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गणेशोत्सव आज सेः न्यूजट्रैक के साथ करें, अष्टविनायक – एक आध्यात्मिक यात्रा 

भारतवर्ष की पहचान सांस्कृतिक विविधता एवं उसके पर्व-त्योहार हैं। जो इसे दुनिया के बाकी देशों से अलग एवं अनूठी प्रतिष्ठा देते हैं। दुनिया भर से जिज्ञासु-सैलानी हमारे देश के विभिन्न त्योहारों का आनंद लेने आते हैं। ‘न्यूज़ ट्रैक’ आपको ले चल रहा है ऐसी ही एक अनूठी धार्मिक यात्रा पर जो वैसे तो वर्ष भर जारी रहती है, किन्तु गणेशोत्सव के दौरान इसकी महत्ता एवं वैभव कुछ और ही बढ़ जाता है।

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Published on: 22 Aug 2020 10:26 AM GMT
गणेशोत्सव आज सेः न्यूजट्रैक के साथ करें, अष्टविनायक – एक आध्यात्मिक यात्रा 
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गणेशोत्सव आज सेः न्यूजट्रैक के साथ करें, अष्टविनायक – एक आध्यात्मिक यात्रा 

निराला त्रिपाठी

भारतवर्ष की पहचान सांस्कृतिक विविधता एवं उसके पर्व-त्योहार हैं। जो इसे दुनिया के बाकी देशों से अलग एवं अनूठी प्रतिष्ठा देते हैं। दुनिया भर से जिज्ञासु-सैलानी हमारे देश के विभिन्न त्योहारों का आनंद लेने आते हैं। ‘न्यूज़ ट्रैक’ आपको ले चल रहा है ऐसी ही एक अनूठी धार्मिक यात्रा पर जो वैसे तो वर्ष भर जारी रहती है, किन्तु गणेशोत्सव के दौरान इसकी महत्ता एवं वैभव कुछ और ही बढ़ जाता है।

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सनातनी हिन्दू परंपरा में प्रथम वंदनीय, पूजनीय भगवान श्रीगणेश को ऋद्धि सिद्धि, ज्ञान और विवेक का देवता माना गया है। भगवान श्रीगणेश आदि आराध्य देव हैं। कोई भी धार्मिक या सामाजिक उत्सव निर्विघ्न सम्पन्न हो, शुभ फलित हो, इसके लिए विघ्नहर्ता श्रीगणेश की पूजा सर्वप्रथम की जाती है।

पूरा महाराष्ट्र धार्मिक रंग में सराबोर

गणेशोत्सव यूं तो अब समस्त भारत में मनाया जाने वाला पर्व है, किन्तु महाराष्ट्र, विशेष रूप से इस राज्य की सांस्कृतिक राजधानी पुणे का गणेशोत्सव दुनिया भर में प्रसिद्ध है।

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10 दिनों तक चलने वाले गणेशोत्सव के दौरान पूरा महाराष्ट्र ही धार्मिक रंग में सराबोर रहता है। किंवदंतियों के अनुसार इस उत्सव का प्रारम्भ शिवाजी की माता जीजाबाई द्वारा किया गया।

फिर आगे चलकर पेशवाओं ने इस उत्सव के मान सम्मान एवं गौरव को और बढ़ाया। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान किसी भी तरह के सांस्कृतिक व धार्मिक उत्सव को साथ मिलकर या समूह में नहीं मनाया जा सकता था।

तिलक ने शुरुआत की

सन 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में पहली बार सार्वजनिक गणेशोत्सव मनाया। आगे चलकर तिलक का यह प्रयास एक आंदोलन के रूप में भारत की स्वतन्त्रता का अहम परिचायक बना।

भगवान गजानन राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए। पुणे के विभिन्न सुदूर इलाकों में भगवान गणेश के आठ पवित्र मंदिर हैं, जिन्हें अष्टविनायक के नाम से जाना जाता है।

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इन अष्टविनायक की प्रतिमाओं को स्वयंभू बताया जाता है। इनका स्वरूप प्राकृतिक माना गया है। कालांतर में इन पवित्र प्रतिमाओं के प्रकट होने के क्रम के अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा की जाती है।

