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Kathal Movie Review: कटहल मूवी नहीं देखी तो क्या देखी, क्योंकि ऐसी फिल्में बनती ही कभी-कभी हैं

Kathal Movie Review: पंद्रह पंद्रह किलो के दो कटहल, जिनका बाजार भाव मात्र तीन सौ साठ रुपए था, उन्हें ढूंढने में पूरा पुलिस महकमा लगा है। असल में हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें हर गैर-जरूरी बात को, गंभीरता से लिया जाता है। जरूरी बातें बकवास मानी जातीं।

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Published on: 23 May 2023 9:55 AM GMT
Kathal Movie Review: कटहल मूवी नहीं देखी तो क्या देखी, क्योंकि ऐसी फिल्में बनती ही कभी-कभी हैं
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Kathal Movie Review (social media)

Kathal Movie : हमारी सोसायटी की , बड़े मतलब वाली , शर्मसार करने वाली , एक छोटी सी कहानी को लेकर, हास्य, व्यंग्य, संगीत , अभिनय और मनोरंजन से लबालब फिल्म कैसे बनाई जाती है, इसके लिए कटहल का उदाहरण दिया जा सकता है।
पंद्रह पंद्रह किलो के दो कटहल, जिनका बाजार भाव मात्र तीन सौ साठ रुपए था, उन्हें ढूंढने में पूरा पुलिस महकमा लगा है। असल में हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें हर गैर-जरूरी बात को, गंभीरता से लिया जाता है। जरूरी बातें बकवास मानी जातीं। अशोक मिश्र ने इस कटहल -कथा को गढ़ा ही इस अंदाज में है कि सारा कुछ सामने आकर अपनी बात कह जाए।
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सरकारी कारिंदा अपने आफीसर की या नेता की गलत डिमांडों से ऊब जाता है। लेकिन उसी सिस्टम में बिंधा होने की वजह से उसमें विरोध करने की न साहस होता और न नीयत, तो मजबूरी में वह खामोश रहता है।

कटहल में एसपी से जब इंस्पेक्टर पूछती है कि,"कटहल चोरी की इतनी छोटी सी बात को वो काहे इतना तूल दे रहे हैं।”

तो एसपी बोलते हैं,"मथुरा में रहना है तो राधे राधे कहना है।”

सड़ांध मारती राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में यह गहरी मार है। ज्यादातर सरकारी लोग इसलिए संवेदनाहीन हैं क्योंकि ऊपर बैठे, जो इनसे काम लेते हैं, वो चाहते हैं कि ये उनके जैसे बने या फिर मथुरा छोड़ दें।

एसपी साहब के फोन की रिंग टोन भी उनकी मजबूरियों और बदमाशियों का पर्दाफाश हंसते हुए करती है।
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"कटहल चोरी का केस कैसे बनेगा...?" इंस्पेक्टर ने पूछा।
“ केस नहीं बनता तो बनाओ..." एसपी साहब।
“ ऐसे तो मुश्किल हो जाएगी, कल को लोग कुम्हड़ा ,लौकी , तुरई की रिपोर्ट लिखवाने आ जाएंगे..?"
एसपी बेहद मजबूरी में इधर-उधर देखकर बोलते हैं," प्लीज़ कापरेट.."

राजनीति का दबाव ऐसा कि ऊंचे अफसर जो हर सवाल का जवाब देकर नौकरी में आए थे, वे भी सवालों के जवाब देने में बगलें झांकने लगते हैं।
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“चोरों का स्टैंडर्ड कितना गिर गया है कटहल चुरा रहे हैं?"
“ हम पुलिस वालों का स्टैंडर्ड कौन आसमान छू रहा है?"

ये सारे संवाद फिल्म की गहराई बताते हैं। फिर कलाकार इन्हें बोलते हैं तो समझ पड़ता है कि समाज में सारी बातें कितनी बेशर्मी से गोते लगा रही हैं।

“लाओ रिमोट हमें दो... तुमसे न बनी..।" सीसी टीवी के सामने बैठा दामाद कहता है।
“काए..? काए न बनी?" उसकी पत्नी।
“ माडर्न टेक्नोलॉजी का मामला है।" दामाद।
मतलब,मार्डन टेक्नोलॉजी है इसलिए महिला से नहीं बनेगी?

