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Governors of India: विवादों में राज्यपाल

Governors of India : जैसे जैसे हम आज़ादी के साल दर साल आगे बढ़ते जा रहे है,वैसे वैसे ये सवाल अपने उत्तर की प्रतीक्षा में और मज़बूती से खड़े होते जा रहे हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 15 Nov 2022 4:16 AM GMT
Kerala Governor Arif Mohammad Khan
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Kerala Governor Arif Mohammad Khan (photo: social media )

Governors of India : राज्यपाल एक संवैधानिक पद है? वह केंद्र का प्रतिनिधित्व करता है या लोगों का? केंद्र के एजेंट के रूप में काम करता है? उसका काम केंद्र सरकार से अलग की पार्टी की राज्य में सरकार है तो राज्य सरकार के नाक में दम करना है ? या उच्च शिक्षा के लिए कुलाधिपति होना? सदन के ओपनिंग सत्र में भाषण देना ? बहुत लंबे समय से राजनीतिक दलों व आम लोगों दोनों के लिए यह समझना मुश्किल हो गया है कि राज्यपाल बनाये क्यों जाते हैं? इनका काम क्या है? इनका अधिकार क्या है? अपने कर्तव्यों का निर्वहन किये बिना अधिकारों की लक्ष्मण रेखा लांघने को कौन कहता है इनसे? संविधान के दायरे में क्यों नहीं रहते हमारे राज्यपाल?

जैसे जैसे हम आज़ादी के साल दर साल आगे बढ़ते जा रहे है,वैसे वैसे ये सवाल अपने उत्तर की प्रतीक्षा में और मज़बूती से खड़े होते जा रहे हैं। ये सवाल अनुत्तरित होते जा रहे हैं। हाल फ़िलहाल पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे जगदीप धनगढ, केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद खां, महाराष्ट्र के भगत सिंह कोश्यारी, तेलंगाना में राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन, तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि , झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस आदि के उदाहरण सामने हैं। पर इससे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए कि यह जंग केवल भाजपा के शासनकाल के नाते है।

अधिक प्रसिद्ध उदाहरणों में से एक 1989 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई (जनता दल) सरकार की बर्खास्तगी थी। तत्कालीन राज्यपाल ने लोकतांत्रिक रूप से चुने गए मुख्यमंत्री को विधानसभा के पटल पर अपना बहुमत साबित करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया।आंध्र प्रदेश और गोवा के राज्यपालों ने, जिन्होंने क्रमशः एनटी रामाराव और विल्फ्रेड डिसूजा के नेतृत्व वाली सरकारों को बर्खास्त कर दिया।

उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी की हरकतें इतनी स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण थीं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेंसर किए जाने का अपमान सहना पड़ा।2018 में कर्नाटक में सरकार बनाने के दौरान राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई अत्यंत विवादित रही है। राज्यपाल ने सरकार बनाने के लिए एक पार्टी को बुलाया, हालांकि उसके पास साधारण बहुमत नहीं था। उसने बहुमत साबित करने के लिए कुछ समय दिया। लेकिन राज्यपाल ने चुनाव बाद गठबंधन वाली अन्य दो पार्टियों को पहली तरजीह नहीं दी। बाद में कोर्ट के दखल से मामला सुलझ गया।यानी राज्यपाल व राज्य सरकारों के बीच ऐसे रिश्ते कांग्रेस , जनता पार्टी व जनता दल की केंद्र की सरकारों के समय भी रह चुके हैं। कुछ इससे ख़राब समय भी रहा है।

सरकार के लिए राज्य में अवसर पैदा करते हैं राज्यपाल

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल राज्यों में केंद्र के ऐसे प्रतिनिधि होते है, जो केंद्र की पार्टी वाली सरकार के लिए राज्य में अवसर पैदा करते हैं। लेकिन इन दिनों राज्यपालों ने अपने लिए इसे अलग भूमिका भी चुन ली है। दरअसल, भारत की संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में 'दोहरी क्षमता' में कार्य करता है। राज्यपाल को केंद्र के एजेंट, कठपुतली और रबर स्टैम्प जैसे नकारात्मक शब्दों से संबोधित किया जाने लगा है।

संविधान का अनुच्छेद 153 राज्यपाल की नियुक्ति को बाध्यकारी बनाता है।दरअसल, राज्यपाल की परिकल्पना एक अराजनीतिक प्रमुख के रूप में की जाती है जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए। हालाँकि, राज्यपाल को संविधान के तहत दी गई कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरण के लिए,राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को सहमति देना या रोकना, बहुमत साबित करने के लिए किसी पार्टी के लिए आवश्यक समय का निर्धारण करना, या आम तौर पर चुनाव में त्रिशंकु जनादेश के बाद ऐसा करने के लिए किस पार्टी को पहले बुलाया जाना चाहिए यह तय करना।लेकिन राय में अंतर होने पर राज्यपाल और राज्य को सार्वजनिक रूप से किस तरह से संलग्न होना चाहिए, इसके लिए कोई प्रावधान निर्धारित नहीं है।

