फ कौरव-पांडव ही प्रभावित नहीं हुए थे। उस युद्ध की चिंगारियां दूर-दूर तक पहुंची थीं। साफ दिख रहा है कि इस महाभारत में भी कथित अराजक राजनीतिक एवं आर्थिक ताकतें अपना असर दिखाने की कोशिश कर रही है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। इन स्थितियों में अब ऐसी कोशिश जरूरी है जिसमें ‘महान भारत’ के नाम पर ‘महाभारत’ की नई कथा लिखने वालों के मंतव्यों और मनसूबों को पहचाना जाए। अर्जुन की एकाग्रता वाले नेता चाहिए भारत को, जरूरी होने पर गलत आचरण के लिए सर्वोच्च नेतृत्व पर वार करना भी गलत नहीं है।

यह सही है कि आज देश में ऐसे दलों की भी कमी नहीं है, जो नीति नहीं, व्यक्ति की महत्वाकांक्षा के आधार पर बने हैं, लेकिन नीतियों की बात ऐसे दल भी करते हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए कथनी और करनी की असमानता चिंता का विषय होना चाहिए। हालांकि आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने में हमारे राजनीतिक दलों ने नीतियों-आदर्शों के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं, जो जनतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत और स्वस्थ होने का संकेत देते हों, फिर भी यह अपेक्षा तो हमेशा रही है कि नीतियां और नैतिकता कहीं-न-कहीं हमारी राजनीति की दिशा तय करने में कोई भूमिका निभाएंगी। भले ही यह खुशफहमी थी, पर थी। अब तो ऐसी खुशफहमी पालने का मौका भी नहीं दिख रहा। लेकिन यह सवाल पूछने का मौका आज है कि नीतियां हमारी राजनीति का आधार कब बनेंगी? सवाल यह भी पूछा जाना जरूरी है कि अवसरवादिता को राजनीति में अपराध कब माना जाएगा? यह अपने आप में एक विडम्बना ही है कि सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित राजनीति की बात करना आज एक अजूबा लगता है। यह सही है कि व्यक्ति के विचार कभी बदल भी सकते हैं, पर रोज कपड़ों की तरह विचार बदलने को किस आधार पर सही कहा जा सकता है? सच तो यह है कि आज हमारी राजनीति में सही और गलत की परिभाषा ही बदल गई है- वह सब सही हो जाता है जिससे राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति होती हो और वह सब गलत हो जाता है जो आम आदमी के हितों से जुड़ा होता है, यह कैसा लोकतंत्र बन रहा है, जिसमें ‘लोक’ ही लुप्त होता जा रहा है?


नरसी मेहता रचित भजन ‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे’’ गांधीजी के जीवन का सूत्र बन गया था, लेकिन यह आज के नेताओं का जीवनसूत्र क्यों नहीं बनता? क्यों नहीं आज के राजनेता पराये दर्द को, पराये दुःख को अपना मानते? क्यों नहीं जन-जन की वेदना और संवेदनाओं से अपने तार जोड़ते? कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वह महत्वपूर्ण होते हैं। पर यहां एक दिन की अजागरूकता पांच साल यानी अठारह सौ पचीस दिनों को अंधेरों के हवाले करने की तैयारी होती है। यह कैसी जिम्मेदारी निभा रहे हैं हम वोटर होकर और कैसा राजनीतिक नेतृत्व निर्मित हो रहा है?

Rajnish Verma

Rajnish Verma

Content Writer

वर्तमान में न्यूज ट्रैक के साथ सफर जारी है। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी की। मैने अपने पत्रकारिता सफर की शुरुआत इंडिया एलाइव मैगजीन के साथ की। इसके बाद अमृत प्रभात, कैनविज टाइम्स, श्री टाइम्स अखबार में कई साल अपनी सेवाएं दी। इसके बाद न्यूज टाइम्स वेब पोर्टल, पाक्षिक मैगजीन के साथ सफर जारी रहा। विद्या भारती प्रचार विभाग के लिए मीडिया कोआर्डीनेटर के रूप में लगभग तीन साल सेवाएं दीं। पत्रकारिता में लगभग 12 साल का अनुभव है। राजनीति, क्राइम, हेल्थ और समाज से जुड़े मुद्दों पर खास दिलचस्पी है।

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