इनमें से 6 गणपति मंदिर पुणे में तथा 2 रायगढ़ जिले में स्थित हैं। इनका उल्लेख विभिन्न पुराणों जैसे गणेश पुराण एवं मुद्गल पुराण में भी है।

ये मंदिर अत्यंत प्राचीन हैं। इनका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। इन मंदिरों के दर्शन, पूजन अर्चन की यात्रा को अष्टविनायक तीर्थ यात्रा भी कहा जाता है। भगवान गणेश के ये आठ शक्तिपीठ महाराष्ट्र में ही स्थापित हैं।

अष्टविनायक की मनोकामना पूर्ण करने वाली यात्रा–

मोरेश्वर मंदिर

पुणे के बारामती में करहा नदी के किनारे स्थित मोरगांव मोर के आकार में बसा हुआ क्षेत्र है। काले पत्थरों से बना यह मंदिर मीनारों से घिरा होने के कारण दूर से देखने पर किसी मस्जिद का रूप प्रतीत होता है, जिसे मुग़लों से बचाने के लिए ऐसा आकार दिया गया था।

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यह एक मात्र गणेश मंदिर है, जहां मंदिर के सम्मुख नंदी विराजमान हैं, जो सिर्फ शिव मंदिरों में होते हैं। इस मंदिर के पीछे किंवदंती है कि इसे भगवान श्रीब्रह्मा जी ने स्वयं स्थापित किया था।

इसे श्रीगणेश जी का स्वर्ग भी कहा जाता है। कहते हैं कि भगवान श्रीगणेश ने देवताओं की प्रार्थना को मान कर मोर की सवारी करके सिंधु नामक राक्षस का वध किया था।

इस मंदिर में श्रीगणेश जी की सिंदूरमयी पूर्व मुखी प्रतिमा है। जिसकी सूंड बाईं तरफ है। उनकी प्रतिमा दोनों पत्नियों ऋद्धि एवं सिद्धि की कांस्य प्रतिमाओं के मध्य स्थापित है।

लोगों का मानना है कि ब्रहमाजी द्वारा स्थापित प्रतिमा, जो कि मिट्टी, लौह एवं हीरे से बनी हुई थी, वर्तमान में जो प्रतिमा है उसके पीछे स्थापित है।

श्री सिद्धिविनायक

पुणे से 96 किमी दूर अहमद नगर जिले के करजत में स्थित यह एकमात्र मंदिर है, जिसमें श्रीगणेश की सूंड दाहिनी तरफ घूमी हुई है। इस मंदिर की स्थापना के पीछे किंवदंती है कि भगवान विष्णु जब राक्षसों-मधु एवं कैटभ के साथ युद्ध कर रहे थे, तब श्रीगणेश उनकी सहायता के लिए गए थे।

उनकी सहायता से अभिभूत भगवान विष्णु ने उनकी प्रतिमा यहाँ स्थापित की थी। बाद में पेशवाओं के युग में इस मंदिर को पुनर्निर्मित किया गया।

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गणेशजी के विभिन्न रूपों से अलग इस जीवंत प्रतिमा में गणेश जी के पेट का आकार बड़ा नहीं है। एक मीटर की यह अत्यंत सौम्य उत्तरमुखी प्रतिमा जय एवं विजय की कांस्य प्रतिमाओं के मध्य स्थित है। जिसमें इनकी पत्नियाँ रिद्धी एवं सिद्धि उनके एक पैर पर विराजमान हैं।

लोगों की आस्था है कि इसकी प्रदक्षिणा अत्यंत फलदायी है। इसके लिए 5 किमी की लंबी यात्रा करनी पड़ती है क्योंकि यह एक पहाड़ी पर स्थित है।

इस मंदिर में शिव पंचायत एवं देवी शिवाई का छोटा मंदिर भी है। सिद्धिविनायक प्रतिमा के पास भगवान विष्णु एवं भगवान शिव भी स्थापित हैं। कहते हैं यहाँ वेद व्यास जी ने यज्ञ भी किया था किन्तु वर्तमान में वह स्थान जल मग्न हो गया है।

