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Holi 2025: आज रंग है, ऐ मा रंग है री, खेलो होली बस खेलो दिल से दिलों की होली
Holi 2025: बंसत की आहट फिजां में जिस मधुर-मस्त कर देने वाले अहसास को जगाती है वह रंगों और अबीर-गुलाल की महक के रूप में विदा होता है और इस विदाई नाम होली है
Holi News (Image From Social Media)
Holi 2025: पौराणिक कथाओं और मौसमी बदलावों पर आधारित एक अनुष्ठानिक त्योहार, होली को वर्तमान ने एक सामाजिक और मनोरंजन से प्रेरित कार्यक्रम में बदल गया है। फिर भी अपनी ख़सूसियत की वजह से यह आज भी बुराई पर अच्छाई का प्रतीक बना हुआ है। बंसत की आहट फिजां में जिस मधुर-मस्त कर देने वाले अहसास को जगाती है वह रंगों और अबीर-गुलाल की महक के रूप में विदा होता है और इस मौसमी विदाई का ही नाम होली है, जो आपसी बैर को भूला गले लगाने पर मजबूर कर देता है।
भारत के इस पर्व की इसी खासियत से यह भारतीय सरहदों को पार कर देश-दुनिया का त्योहार बन पड़ा है। होली की उत्पत्ति हिंदू पौराणिक कथाओं में गहराई से समाहित है, जो विभिन्न कहानियों और किंवदंतियों से समृद्ध है। परंपरागत रूप से तो पहले लोगों को हल्दी और फूलों के अर्क से सराबोर किया जाता था और चंदन का लेप लगाया जाता रहा है। लेकिन धीरे-धीरे ये चलन बदल के किस्म-किस्म के उत्पादक में बदल गया जिसमें सिंथेटिक और हर्बल है।
होली में रंगों की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आप देखें तो अलग- अलग तरह के रंग प्रकृति के विभिन्न भावनाओं और तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लाल रंग प्रेम और उर्वरता का प्रतीक है, पीला रंग जीवन के कायाकल्प और वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है, नीला रंग भगवान कृष्ण से जुड़ा है और हरा रंग समृद्धि और नई शुरुआत का प्रतीक है। इन रंगों को एक दूसरे पर फेंकना सिर्फ़ मौज-मस्ती नहीं है। यह बदलते मौसम का जश्न मनाने और एकता की सांप्रदायिक भावना पैदा करने का एक तरीका है।
होली को आप यह पारंपरिक स्वाद गुझिया और भांग लस्सी जैसे मारिजुआना युक्त स्वादिष्ट पेय पदार्थों का मज़ा लेने का अवसर भी कह सकते है, जो भांग के पेस्ट के साथ मिश्रित दही का पेय सा है। भारत में भांग की खेती, बिक्री और खरीद तकनीकी रूप से अवैध है, लेकिन विभिन्न खामियों के बावजूद भांग का सेवन, करने की, विशेष रूप से होली के दौरान, अनुमति है।
अनुष्ठान, पौराणिक कथा से वर्तमान तक होली
नई फसल और उर्वरता का जश्न मनाने के साथ-साथ वसंत के आगमन और सर्दियों के अंत के प्रतीक स्वरूप होली का उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों, विशेष रूप से विष्णु-पुराण और भागवत-पुराण में मिलता है, जो भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद और उनके पिता, राजा हिरण्यकश्यप की कथा से जुड़ा है। होलिका दहन को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। मध्यकाल में, होली भगवान कृष्ण से जुड़ी हुई थी, जो वृंदावन और मथुरा में राधा और गोपियों के साथ रंग (गुलाल) खेलते थे। इस रूप त्यौहार का रूप प्रेम, शरारत और दिव्य चंचलता के सामंजस्य के साथ दिखता है।
