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Lucknow Chikankari: चिकनकारी की कढ़ाई से जुड़ी खास जानकारी, आखिर कैसे बनी ये लखनऊ की शान
Lucknow Famous Chikankari: आखिर कैसे चिकनकारी लखनऊ में आया, और यही का बनकर रह गया। छक्के आपको इस कहानी के बारे में बताते है।
Lucknow Famous Chikankari Detail: चिकनकारी लखनऊ की शान कही जाती है। लेकिन आपको पता है ऐसा क्यों? आखिर कैसे चिकनकारी लखनऊ में आया, और यही का बनकर रह गया। छक्के आपको इस कहानी के बारे में बताते है। चिकनकारी एक पारंपरिक कढ़ाई शैली है। चिकन मूलतः फारसी शब्द चाकिन से बना है। जिसका मतलब कपड़े पर कढ़ाई करके बेल बूटे बनाना है। जिसकी उत्पत्ति भारत के लखनऊ शहर में हुई थी। यह महीन मलमल के कपड़े पर नाजुक और जटिल सफेद धागे के काम के लिए प्रसिद्ध है। इसका इतिहास बहुत गौरवशाली है। इसमें सुंदर पैटर्न और डिजाइन बनाए जाते है। चिकनकारी का इतिहास कई सदियों पुराना है। कहा जाता है कि मुगल काल में इस कला का विकास हुआ। इसके बाद लखनऊ के हर 10 में वे 5 परिवार इस कारीगरी में माहिर हो गया था, जिससे यह लखनऊ की शान बन गई। चिकनकारी की कढ़ाई विश्वभर में प्रसिद्ध है।
ऐसे शुरू हुआ था चिकनकारी
ऐसा माना जाता है कि चिकनकारी की शुरुआत भारत में मुगल काल के दौरान हुई थी, जो 16वीं शताब्दी में शुरू हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि इस तकनीक को मुगल सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ द्वारा भारत के शहर लखनऊ में लाया गया था। मुगल शासकों और उनके कुलीन परिवारों के संरक्षण में यह कला विकसित हुई। फिर इसका विस्तार हुआ।
ऐसे होती है चिकनकारी की कारीगरी
प्रारंभ में, चिकनकारी मुख्य रूप से सफेद धागे का उपयोग करके सफेद मलमल के कपड़े पर की जाती थी। बनावट में प्रकृति के तत्वों, जैसे फूल, पत्ते और पक्षियों से प्रेरित थे। समय के साथ, कला का रूप विकसित हुआ और इसमें फ़ारसी और तुर्की डिज़ाइनों का प्रभाव शामिल करके और सुंदर कारीगरी के नमूने बनाए गए। जो बहुत पसंद किए जाने लगे। चिकनकारी में उपयोग किए जाने वाले पारंपरिक टांके में बैकस्टिच, चेन स्टिच और हेमस्टिच शामिल हैं।
नवाबों ने चिकनकारी को दिया शाही संरक्षण
18वीं और 19वीं शताब्दी में अवध के नवाबों के शासनकाल के दौरान चिकनकारी को महत्वपूर्ण लोकप्रियता और शाही संरक्षण प्राप्त हुआ। नवाब, जो इस क्षेत्र के शासक थे, उन्होंने कला को बढ़ावा देने और इसे संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने कुलीन कारीगरों और शाही दरबार के लिए उत्तम चिकन वस्त्र बनाने के लिए कुशल कारीगरों को प्रोत्साहित किया था।
खत्म हो गया था चिकनकारी का राज फिर हुआ उत्थान
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान चिकनकारी का पतन लगभग होने ही वाला था। चिकनकारी के गौरव को गिरावट का सामना करना पड़ा। उस समय मशीन-निर्मित कपड़ों के आयात के कारण स्थानीय कपड़ा उद्योग को बहुत नुकसान हुआ था। हालांकि, चिकनकारी को पुनर्जीवित करने का प्रयास 20वीं सदी की शुरुआत में किया गया था। विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों ने इसके सांस्कृतिक और कलात्मक मूल्य को पहचाना, जिससे शिल्प में रुचि का पुनरुत्थान हुआ। फिर इसे फिर से लोगों के बीच चर्चे में लाकर इसके पुनरुत्थान किया गया।
चिकनकारी का महत्व
आज, चिकनकारी को कढ़ाई के एक बहुमूल्य रूप के रूप में जाना जाता है। इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई है। यह पारंपरिक परिधानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आज के फैशन में भी फैला हुआ है, जिसमें साड़ी, सलवार कमीज, कुर्तियां और यहां तक कि घर की सजावट की वस्तुएं भी शामिल हैं। चिकन कढ़ाई लखनऊ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और शिल्प कौशल का प्रतीक बन गई है।
भौगोलिक संकेत (GI: Geographical Indication):
वर्ष 2008 में, चिकनकारी को भौगोलिक संकेत (GI) का दर्जा प्राप्त हुआ। जो इसकी उत्पत्ति और अद्वितीय विशेषताओं को पहचानता है और उनकी रक्षा करता है। जीआई स्थिति यह सुनिश्चित करती है कि केवल अलग भौगोलिक क्षेत्र में उत्पादित प्रामाणिक कला को ही इस तरह लेबल किया जा सकता है। जिससे पारंपरिक शिल्प को नकल से बचाया जा सके।
चिकनकारी को आज भी एक कला के रूप में संजोया जाता है जो कारीगरों के कौशल और कलात्मकता को प्रदर्शित करता है। इसने न केवल पारंपरिक कढ़ाई तकनीकों को संरक्षित किया है, बल्कि क्षेत्र के सांस्कृतिक और आर्थिक ताने-बाने में योगदान देते हुए कई कारीगरों को रोजगार के अवसर भी प्रदान किए हैं।