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Major Dhyanchand: ध्यानचंद के बगैर अधूरी है भारत की हॉकी

ध्यानचंद, यानी हॉकी के पहले सुपरस्टार, जादूगर और मास्टर। ध्यान चंद ने 12 ओलिंपिक मैच खेले जिनमें उन्होंने 33 गोल दागे।

Neel Mani Lal
Published on: 10 Aug 2021 9:14 AM GMT
Major Dhyanchand
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मेजर ध्यानचंद की फाइल तस्वीर (फोटो साभार-सोशल मीडिया)

Major Dhyanchand: ध्यानचंद, यानी हॉकी के पहले सुपरस्टार, जादूगर और मास्टर। ध्यान चंद ने 12 ओलिंपिक मैच खेले जिनमें उन्होंने 33 गोल दागे। जबकि अंतरराष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 400 से अधिक गोल किए थे। ध्यानचंद का हॉकी में वही स्थान है जो फुटबाल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन का है।

ध्यानचंद हॉकी स्टिक के गजब के आर्टिस्ट थे और इसी जादूगरी के चलते कभी कभी उनकी स्टिक को शक की निगाह से देखा जाता था कि कहीं उसमें गेंद को चिपकाने वाला कोई पदार्थ तो नहीं लगा है। कहा जाता है कि एक बार उनकी हॉकी स्टिक को तोड़ कर उसकी जांच तक की गयी थी। हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है। जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है।

ध्यानचंद हमेशा सेंटर फॉरवर्ड पोजीशन में खेलते थे। अपने ज़माने में उन्होंने किस हद तक अपना लोहा मनवाया होगा इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं, मानों कि वो कोई देवता हों। ध्यानचंद जिस ज़माने में हुए हैं तब न तो एस्ट्रो टर्फ यानी कृत्रिम घास होती थी और न स्पेशलिस्ट जूते। तब प्राकृतिक घास पर मैच खेले जाते थे जिस कारण मैदान एकदम समतल नहीं होता था और ऐसे में गेंद पर कंट्रोल करना आसान बात नहीं होती थी।


1936 के बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचंद के साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने 'वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन' के एक अंक में लिखा था - ध्यान के पास कभी भी तेज़ गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे। लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गज़ब की क्षमता थी। बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ़्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फ़ायदा मिला। डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था।

1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं। जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था। बताया जाता है कि 1959 में भी जब ध्यानचंद 54 साल के हो चले थे भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी उनसे गेंद नहीं छीन सकता था।

हॉकी से रिश्ता

1922 में ध्यान चंद 16 साल की उम्र में बतौर सिपाही सेना में भर्ती हो गए। सेना में भर्ती होने से पहले ध्यानचंद को न हॉकी खेलना आता था और न ही उनकी रुचि थी लेकिन सेना में लोगों को खेलते देखा तो मन में ख्वाहिश जगी और उनको सिखाने का जिम्मा लिया सूबेदार बाले तिवारी ने। ध्यानचंद को हॉकी की बारीकियां सूबेदार तिवारी ने ही सीखीं थीं। वह रात में खेल की प्रैक्टिस करते थे और चांद के निकलने का इंतजार भी करते ताकि चाँद की रोशनी में खेल सकें। चांद के इंतजार के कारण ही उनके दोस्त उन्हें चंद पुकारने लगे और उनका नाम ध्यानचंद पड़ा।

पहला विदेश दौरा

वर्ष 1926 में पहली बार भारत की हॉकी टीम विदेश दौरे पर गई थी। न्यूजीलैंड में टीम ने कुल 21 मैच खेले और 18 में जीत दर्ज की। भारत ने कुल 192 गोल दागे जिनमें 100 गोल सिर्फ ध्यानचंद के थे। लौटने पर ध्यानचंद का प्रमोशन करके उन्हें लांस-नायक बना दिया गया।

वर्ष 1928 में एम्सटर्डम में ओलंपिक में जाने के लिए भारत की पहली राष्ट्रीय टीम चुनने के लिए कई टीमों के मैच करवाए गए, जिसमें ध्यानचंद संयुक्त प्रांत की ओर से खेले और चुने गए।

एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय टीम ने इतिहास बना दिया और एक के बाद एक मैच जीते। 26 मई, 1928 को हॉलैंड के साथ फाइनल मैच हुआ और भारत 3-0 से जीत गया। तीनों गोल ध्यानचंद ने किए थे।

कहलाये गए जादूगर

इसी ओलंपिक के बाद पहली बार ध्यानचंद के नाम के साथ जादूगर शब्द जोड़ा गया। कहते हैं कि किसी अंग्रेज अफसर की बीवी ने ध्यानचंद से हॉकी के बजाय बंद छतरी से खेलने का चैलेंज दिया था, जिसे ध्यानचंद ने मुस्कुराते हुए पूरा कर दिया था।

ध्यानचंद से प्रभावित होकर उनके भाई रूप सिंह भी हॉकी खेलने लगे और मेहनत की बदौलत अच्छे खिलाड़ी बन गए। 1932 का ओलंपिक लॉस एंजेल्स में होना था। टीम में सेना की तरफ से ध्यानचंद और संयुक्त प्रांत की ओर से रूप सिंह चुने गए। इस ओलंपिक में भी भारतीय टीम शान से फाइनल में पहुँची। फाइनल मैच 14 अगस्त, 1932 को अमेरिका से था जिसमें भारतीय टीम ने 1 के मुकाबले 24 गोल दागे।