हमारे संघीय लोकतांत्रिक ढांचे में राज्यपाल की भूमिका को समझने और केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करने के लिए इस संस्था को अनुकूल बनाने के तरीकों की सिफारिश करने के लिए कई महत्वपूर्ण और सुविचारित प्रयास किए गए हैं।

1968 का प्रशासनिक सुधार आयोग, 1969 की राजमनार समिति, 1971 की राज्यपालों की समिति, 1983 की विशेषज्ञों की बेंगलूरू संगोष्ठी और 1988 का सरकारिया आयोग। उन सभी ने कमोबेश एक बिंदु पर सहमति व्यक्त की कि राज्य की राजधानियों में बैठे केंद्र के एजेंट के रूप में राज्यपाल की छवि बनी हुई है। एक ऐसा एजेंट जो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में बेताब तरीके से एक अवसर की तलाश में है।उन सभी ने राज्यपाल के कार्यालय को 'राज्य के संवैधानिक तंत्र की धुरी' बनाने के लिए अत्यंत मूल्यवान सिफारिशें कीं थीं। लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं।

संवैधानिक व्यवस्था

- भारत का संविधान गवर्नर को पारित विधेयक को रोकने, संशोधन प्रस्तावित करने और विधानसभा से दोबारा विधेयक पर विचार करने का अधिकार देता है। लेकिन अगर विधानसभा विधेयक में बिना कोई बदलाव किए, उसे फिर से पारित करके गवर्नर के पास भेजती हैं तब गवर्नर के पास हस्ताक्षर करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है। हालाँकि संविधान ने गवर्नर के हस्ताक्षर करने के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की है।

- निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों (राज्यपाल) के बीच टकराव दशकों पुराना मसला है। पारंपरिक रूप से राज्यपाल तब सुर्खियों में आते थे, जब राज्यों में सरकार के गठन में अड़चन आती थी, खासतौर से तब, जब खंडित जनादेश आता था। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर भी राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठते थे, जिसके तहत वे चुनी गई राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकते थे और केंद्रीय शासन लगा सकते थे। हालांकि, यह स्थिति 1994 में एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ के फैसले के बाद बदल गई। अब राज्य सरकारों को कोई केंद्र सरकार अपनी मर्जी से बर्खास्त नहीं कर सकती। मगर अब केंद्र और राज्यों के संबंधों ने एक अलग मोड़ ले लिया है। दरअसल, उन राज्यों में, जहां केंद्र का विरोध करने वाली पार्टियों की सरकार है, एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता, जब राज्य सरकार पर राज्यपाल निशाना न साधते हों, और जवाब में मुख्यमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के साथी मैदान में न उतर आते हों।

इन दिनों बंगाल, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना की सरकारें अपने राज्यपालों के कथित 'अलोकतांत्रिक और संविधान विरोधी कार्यों' के खिलाफ बहुत मुखर हैं। उनके मतभेद तेज होते जा रहे हैं।दक्षिण के तीन राज्यों में मतभेद और तकरार की जड़ में विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति और लंबित बिल हैं। डीएमके और सीपीएम राज्यपालों के कार्यों के खिलाफ गैर-भाजपा दलों को एक साथ लाने के लिए भी पहल कर रहे हैं। कई अन्य विपक्ष शासित राज्यों में भी राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनातनी चल रही है। ऐसे राज्यों में पश्चिम बंगाल, पंजाब, झारखंड के साथ ही दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना और उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर सवाल खड़े हुए हैं।

पिनाराई विजयन और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच तनातनी

केरल में पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाली सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच तनातनी अब ऐसे मुकाम पर पहुँच गयी है जहाँ से सुलह-समझौते की कोई गुंजाइश ही नजर नहीं आती। सत्तारूढ़ वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) ने आरोप लगाया गया है कि आरिफ मोहम्मद खान शिक्षा क्षेत्र में संघ परिवार के एजेंडे को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। आलम ये है कि एक प्रेस कांफ्रेंस में आरिफ मोहमद खान ने दो मलयालम चैनलों, कैराली और मीडिया वन के पत्रकारों को "सरकार समर्थक" कहते हुए उन्हें बाहर जाने के लिए कहा। इसके विरोध में 8 नवम्बर को पत्रकार यूनियनों ने राजभवन तक एक विरोध मार्च निकाला। ये भी अपने आप एक अभूतपूर्व घटना है। अब मुख्यमंत्री विजयन ने राज्यपाल को पद से हटाने के लिए एक अध्यादेश लाने का फैसला किया है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान द्वारा केरल के सभी नौ विश्वविद्यालयों के इस्तीफे की मांग के बाद राज्य सरकार ने ये फैसला किया है। अब तो केरल सरकार ने एक डीम्ड यूनिवर्सिटी से राज्यपाल को चांसलर पद से हटाने की व्यवस्था भी कर दी है।

