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बलिया में है ज्योतिष के पितामह महर्षि भृगु की समाधि, चित्रगुप्त भी हैं साथ
भृगु मंदिर परिसर में ही भगवान चित्रगुप्त का भी मंदिर है। भृगु मंदिर आने वाला हर भक्त भगवान चित्रगुप्त का दर्शन-पूजन किए वापस नहीं लौटता। यह मंदिर खास तौर से कायस्थ लोगों के किए किसी कुल देवता के मंदिर से कम नहीं है।
दुर्गेश पार्थ सारथी
पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा जनपद बलिया जिसके बारे में कहा जाता है कि क्षेत्र अनेक सिद्ध महात्माओं का निवास स्थन एवं तपस्थली रहा है। देश में जिस प्रकार गंगा और यमुना के संगम को प्रयागराज, गंगा और समुद्र के मिलन को गंगासागर, वरुणा, गंगा और अस्सी के संगम को वाराणसी के नाम से प्रसिद्धि मिली है, ठीक उसी प्रकार गंगा और छोटी सरयू के संगम को भृगु क्षेत्र के नाम से जातना जाता है। इसे भृगु ऋषि की तपोभूमि मानते हैं। इसका संबंध पद्यमपुराण में उल्लिखित भगवान विष्णु एवं भृगु की कथा से जोड1ा जाता है, जिनकी महानता का वर्णन करते हुए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दसवे अध्याय के पच्चीसवे श्लोक में कहा है-
' महर्षिणां भृगुरहं' अर्थात मैं महर्षियों में भृगु हूं।
ब्रह्मा के मानसपुत्र थे भृगु, ब्रह्मा को ही दे दिया था श्राप
महर्षि भृगु के बारे में चरितर्थ है कि वे परम पिता ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। उन्हें ऋषियों के मध्य उठे विवाद कि त्रिदेवों में श्रष्ठ कौन है, का निपटरा करने वाला भी माना जाता है। इसी कथा के एक प्रसंगानुसार भृगु ने परम पिता ब्रह्मा को क्रुद्ध हो श्राम दिया कि ब्रह्मा की पूजा मंदिर बनाकरन या मूर्ति स्थापित कर नहीं की जाएगी। फलस्वरूप यज्ञ का रक्षक होते हुए भी धार्मिक अनुष्ठनों में ब्रह्मा का स्थान किसी सुयोग्य ब्राह्मण या कुशा को दिया जाता है।
विष्णु को मारी थी लात, लक्ष्मी ने ब्राह्मणों को दिया श्राप
पद्यपुराण की इसी कथा में आगे उल्लेख है कि जब ऋषि ब्रह्मलोक व शिवलोक से गोलोक में पधारे तो वहां पर कमलनयन श्रीविष्णु को शेषशैय्या पर सोया हुआ पाया, निके चरणकमल को कमला अपने कर कमलों से दबा रही थी। यह देख ऋषि को क्रोध आया और उन्होंन सोचा कि शायद उन्हें देख कर भगवान विष्णु नींद का बहान बना रहे हैं। पिफर क्या थ आव देखा न ताव और जमा दी लात भगवान के छाती पर। पैरों के प्रहार से जब भगवान नींद खुली तो उन्होंने सामने क्रोधित ऋषि को पाया। यह देख मता लक्ष्मी ने भृगु का श्राप दिया कि सर्व गुणों से संपन्न हुए हुए भी ब्राह्मण निर्धन होगा।
भगवान विष्णु ने भृगु से मांगी थी क्षमा
सबका पालनहार समस्त चराचर को अपने एक हल्के से इशारे से कठपुतलियों की मानिंद दुनिया के रंगमंच पर नचाने वलाा सर्वशक्तिामन पैर पकड1 लेते हैं। एक मामूली से ब्राह्मण का और करुण स्वर में क्षमा मांगते हुए कहते हैं- ऋषि श्रेष्ठ। मेरी बज्र के समान छाती पर प्रहार करने से आपके इन पावन पैरों में कोई चोट तो नहीं लगी। यह है भक्त और भगवान के बीच का प्रेम। सहसा ऋषि चकित हो भगवान के आगे नतमस्तक हो घोषणा करते हैं कि सभी देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं भगवान श्रीहरि विष्णु।
बलिया रेलवे स्टेशन से तीन किमी दूरी पर है मंदिर
भृगु संहिता जो ज्योतिष का एकमात्र ग्रंथ मानाजाता है कि रचना भृगु ने ही की थी। इन्हीं महान ऋषि का अति प्राचीन मंदिर उत्तर प्रदेश के बलिया रेलवे स्टेशन से महज तीन किमी की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के बारे में बताया जाता है कि यह पाव मंदिर कभी गंगा के तट पर हुआ करता था। लेकिन गांगा की उफनती धाराओं में यह दो बार प्रवाहित हो चुका था। मंदिर के बचे खुचे अवशेषों पर तीसरी बार निर्माण कराया गया, लेकिन इस बार भी मंदिर को सन 1916 की भीषण बाढ 1 ने धाराशायी कर अपने साथ बहा ले गई। किसी तरह महर्षि की चरणपादुका और मूर्ति को ही बचाया जा सका था। और चौथी बार इस मंदिर का निर्माण सन 1926 में किया गया। इस मंदिर के गर्भगृह में महर्षि भृगु की चरणपादुका व मूर्ति स्थापित की गई है।
यहां होती है चित्रगुप्त की पूजा
भृगु मंदिर परिसर में ही भगवान चित्रगुप्त का भी मंदिर है। भृगु मंदिर आने वाला हर भक्त भगवान चित्रगुप्त का दर्शन-पूजन किए वापस नहीं लौटता। यह मंदिर खास तौर से कायस्थ लोगों के किए किसी कुल देवता के मंदिर से कम नहीं है।
कार्तिक पूर्णिमा को लगता है ददरी का मेला
' मुनि दर्शन सम मोक्ष न दूजो।
भृगु महर्षि मुनि दरदर पूजो।।'
महर्षि भृगु के शिष्यों में उनके परम शिष्य थे दरदर मुनि। जिनके नाम पर आज भी यहां पर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन विश्व प्रसिद्ध ददरी मेले का आयोजन किया जाता है। एक माह तक चलने वाले इस मेले में देशभर के व्यापारी आते हैं। साथ ही इस मेले में कला, साहित्य और संस्कृति का संगम देखने को मिलता है।
जमदग्नि की तपस्थली भी रही है बलिया
गंगा आज बलिया शहर व भृगु मंदिर से कोसों दूर चली गयी है। इसे बलिया व बलियावासियों से गंगा का रूठना कहें या कुछ और...। सामान्य जनमानस में यह आम धारणा है कि यहीं पर भृगु पुत्र ऋषि जगदग्नि की तपस्थली व परशुराम की जन्मभूमि भी रही है। इस जनपद के नामकरण के बारे में अनेक कोककथाएं भी प्रचलित हैं। जिसके अनुसार रामायण काल में यह क्षेत्र आदि कवि वाल्मीकि की तपस्थली भी रही है, जिनकेनाम पर आज का बलिया शहर बसा हुआ है।