इस जीत के बाद भारत का डंका बजने लगा। जर्मनी के बुलावे पर भारतीय टीम ने वहां का भी दौरा किया। अब तक ध्यानचंद के दीवाने विदेशों में भी बहुत हो गए थे।

1936 के ओलंपिक बर्लिन, जर्मनी में होने थे। वो हिटलर के नाजी शासन का दौर था। भारतीय टीम की कप्तानी ध्यानचंद को मिली। ये पहले ओलंपिक खेल थे, जिन्हें टीवी पर दिखाया गया। टूर्नामेंट में इंडिया का प्रदर्शन शानदार रहा। फाइनल मुकाबला जर्मनी से था। मैच होना था 14 अगस्त को लेकिन बारिश की वजह से मैच 15 अगस्त को खेला गया। खेल के दौरान जर्मन गोलकीपर की हॉकी स्टिक ध्यानचंद के मुंह पर लग गयी और उनका एक दांत टूट गया। कुछ वक्त के लिए उनको मैदान छोड़ना पड़ा लेकिन चोटिल हालत में ध्यानचंद मैदान में लौटे।

भारत ने जर्मनी को 1 के मुकाबले 8 गोल से शिकस्त दी। मैच से पहले वाली रात को बर्लिन में जमकर बारिश हुई थी, इसी वजह से मैदान गीला था। भारतीय टीम के पास स्पाइक वाले जूतों की सुविधा नहीं थी और सपाट तलवे वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे। इसके चलते ध्यानचंद हाफ टाइम के बाद जूते उतारकर नंगे पांव खेले थे। बताया आजाता है कि ओलंपिक के समापन समारोह में हिटलर से ध्यानचंद का सामना भी हुआ। हिटलर ध्यानचंद से इतने प्रभावित थे कि उनको अपनी सेना में कर्नल बनने का ऑफर दिया। सहज भाव से ध्यानचंद ने ये पेशकश ठुकरा दी।

सिपाही से मेजर

- 1922 में सेना की प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में सिपाही की हैसियत से भर्ती हुए।

- एम्स्टर्डम ओलिंपिक में जीत के बाद 1927 में लांस नायक बना दिए गए।

- 1932 ई. में लॉस एंजेलस जाने पर प्रमोशन मिला और नायक बना दिए गए।

- 1937 में जब भारतीय हाकी टीम के कप्तान बने तो उन्हें सूबेदार पद पर प्रोमोट कर दिया गया।

- द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर 1943 में लेफ्टिनेंट नियुक्त हुए।

- भारत के स्वतंत्र होने पर 1948 में कप्तान बना दिए गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।

निजी जीवन

ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में हुआ था। वो एक राजपूत परिवार में जन्मे थे और उनका असली नाम ध्यान सिंह था। ध्यानचंद के पिता सूबेदार सोमेश्वर सिंह सेना में थे। उनका ट्रान्सफर झाँसी हो जाने पर ध्यानचंद भी यहीं आ गए और ताउम्र झाँसी से ही उनका रिश्ता रहा। 1956 में 51 वर्ष की उम्र में ध्यानचंद रिटायर हो गए। रिटायर्मेंट के बाद वह राजस्थान के माउंटआबू में हॉकी कोच के रूप में कार्य करते रहे। इसके बाद पाटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स में वह चीफ हॉकी कोच बन गए। अपने जीवन के आखिरी दिनों में ध्यानचंद झांसी में ही रहे।

ध्यानचंद के आखिरी दिन अच्छे नहीं थे। बताया जाता है कि आखिरी दिनों में उन्हें पैसों की भी कमी थी। उनको लीवर कैंसर हो गया था और 3 दिसंबर, 1979 में एम्स, दिल्ली में उनका निधन हो गया।

परिवार

ध्यानचंद की पत्नी का नाम जानकी देवी था। ध्यानचंद के कुल 11 बच्चे थे, जिनमें से तीन अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनके 7 बेटे (बृजमोहन, सोहन सिंह, राजकुमार, अशोक कुमार, उमेश कुमार, देवेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह) और 4 (विद्यावती, राजकुमारी, आशा सिंह और ऊषा सिंह) बेटियां थीं। उनके बेटे अशोक ध्यानचंद भी इंटरनेशनल प्लेयर रहे।

सम्मान

- ध्यानचंद के जन्मदिवस 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है।

- ध्यानचंद की याद में डाक टिकट जारी हो चुका है।

- दिल्ली में ध्यानचंद ने नाम पर नेशनल स्टेडियम है।

- 1956 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

निजी शौक

बताया जाता है कि ध्यानचंद को खाना बनाने, खासतौर पर मटन बनाने का शौक था। वे बिलियर्ड और क्रिकेट भी बहुत अच्छा खेलते थे। ध्यानचंद शायरी भी लिखते थे और उनकी फेवरेट एक्ट्रेस हेमा मालिनी और जरीना वहाब थीं। उन्होंने इन दोनों के लिए शायरी भी लिखी थी। ध्यानचंद हमेशा शर्मीले स्वाभाव के रहे और वे बहुत कम लोगों से मिलते जुलते थे।

Raghvendra Prasad Mishra

Raghvendra Prasad Mishra

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