पुरुषवाद पर बहुत दूर तक कटाक्ष करती हुई बात जो लोकतंत्रधारी राजनेताओं के घरों की महिलाओं की हैसियत बता रही होती है।
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“जिन्दगी भर आलूबंडा बनाती रहोगी? प्रमोशन होगा तो क्या करोगी?"

महिला कांस्टेबल कुंती कहती है..." प्रमोशन हो जाएगा तो ट्रांसफर हो जाएगा ना? फिर ससुर और हमारे पति को कौन सम्हालेगा? यही सोचकर प्रमोशन शब्द हमने अपनी डिक्शनरी से डिलीट कर दिया।”

थाने के सामने पति वकील साहब ने आलू बिखरा दिए और उसे समेटे उनकी थकी हारी कांस्टेबल पत्नी.."उठाओ अब इनको।”

नारी शोषण के कितने बारीक प्रतीक। कितने गहरे दृश्य। महिलाओं का सार्वत्रिक शोषण, पुरुषों से अधिक, उनके संस्कार करते हैं। परिवार सम्हालना है , इसलिए प्रमोशन नहीं चाहिए? गृहस्थी कच्ची है तो नौकरी कैसे करें...?
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अदालत में माली कहता है कि,"इंस्पेक्टर साहब ने कहा था कि तुम बोल देना कि लड़की ने कटहल चुराए हैं..।"
“आपने ऐसा क्यों किया इंस्पेक्टर?" जज ने पूछा।
“हमारे पास को रास्ता नहीं था। लड़की की जान खतरे में थी और पुलिस मोहकमा कटहल ढूंढने में लगा हुआ था। उस वक्त हमें लगा कि कटहल ढूंढने से ज्यादा जरूरी लड़की को ढूंढना है।”
बोलिए, देखा है ऐसा प्रहार हमारे बेरहम इंतजाम पर। यकीनन काफी मारक मार।‌
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शादी पर अड़ंगा इसलिए कि लड़की लड़के की जाति अलग-अलग। और लड़का कांस्टेबल और लड़की इंस्पेक्टर। लड़की की पोस्ट ऊपर है।
शादी कैसे हो?
विकट समस्याएं हैं।
लेकिन फिल्म समस्याओं के हल की दिशा में नहीं बढ़ती। बढ़ना भी नहीं चाहिए। सशक्त व्यंग्य वही है जो समाधान की बात न करे। दरअसल, समस्याएं, समाज ही पैदा करता है। उसके व्यवहारिक और स्थाई हल भी समाज को पास ही होते हैं।
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नेताओं की कोई जवाबदेही नहीं।
“आपके लिए कटहल इतना क्यों इम्पार्टेंट है?" इंस्पेक्टर।
“का इम्पार्टेंट है ये हमहिं बताएं?" पटेरिया विधायक,"इससे अच्छा पुलिस की वर्दी न पहन लें।”
कैसा विचित्र गैरजिम्मेदाराना जवाब,पर नेता हैं तो कुछ भी बोलना है। अधिकार है।
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“लोकतंत्र के चौथे खंभे को ही गिरा दोगे क्या?" पत्रकार अनुज।
“ऐ दद्दा..खंभा हो तो चुपचाप खंभा अस खड़े रहो ना...कोई नहीं हिलाए रहा।” कांस्टेबल कुंती।
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काम मिलते ही एपेंडिक्स का दर्द हो जाता है डिप्टी एसपी शर्मा जी को।
“शर्मा जी जांच शुरू करो.. पता लगाओ कटहल का ।"
“सर हमें आपरेशन करवाना पड़ सकता है। एपेंडिक्स का अचानक पेट में भयंकर दर्द शुरू हो जाता है..।"
और बहाना करके अपना काम इंस्पेक्टर पर डाल देता है।
ये सरकारी नौकरी का परम सत्य है। जिम्मेदारी मिलते ही तबीयत खराब हो जाती है। और जो ऐसा नाटक नहीं कर सकते वो काम कर कर के बीमार हो जाते हैं।
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क्लाइमेक्स में रघुवीर यादव , तरकारी युद्ध के जरिए आते हैं। उनका यह रूप मैंने पहली बार देखा है। पांडे, लौकी, कुम्हड़ा, तरबूज, आलू, तेल के डिब्बे...सारे कुछ थे आक्रमण के हथियार। बचाव के लिए थे तसले, परात और लोटे।
तरकारी युद्ध, हंसाता है। यह दृश्य लगभग सभी फिल्मों में रहता है। जिसमें बंदूक, तलवार, चाकू, बम, ..से निशानेबाजी होती है। दीवार के पीछे, दरवाजे के पीछे छिपकर वार किए जाते हैं। ऐसा इस फिल्म में भी हो सकता था। लेकिन वह इसे रूटीन की फिल्म बनाता। हलवाई के घर युद्ध हो रहा है तो हथियार और ढाल भी टमाटर , तरबूजे और परात-लोटे ही होंगे.।
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तीन गीत हैं। मथुरा में रहना है तो राधे राधे कहना है..। निकर चलो रे...। और दिल की बाल उछाली, लल्ला लपक के कर लो कैच..। तीनों गीत में लोकप्रिय होने के सभी गुण मौजूद हैं। लेकिन फिल्म में इन तीनों का इस्तेमाल अधपकी शैली में हुआ है।
अशोक मिश्र के लिखे गीतों का देसीपन बरकरार रहे, इसका ध्यान संगीतकार राम संपत ने बराबर रखा है। गीत संगीत दर्शकों की सपनीली दुनिया को साकार करने वाले हैं...दिल की बाल उछाली.. मन को थिरकाने वाला गीत है । जबकि राधे राधे कहना है..उमंग को गहरे रंग देता है..। और निकर चलो रे.. कोमल स्वर में प्रेम की दशा दिखाता है।
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जीवन के यथार्थ को कभी प्रतीक , तो कभी एकदम सीधे तौर पर सिनेमा के पर्दे पर दिखलाने के लिए जिस व्यावसायिक साहस की जरूरत होती है यकीनन वह निर्देशक यशोवर्धन मिश्र में ऊपर तक फुल भरा हुआ है। हिन्दी सिनेमा में राजनेताओं पर , पुलिस पर, व्यवस्था पर , फिल्मकारों के दृश्यगत, और संवादगत साहस के उदाहरण यदा-कदा ही दिख पड़ते हैं। कटहल में यह साहस मिलता है।
पहली फिल्म के पालने में ही यशोवर्धन मिश्र के पांव दिखलाई पड़े हैं। उनके सारे एप्रोच जितने कलात्मक हैं उतने ही मारक भी।
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कटहल में रघुवीर यादव और राजपाल यादव दोनों हैं। राजपाल पत्रकार हैं और रघुवीर यादव हलवाई। दोनों के अभिनय का स्वाद एकदम अलग है। उनके अभिनय, शब्दांकन की बाउंड्री लाइन से कहीं बाहर है। हर बाल पे छक्का।