मध्यकाल में अकबर और जहाँगीर जैसे मुगल सम्राट के भी होली उत्सव में भाग लेने से यह एक धर्मनिरपेक्ष उत्सव बन गया। कालिदास और अमीर खुसरो जैसे कवियों ने होली के बारे में लिखा, जिसमें विभिन्न क्षेत्रीय परंपराओं में इसकी खुशी की भावना को दर्शाया गया है। कालिदास रचित ’ऋतुसंहार’ में एक पूरा सर्ग ही बसंत ऋतु को समर्पित है जिसका एक दोहा का जिक्र यहां कर रही-
बौर हो रसाल के बसंत के हैं पैने बान
भौंरों की कतार डोरी उसके कमान की।
अमीर खुसरो ने तो होली के त्योहार को सूफी दृष्टिकोण से देख अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया के प्रति अपनी श्रद्धा को होली के गीतों में व्यक्त कर दिया। जैसे-
आज रंग है, ऐ मा रंग है री, मोरे महबूब के घर रंग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, जब देखो मोरे संग है री।
ब्रिटिश शासन के समय बड़े सार्वजनिक समारोहों को हतोत्साहित किया गया, लेकिन होली एक समुदाय-संचालित त्योहार के रूप मे तब भी कायम रही। स्वतंत्रता आंदोलन के समय तो होली एकता का प्रतीक ही बन गई, जहाँ सभी वर्गों और जातियों के लोग एक साथ आंदोलन की ज्वाला में कूद गये थे।
हालांकि व्यावसायीकरण और वैश्विक प्रसार के चलते इस त्यौहार पर भी शहरी और पश्चिमी प्रभाव का असर पड़ गया है। अब ये रंगो की अल्हड़ मस्ती से ज्यादा मौज-मस्ती, संगीत, नृत्य और पार्टियों के साथ अभ्रद होते व्यवहार को लेकर भी चर्चित हो रहा है। इसका आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व लगभग खोता जा है। जो पिछली पीढ़ी है वह अभी उस थाती को संभले है लेकिन पश्चिमी संस्कारों में पल रही नई जेनेरेशन के लिए ये महज रंग, नशे में सराबोर कान के परदे फाड़ देने वाला कोलाहल है। हालांकि भारतीयों के हर देश में होने के कारण ये अंतर्राष्ट्रीय उत्सव की तरह भी हो गया है।
अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में अपने धार्मिक मूल से परे यह एक सांस्कृतिक त्यौहार के रूप में मनाया जा रहा है। लेकिन अब इसका मकसद, कागजी व्यक्त्वों के दिखावटी औपचारिकता निभाने के अलावा बड़े बोलों में आपसी भाईचारे के वातावरण में जहर घोलना भी हो रहा है। होली पर रंगों से भर जाने वाले नभ पर, ये जहर भले ही कुछ लोगों की मानसिकता को कुंठित कर दे लेकिन इंसानियत का जहां परचम लहराता हो वहां ये ही रंग जहर भरी बातों पर भारी पड़ जाते है।
समाज की वृद्धि और समृद्धि ही होना चाहिए हर त्यौहार का मकसद
प्रियंका सक्सेना, जो कि समाज सेविका होने के साथ प्रोग्राम मैनेजर, स्टडी हॉल एजुकेशनल फाउंडेशन में कार्यरत है, कहती हैं आज से 30 वर्ष पूर्व, जब हम होलिका उत्सव की बात करते थे, तो हमारे अंदर एक प्रेम और स्नेह की भावना होती थी जो हमें एक दूसरे के करीब लाती थी। हमारे रिश्ते अधिक गहरे और मजबूत होते थे। लेकिन आज, सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण, हमारे रिश्ते अधिक सार्वजनिक और कम व्यक्तिगत हो गए हैं।
आजकल के उत्सवों में राजनीतिक और सामाजिक पहलू अधिक प्रमुख हो गए हैं, जो हमारे रिश्तों को कमजोर बना रहे हैं। जबकि उत्सवों का प्रयोजन रिश्तों को बेहतर और सुधारात्मक दृष्टि से देखने के लिए और उन पर काम करने का होता है। निश्चित रूप से समाज की वृद्धि, यश और समृद्धि ही हर त्योहार, हर उत्सव का अर्थ होता है।
