Shrimad Bhagavad Gita: कुछ भी न करने को अकर्म कहते हैं

Bhagavad Gita: कृष्ण कहते हैं कि चाहे कर्म करो, विकर्म करो, या अकर्म - जाग्रत रहो, बोधपूर्वक रहो, वर्तमान में रहो।

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Published on: 4 Jun 2024 1:54 PM GMT
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कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।

( गीता - 4.17 )

हम जानते हैं कि करणीय कर्म क्या हैं? और अकरणीय क्या है।करणीय कर्म को योगेश्वर कृष्ण कर्म कह रहे हैं।समाज में प्रेम सहिष्णुता करुणा दया स्नेह बना रहे इसलिए करणीय कृत्यों की आवश्यकता समझायी गयी है।इसी को आप नैतिकता कह सकते हैं।वैसे नैतिकता शब्द morality की हिंदीबाजी है।लेकिन बहुत लोग इस शब्द का प्रयोग करते हैं इसलिए यहां लिख दिया।विकर्म - वे समस्त कृत्य जो नहीं करने चाहिये - अनैतिक कृत्य।हमारे शास्त्रों में जिन्हें आसुरी कृत्य कहते हैं - काम क्रोध लोभ मोह - और उससे उपजा मद और मत्सर।ये आसुरी कृत्य हैं।अकर्म को समझना बहुत कठिन नहीं है - परन्तु करना बहुत कठिन।वैसे तो समझना भी कठिन ही है।कुछ न करना।कुछ भी न करने को अकर्म कहते हैं।सोना भी कर्म है।तो अकर्म है - विश्रांत होना परंतु बोधपूर्व बने रहना।कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करो - बोधपूर्वक करो।

क्योंकि कर्म की गति बहुत शूक्ष्म होती है।प्रत्येक कर्म, कर्ता के भाव से बंधा होता है।कर्ता के भाव का होना ही अहंकार कहलाता है।और अहंकार बन्धन निर्मित करता है।क्या हमें कर्म करते समय बोध रहता है।आप स्नान और भोजन जैसे कृत्य में भी बोध नहीं बना कर रख पाते।खाते समय देखो कि आपके मन में क्या चल रहा है?आप खाने के टेबल पर हैं परंतुआपका मन या तो अतीत में भ्रमण कर रहा है या फिर भविष्य की कोई योजना बना रहा है।अतीत मृत है और भविष्य आया नहीं तो वह भी मृत है।इसीलिए हमारे यहां समय को काल भी कहते हैं, और कल भी।बीता हुवा कल और आने वाला कल - दोनों काल हैं।मृत्यु हैं।हम जीवन कहाँ जी रहे हैं।हम तो मृत्यु को जीते हैं - अतीत और भविष्य।

इसी को बेहोशी कहते हैं,

तुलसीदास कहते हैं :-

मोहनिशा जग सोवनहारा।

देखत सपन अनेक प्रकारा।।

कृष्ण कहते हैं कि चाहे कर्म करो, विकर्म करो, या अकर्म - जाग्रत रहो, बोधपूर्वक रहो, वर्तमान में रहो।वर्तमान कोई घण्टे दो घण्टे का नहीं होता है।वह तो एक पल का होता है।पल यानी जितने समय मे पलक झपके उतना ही शूक्ष्म है वर्तमान।वही जीवन है।बाकी सब मृत्यु है, बेहोशी है।विवेकानंद का कठोपनिषद से लिया गया उद्घोषमन्त्र भी यही बात करता है :-उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गम पथ: तत् कवयो वदन्ति।।उठो जागो और और उन लोगों से बोध को प्राप्त करो,

जो उसे पा चुके हैं,

जो जानते हैं कि बोध क्या है।

क्योंकि ऋषि कहते हैं कि यह पथ बहुत दुर्गम है और क्षुरे की धार पर चलने जैसा है।क्षुरे की धार - कोई अचानक प्रकट हो और आपके गले पर क्षुरा रख दे - तो क्या होगा - आप अवाक रह जाते हैं।अवाक यानी न मुंह से कोई बोल फूटेगा और न ही मन मे कोई विचार आएगा।

सम्पूर्ण सन्नाटा।

निर्विचार।

लेकिन होशपूर्वक।

बोधपूर्वक।

कृष्ण कह रहे हैं कि क्रोध आये काम आये लोभ आये मोह आये मद आये मत्सर आये - ये आएंगे ही।क्योंकि ये जीवन के लिए अत्यंत अनिवार्य हैं।परंतु कहा जाता है - क्रोध में अंधा होना।अर्थात क्रोध की इतनी तीव्रता है कि व्यक्ति की आंखें खुली होते हुए भी देख नहीं पाता और सामने वाले की, या स्वयं की खोपड़ी खुल जाती है।इसलिए क्रोध आये तो भी उसे बोधपूर्वक जागते हुए देखते रहो - क्रोध विलीन हो जाएगा।करके देखो।बिना किये तो मात्र बौद्धिक जुगाली भर ही होगा।जन्मों जन्मों की बेहोशी एक दिन में न जाएगी।जन्मों जन्मों न सही, इसी जन्म की लंबी बेहोशी भरा जीवन जीने अभ्यास है हमारा।एक दिन में न जायेगा।लेकिन शुरुवात करेंगे तभी तो होश पूर्वक जीने का अभ्यास बनेगा।अभ्यास दोनों ही हैं।एक है बेहोशी का अभ्यास, दूसरा है होश का अभ्यास, बोध का अभ्यास, बुद्धत्व का अभ्यास।

Shalini Rai

Shalini Rai

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