श्री बल्लालेश्वर

बल्लालेश्वर मंदिर एक मात्र ऐसा मंदिर है जो श्रीगणेश के किसी भक्त के नाम पर स्थापित है। उक्त मंदिर पुणे से 111 किमी दूर पाली गाँव में स्थित है।

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प्रारम्भिक समय में यह लकड़ी से बना हुआ था, जिसे सन 1760 में पत्थरों से पुनर्निर्मित किया गया। मंदिर का निर्माण अक्षर ‘श्री’ के आकार में किया गया है। भगवान श्रीगणेश की यह प्रतिमा एक पत्थर पर पूर्व की ओर स्थापित है, जिसमें आंखों एवं नाभि के स्थान पर हीरे जड़ित हैं।

भगवान श्रीगणेश के इस अवतार में वे ग्रामीण परिवेश में हैं । क्योंकि अपने भक्त बल्लाल से वह ब्राह्मण रूप में मिले थे। जब सूर्यदेव दक्षिणायन होते हैं, सूर्य की किरणें सीधे भगवान की प्रतिमा पर पड़कर उसको और अधिक शोभायमान करती हैं।

श्री वरद्विनायक

मुंबई से 63 किमी दूर रायगढ़ जिले के खालापुर के महाद गाँव में स्थित मंदिर में नंददीप नामक अखंड दीपक है, जो कभी बुझता नहीं है। कहते हैं वरद्विनायक का नाम लेने मात्र से सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

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इस मंदिर के बारे में किंवदंती है कि गणेश जी की यह प्रतिमा इस पवित्र स्थल के पास तालाब में मिली थी, जिसे बहुत खराब हालत में होने के कारण इसे इस स्थल के बाहर स्थापित किया गया एवं एक दूसरी प्रतिमा बनाकर उसे दूसरे कोने में स्थापित किया गया।

मुख्य प्रतिमा सिंदूर से लेपित है, जिसकी सूंड बाईं तरफ है एवं दूसरी प्रतिमा सफ़ेद संगमरमर से बनी है, जिसकी सूंड दाहिनी तरफ है। यह सम्पूर्ण प्रांगण पत्थरों से बना हुआ है । जिसमें हाथियों की अत्यंत सुंदर नक्काशी है। गणेश जी की पत्नियों रिद्धी एवं सिद्धी की भी प्रतिमाएँ यहाँ देखी जा सकती हैं।

श्री चिंतामणि

पुणे से 25 किमी दूर हवेली तालुका में मुला, मूठा एवं भीमा नदियों के संगम पर स्थित थेउर में गणेशजी का पूर्वमुखी चिंतामणि रूप विराजित है, जिनकी सूंड बाईं तरफ है।

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कहते हैं, एक बार लालची गुना ने ऋषि कपिल से बहुमूल्य रत्न चिंतामणि हथिया लिया था। गणेश जी ने उसे वापस ला कर दिया तब ऋषि कपिल ने उसे उन्हीं के गले में स्थापित करके उन्हें चिंतामणि नाम दिया।

माधवराव पेशवा ने मंदिर के मुख्य द्वार से मुला-मूठा नदी तक कंक्रीट का रास्ता बनवाया था। मंदिर मुख्यतया काष्ठनिर्मित है, जिसका गर्भगृह काले पत्थरों से बना है। वृहद प्रांगण एवं विशाल घंटा इसका प्रमुख आकर्षण है। प्रांगण में धरणीधर महाराज देव द्वारा निर्मित भगवान शिव का छोटा सा मंदिर भी है।

श्री गिरिजात्मज विनायक

पुणे से 94 किमी उत्तर-पूर्व दिशा में कुकड़ी नदी के तट पर स्थित लेण्याद्री को गणेश पुराण में जीर्णपुर या लेखन पर्वत भी कहा गया है। अष्टविनायक का एक मात्र मंदिर जो कि पर्वत पर स्थित बौद्ध गुफा मंदिरों में से एक आठवीं गुफा में स्थापित है।

