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Indian Judiciary System: ये न्याय है या मज़ाक ?

Indian Judiciary System: गुलामी के खिलाफ आजकल खुलकर बोल रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि इस गुलामी से भारत को छुटकारा कैसे दिलाया जाए।

Dr. Ved Pratap Vaidik
Published on: 2 Aug 2022 2:49 AM GMT (Updated on: 2 Aug 2022 3:01 AM GMT)
Indian Judiciary System
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Indian Judiciary System (फोटो: सोशल मीडिया )

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Indian Judiciary System: यह शुभ-संकेत है कि भारत की न्याय-व्यवस्था की दुर्दशा पर हमारे प्रधानमंत्री और प्रमुख न्यायाधीशों ने आजकल खुलकर बोलना शुरु किया है। हम आजादी का 75 वाँ साल मना रहे हैं लेकिन कौनसी आजादी है, यह! यह तो सिर्फ राजनीतिक आजादी है याने अब भारत में ब्रिटिश महारानी की जगह राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर की जगह प्रधानमंत्री को दे दी गई है। हमारे चुने हुए सांसद और विधायक कानून भी बनाते हैं।

लेकिन यह तो औपचारिक राजनीतिक आजादी है लेकिन क्या देश को सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आजादी मिली है? क्या हम भारत में समतामूलक समाज का निर्माण कर पाए हैं? ये काम भी कुछ हद तक हुए हैं लेकिन ये हुए हैं, हाशिए के तौर पर! मूल पन्ने पर आज भी अंग्रेज की गुलामी छाई हुई है। सिर्फ तीन क्षेत्रों को ही ले लें। शिक्षा, चिकित्सा और न्याय! इन तीनों क्षेत्रों में जो गुलामी पिछले दो सौ साल से चली आ रही है, वह ज्यों की त्यों है। हमारे प्रधानमंत्री लोग और न्यायाधीशगण इस गुलामी के खिलाफ आजकल खुलकर बोल रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि इस गुलामी से भारत को छुटकारा कैसे दिलाया जाए। शिक्षा और चिकित्सा पर तो मैं पहले लिख चुका हूं। इस बार न्याय की बात करें।

76 प्रतिशत कैदी जिनके मामले अदालतों में विचाराधीन

हमारी अदालतों में इस समय 4 करोड़ 70 लाख मुकदमे लटके पड़े हुए हैं। इनमें से 76 प्रतिशत ऐसे कैदी हैं, जिनके मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। उनका जुर्म सिद्ध नहीं हुआ है लेकिन वे 10-10 साल से जेल काट रहे हैं। 10-15 साल जेल काटने के बाद अब अदालतें उन्हें निर्दोष सिद्ध करती हैं तो क्या उन्हें कोई हर्जाना मिलता है? क्या उन पुलिसवालों और एफआईआर लिखानेवालों को कोई सजा मिलती है? इसके अलावा अदालती कार्रवाई इतनी लंबी और मंहगी है कि भारत के ज्यादातर लोग उसका फायदा ही नहीं उठा पाते। 76 प्रतिशत उक्त कैदियों में से 73 प्रतिशत दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग होते हैं। अंग्रेजी में चलनेवाली अदालत बहस और फैसले किसी जादू-टोने से कम नहीं होते। वादी और प्रतिवादी को पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके मामलों में बहस क्या हुई है और फैसले का आधार क्या है? हमारे जज और वकील बड़े योग्य होते है लेकिन उनकी सारी शक्ति को अंग्रेजी ही चाट लेती है। यदि हमारी सरकारें, न्यायाधीश और वकील लोग उक्त कमजोरियों का समाधान खोजने लगें तो देश में सच्ची न्यायिक आजादी कायम हो सकती है।

8 घंटे रोज काम

मुकदमे जल्दी-जल्दी निपटें, इसके लिए जरुरी है कि हमारे जज लोग साल के 365 दिनों में कम से कम 8 घंटे रोज काम करें और साल में कम से कम 250-275 दिन काम करें। अभी तो वे साल में सिर्फ 168 दिन काम करते हैं, वह भी सिर्फ 5-6 घंटे रोज! कानून की पढ़ाई भी स्वभाषा में शुरु की जाए और सारी प्रांतीय अदालतों में बहस और फैसले भी उन्हीं की भाषा में हो। सर्वोच्च न्यायालय में सिर्फ अगले पांच वर्ष तक अंग्रेजी का विकल्प रहे लेकिन सारा काम-काज हिंदी में हो। जजों की नियुक्ति में सरकारी दखलंदाजी कम से कम हो ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहे। दुनिया के वे कई देश, जो पहले भारत की तरह गुलाम रहे, उनमें भी आजादी के बाद अदालतें स्वभाषाओं में ही काम करती हैं। जिन देशों की अदालतें आज भी विदेशी भाषाओं के माध्यम से चलती हैं, वे फिसड्डी ही बने हुए हैं। भारत की आजादी के 75 वें वर्ष में हमारे नेता और न्यायाधीश यदि खोखले भाषण ही झाड़ते रहे तो इससे बड़ा मजाक इस उत्सव का क्या होगा?

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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