सान्या महरोत्रा...जिम्मेदारी, महिलापन, गहन दुख, कभी मौन तो, कभी मुखर हास्य, अपनी सोच, स्वतंत्र व्यक्तित्व..की चेतना संपन्न, इंस्पेक्टर महिमा बसोर की भूमिका में हैं। यकीनन वे सुंदर ही नहीं प्रतिभासंपन्न भी कलाकार हैं। उन्होंने अपने में बुंदेली बोली ढालने का जो प्रयास किया है, वह बेहद बेहतरीन है।

विजय राज, नेता हैं, जिनके कटहल चोरी चले गए हैं। नेताओं की पक्की ऐंठन, उनमें देखकर, बहुत बुरा लगता है और यही उनकी सफलता है।

अनंत जोशी और नेहा सराफ, का सीधा सपाट अभिनय मुझे बहुत पसंद आया। निकर चलो...गीत में अनंत जोशी का अभिनय उभर के आया है। नेहा सराफ, नारी के बहुत मुश्किल अबलापन को जताने में सफल हुई हैं।

एसपी गुरुपाल सिंह और डिप्टी एसपी सतीश शर्मा, के अभिनय की स्वाभाविकता सिर्फ इतनी है कि वो दोनों एसपी और डिप्टी एसपी ही लगते हैं। यही उनका कमाल है।

मेरा यह मानना है कि इस फिल्म की लंबाई थोड़ी और होनी थी। इससे दृश्य, कुछ और सशक्त बनते।
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बहरहाल,
कटहल ज़रूर देखिए। यह देखने लायक है इसलिए भी है क्योंकि ऐसी फिल्में बनती ही कभी कभी हैं।

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