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गिरिजात्मज स्वरूप कोई अलग प्रतिमा न होकर एक विशालकाय पत्थर पर उकेरा गया है, जिसके साथ शिव-शंकर एवं हनुमान जी की भी प्रतिमाएँ हैं। 283 सीढ़ियाँ चढ़कर, एक वृहदाकार चट्टान से निर्मित इस मंदिर का 18 मीटर लंबा 17 मीटर चौड़ा भव्य सभामंडप देखने दूर दूर से श्रद्धालु प्रत्येक वर्ष आते हैं।

श्री विघ्नेश्वर

पुणे से 85 किमी दूर जुन्नार तालुका स्थित ओझर का यह मंदिर एक चूहे की मूर्ति को भी दर्शाता है क्योंकि चूहे पर ही सवारी करके श्रीगणेश ने विघ्नासुर नामक एक राक्षस को हराया था।

कहते हैं विघ्नासुर ने जब क्षमायाचना की तो गणेशजी ने यह कहकर उसे जीवनदान दिया था कि जहां गणेशजी का नाम लिया जाएगा वहाँ वो कोई बाधा नहीं डालेगा। तभी से गणेशजी का नाम विघ्नहर्ता पड़ा। उनका नाम लेकर ही किसी भी शुभ कार्य को प्रारम्भ किया जाता है।

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पूर्वमुखी सिंदूरी प्रतिमा जिसकी सूंड बाईं तरफ है एवं आँखें पन्ना जड़ित हैं। मस्तक एवं नाभि में हीरेजड़ित इस प्रतिमा के साथ गणेश जी की पत्नियों रिद्धी एवं सिद्धी की कांस्य प्रतिमाएँ भी सुशोभित हैं।

मुख्य मंदिर में दो सभागार हैं , जिनमें से एक में धुंडीराज की प्रतिमा हैं एवं दूसरे में सफ़ेद संगमरमर की बनी दौड़ते हुए चूहे की प्रतिमा है। सूर्य, शिव, विष्णु, देवी एवं गणपति की पंचायत इस पवित्र स्थान में स्थापित है। स्वर्ण गुंबद एवं शिखर का यह मंदिर वास्तु का एक नायाब उदाहरण पेश करता है।

श्री महागणपति

पुणे से 50 किमी पुणे-अहमदनगर हाइवे पर रंजन गाँव स्थित यह मंदिर कुछ इस तरह बना है कि सूर्य दक्षिणायन होने पर सूर्य की किरणें सीधे मूर्ति पर पड़ती हैं।

कहा जाता है कि भगवान शिव जब त्रिपुरासुर के साथ युद्ध कर रहे थे, गणेशजी ने उनकी सहायता की थी। यहाँ कमल पर बैठे हुए गणपति के दस हाथ एवं बीस सूँड हैं।

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उनकी पत्नियों रिद्धी एवं सिद्धि की अलग से प्रतिमाएँ हैं। पूर्व मुखी इस मंदिर का द्वार अत्यंत विशालकाय एवं सुंदर है , जहां जय एवं विजय द्वारपाल बनकर खड़े हैं।

पुणे व रायगढ़ के 20 से 110 किमी के परिक्षेत्र में ये विनायक शक्तिपीठ स्थित हैं। सामान्यतः 2 से 3 दिनों में ये यात्रा सम्पन्न होती है। आवागमन, प्रवास एवं भोजन के उत्कृष्ट व्यवस्था इस यात्रा को सुगम बनाते हैं।

इन सभी शक्तिपीठों का रख रखाव यथोचित किया गया है, वास्तुशिल्प बहुत ही सुंदर है , जिसे व्यवस्थित रूप से सहेजा गया है।

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यात्रा रूट

आनंद और सौभाग्य प्राप्त करने के लिए जीवन में कम से कम एक बार इन आठ गणेश शक्तिपीठों की यात्रा अवश्य करें। यात्रियों की सुविधा के लिए महाराष्ट्र पर्यटन विभाग के सौजन्य से यात्रा का रूट मैप भी संलग्न है –

सौजन्य से – महाराष्ट्र पर्यटन

लेखक निराला त्रिपाठी स्वतंत्र पत्रकार व छायाकार हैं

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