लेखक और एक्टर उमेश भाटिया, जो कि बनारस में रहते है, होली के बदरंग होते रूप से आहत है। उनका कहना है यू ंतो मेरे जीवन की सबसे अच्छी होली की याद स्कूल की है। होली के एक दिन पहले हम सबमें मैदान में दौड़ कर एक दूसरे को रंग लगाने की होड़ थी। हमारे मन के भाव साफ और स्पष्ट थे। उनमें कोई ऊंच नीच का भाव नहीं था। सच कहता हूं वैसी होली फिर कभी नहीं खेल पाया। अब तो मैं होली के दिन अपनी बालकनी में बैठकर गंगाजी को निहारता हूं। लेकिन वहां से (कब से देख रहा हूं याद नहीं) पर अपने घर के ठीक नीचे दशाश्वमेध रोड पर बड़े से स्पीकर पर लोगों को डांस करते और एक दूसरे के कपड़े फाड़ते देख अक्सर हैरान होता रहा हूं। सोचता भी कि आखिर त्यौहार से इसका क्या सरोकार है। ये किस तरह से उत्सव का आनंद है। तब से मेरे अंदर ये विचार गहराता गया कि घर-परिवार-समाज से अलग होकर बाहर होली खेलने अक्सर जो लोग जाते हैं उनका उद्येश्य त्यौहार को बदरंग-बदशक्ल करना होता है। बनारसीपन की आड़ में अश्लील होली के तमाम देखे हुए किस्से मेरे पास हैं।। लेकिन साल दर साल मैं ये समझता भी गया कि बनारसीपन एक अलग चीज है और इस तरह से अश्लीलता-मूर्खता का प्रदर्शन करना ये अलग बात है।। हालांकि कुछ सालों में बनारस की होली और यहां के लोगों को सुधरते हुए भी देख रहा हूँ।
सुमिता श्रीवास्तव, जो गृहिणी होने के साथ-साथ पेटिंग का शौक रखती, कहती है कि उनके लिए होली सदा से ही बड़ा आकर्षण भरा त्यौहार रहा है। रंगों से उन्हें सदा से ही प्यार रहा है। आज भी है और उन्हें ये यकीन है मरते दम तक ये ऐसे ही रहेगा। बचपन से लेकर बड़े होने तक पटना की मस्त रंगो से भरी होली की याद उनके जेहन में आज भी ताजी है।
कहती है सुबह से रंगों का जो दौर चलता था, वह शाम होने तक चलता रहता था। चेहरा पहचाना मुश्किल हो जाता था। स्किन की बदल चुकी रंगत कई दिन तक इस बात का सबूत होती थी कि हमने किस कदर होली का मजा लिया है और घर के पकवान, उनका स्वाद अभी भी तक नहीं भूलता। लेकिन समय बदलने के साथ हर चीज की रंगत भी बदल गई। दिल्ली आकर होली का तौर तरीका ही बदल गया। लोगों का औपचारिक सा व्यवहार। रंग भी भी नज़ाकत के साथ इस्तेमाल। अभद्र होते व्यवहार और रंगों की खराब गुणवत्ता के इस्तेमाल से होने वाले त्वजा रोग के डर से कई लोग तो घर से निकलते ही नहीं। ’फगुआ’ की जगह बॉलीवुड का शोर और उस पर नशे में झूमते लोगों की बेसिरपैर की बातों ने त्यौहार को सीमित कर दिया है। ’जोमेटो-स्वीगी’ से मंगाए गये पकवानों से सजी मेज ने, घरों के भिन्न-भिन्न तरह के स्वादों से मरहूम कर दिया है। इस भारतीय त्यौहार का पश्चिमीकरण भले ही हमें न रास आता हो लेकिन आज की पीढ़ी तो इसका मजा लेती ही है। आखिर होली तो होली ही है! रंगो का असर ही ऐसा है कि हर हाल में इसका लुत्फ उठाने वाला उठा ही लेता है।
कुल मिलाकर गहन आध्यात्मिक और कृषि त्यौहार से विकसित होकर खुशी और एकजुटता के वैश्विक उत्सव में बदली होली का सार खुशी फैलाना और सामाजिक बाधाओं को तोड़ना रहा है। आधुनिकीकरण ने इसके पारंपरिक पहलुओं को जरूर बदल दिया है लेकिन भारतीय होने के नाते हमारा प्रयत्न होली के काले-सफेद रंग को चिह्नित करने के बजाय उसके भिन्न-भिन्न रंगों में ही अपनी पहचान और एकता में ही हमारा गौरवान्वित कल आज और कल देखना चाहिए। तभी होली का सही मायने अर्थ सार्थक होगा।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं