भगवान शिव के ही नहीं, हम सब के भी है तीसरी आंख

Update:2016-05-23 09:39 IST

लखनऊ: हमारी परंपरा में धर्म का स्थान अहम है और धर्म में देवताओं का। इनके साथ इनके प्रतीक चिह्नों का भी महत्व है। सृष्टि के रचियेता ब्रह्मा,विष्णु और शिव के बिना सबकुछ अधूरा है। हम अक्सर भगवान के साथ उनके प्रतीक चिह्न को भी देखते है। इसी क्रम में सृष्टि के संहारकर्ता

भगवान शिव के साथ भी हम कुछ चोजों को देखते है।

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जैसे जब हम शिव की कल्पना करते है तो उनके माथे पर तीसरी आंख, उनका वाहन नंदी, और त्रिशूल को साथ में देखते हैं। क्या सच में शिव के माथे पर एक और आंख है? और क्या वे हमेशा नंदी और त्रिशूल को अपने साथ रखते हैं? या फिर इन्हें चिन्हों की तरह इस्तेमाल करके हमें कुछ और समझाने की कोशिश की गई है? आइए आज इन्हीं के बारे में जानते हैं …

भोले भंडारी की तीसरी आंख

शिव को त्रयंबक कहते है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब ये नहीं है कि उनके माथे पर कुछ निकल आया! इसका मतल‍ब सिर्फ ये है कि ज्ञान और अनुभव का एक तीसरा आयाम भी है।

दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं। अगर तीसरी आंख खुल जाती है, तो इसका मतलब है कि ज्ञान का आयाम खुल जाता है जो कि भीतर की ओर देख सकता है। इसके बाद दुनिया में जितनी चीजों का अनुभव किया जा सकता है, उनका अनुभव हो सकता है।

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इसलिए अगर आप दो भौतिक आंखों से देखते हैं, तो आप वही देख सकते हैं, जो सामने होता है। अगर आप तीसरी आंख से देखते हैं, तो आप वह देख सकते हैं जिसका सामने आना अभी बाकी है और जो सामने आ सकता है। ज्ञान का मतलब जीवन को एक नई दृष्टि से देखना है।

सजगता का प्रतीक नंदी

नंदी का गुण ये है की, वह बस सजग होकर बैठा रहता है। यह बहुत अहम चीज है- वो सजग है, सुस्त नहीं है। वह आलसी की तरह नहीं बैठा है। वह पूरी तरह सक्रिय, पूरी सजगता से, जीवन से भरपूर बैठा है, ध्यान यही है। नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इंतजार को सबसे बड़ा गुण माना गया है।

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जो बस चुपचाप बैठकर इंतजार करना जानता है, वो कुदरती तौर पर ध्यान मग्न हो सकता है। नंदी शिव का सबसे करीबी साथी है क्योंकि उसमें ग्रहणशीलता का गुण है। किसी मंदिर में जाने के लिए आपके अंदर नंदी का गुण होना चाहिए, ताकि आप बस बैठ सकें। इस गुण के होने का मतलब है- आप स्वर्ग जाने की कोशिश नहीं करेंगे, आप यह या वह पाने की कोशिश नहीं करेंगे – आप बस वहां बैठेंगे।

लोगों को हमेशा से ये गलतफहमी रही है कि ध्यान किसी तरह की क्रिया है। ये सिर्फ गुण है यही बुनियादी अंतर है। प्रार्थना का मतलब है कि आप भगवान से बात करने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान का मतलब है कि आप भगवान की बात सुनना चाहते हैं। आप बस अस्तित्व को, सृष्टि की परम प्रकृति को सुनना चाहते हैं। आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं है, आप बस सुनते हैं। नंदी का गुण यही है, वो बस सजग होकर बैठा रहता है।

जीवन के तीन पहलू का संगम है त्रिशूल

शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है।

जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता, लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है। पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से- या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है।

पुरुषोचित-स्त्रियोचित गुण का संगम त्रिशूल

प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।

अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे अहम पहलू है।

जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है। आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके भीतर एक खास जगह बन जाती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी हालात का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर ये स्थिर अवस्था बना लें।

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