तेलंगाना में राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन और के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली टीआरएस सरकार के बीच तनाव और बढ़ गया है। सरकार जहां महत्वपूर्ण विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं करने को लेकर राज्यपाल से खफा है, वहीं राजभवन सरकार पर प्रोटोकॉल का पालन नहीं करने का आरोप लगा रही है। राज्यपाल डॉ तमिलिसाई सुंदरराजन ने अब एक धमाकेदार आरोप लगते हुए कहा है कि उन्हें संदेह है कि उनका फोन टैप किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी प्राइवेसी में हस्तक्षेप किया जा रहा है। उन्होंने दावा किया कि राज्य में "अलोकतांत्रिक स्थिति" है, विशेष रूप से राज्यपाल के कार्यालय के संबंध में।

तमिलनाडु में भी, सत्तारूढ़ द्रमुक राज्यपाल आर.एन. रवि के साथ तकरार में है, और उसने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से राज्यपाल को हटाने की मांग तक कर डाली है। द्रमुक लंबित विधेयकों और रवि की 'सनातन धर्म' की टिप्पणी से नाराज है। राज्यपाल रवि उस वक्त भी आलोचना के घेरे में आ गए, जब उन्होंने तमिल शास्त्रीय ग्रंथ तिरुक्कुलर के 'आध्यात्मिक पहलुओं' को 'निहित स्वार्थों' द्वारा जान-बूझकर कमतर किए जाने का आरोप लगाया, जिसे द्रमुक ने खुद पर हमला माना। माकपा और कांग्रेस सहित द्रमुक के सहयोगियों ने कहा है कि राज्यपाल नीतिगत मामलों और अन्य मुद्दों पर भाजपा के रुख को दोहराकर राज्य में भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्यपाल रवि को संवैधानिक पद के लिए अयोग्य करार दिया है। स्टालिन ने कहा है कि रवि शांति के लिए ख़तरा हैं और बर्खास्त होने योग्य हैं।

पिछले कुछ माह से राज्यपाल रमेश बैस और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बीच शह-मात के दांव चले जा रहे। राज्यपाल पर आरोप है कि वह केंद्र के इशारे पर राज्य सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा से सदस्यता के मामले में अभी तक राज्यपाल ने चुनाव आयोग के द्वारा भेजी गई रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है, जिसे लेकर राज्य में असमंजस वाले हालात बने हुए हैं।

राज्यपालों की संवैधानिक भूमिका पर अपने भाषण में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने कहा था कि कैसे एक राज्यपाल को अपने विवेक का उपयोग 'एक पार्टी के प्रतिनिधि' के रूप में नहीं बल्कि 'समग्र रूप से लोगों के प्रतिनिधि' के रूप में करना चाहिए।

इन दिनों सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव ज्यादातर विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति के आसपास केंद्रित है ।राज्यपाल उच्च शिक्षा के मामले में एक मंत्री की तरह काम करने लगे हैं।इसलिए उच्च शिक्षा के नैतिक मानदंड तो ख़त्म हुए ही सरकारों के कामकाज का भ्रष्टाचार भी राजभवन में घुस गया। कुलपतियों की नियुक्ति में पैसे के लेन देने की चर्चाएँ आम होने लगीं। एक नया चलन यह दिख रहा है कि राज्यपाल लेखक होते जा रहे हैं, उनकी किताबें ख़रीदने को विश्वविद्यालय विवश हैं। सवाल यह भी है कि यदि राज्य में उठा पटक न हो, उच्च शिक्षकों राजभवन का सीधा दिल न हो तो राजभवन अपनी उपस्थिति कैसे दर्ज कराये? सदन के सत्र में संबोधन सुनने को कोई तैयार नहीं है। पढ़ा हुआ मान लिया जाये - के चलन ने भाषण सुनने व देने के अवसर ख़त्म कर दिये। मुख्यमंत्री को शपथ दिलाने के अलावा राज्यपाल काम क्या करे? क्या वह पाँच साल तक शपथ दिलाने के बाद नेपथ्य में पड़ा रहे? वह भी तब जब राज्यपाल अपने राजनीतिक करियर के बीच में भी बन रहे हैं। कई बार लौट कर उन्हें अपनी राजनीति फिर से शुरू करनी पड़ती है। ऐसे में निष्पक्षता उन्हें भारी पड़ सकती है। हमारे संविधान के निर्माण के समय यह तथ्य स्थिर मान लिया गया था कि व्यक्ति उस समय जैसे थे, वैसे ही रहेंगे। लोग चुनौती को अवसर में नहीं बदलेंगे।बल्कि चुनौती से निपटने में जुटेंगे। आज व्यक्ति बदले हैं, पूरी तरह बदले हैं। इसलिए संविधान को बदले हुए व्यक्तियों के अक्श में देखने की ज़रूरत है।

( लेखक पत्रकार हैं।)

Monika

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Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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