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Ramdhari Singh Dinkar हैं भारत की शान, Rashmirathi रहेगी अमर, देखें Y- Factor...

दिनकर छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Praveen Singh
Published on: 24 July 2021 9:18 AM GMT (Updated on: 24 July 2021 9:19 AM GMT)
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Y- Factor Ramdhari Singh Dinkar: मरुभूमि में कई अनगिनत, अनदेखे फूल खिलते हैं।महकते हैं। फिर अनजाने ही मुरझा जाते हैं। इस भाव को अपने शोकगीत "एलेजी" में थॉमस ग्रे ने निरुपित किया है। गुमनाम कवियों का हश्र आज भी कोई बेहतर नहीं है| संयोग हुआ तो लोग संजो लेते हैं। मगर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अमर हैं, साकार, दिव्य, गौरव विराट हैं।

रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh Dinkar) का जन्म 23 सितम्बर, 1908 को हुआ था। निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ। दिनकर छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है। कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी मिलती है। दिनकर स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए। स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये।

उनका शैशव विपन्नता में बीता| स्कूल जाते थे नदी पार कर, बिना जूतों के दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए किया। उसके बाद स्कूल में टीचर हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया।

फिर भारत ने उन्हें उठाकर अपने ललाट पर सजाया| दिनकर को पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 1952 में प्रथम संसद में उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। दिनकर 12 वर्ष तक संसद सदस्य रहे।

बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया।राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।

नेहरु पर लिखी कविता

देखने में देवता सदृश्य लगता है

बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।

जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो

समझो उसी ने हमें मारा है॥

1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया । जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था। यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है। इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा- "क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?

20 जून, 1962 को दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए। हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। उन्होंने कहा- "देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है। तब देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है। लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है।"

पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा

वह आसमान चीरकर निकले थे, मार्तंड थे|

कौन बदली उन्हें रोक पाती ?

कौन चट्टान बाधित कर पाती ?

वह रश्मिरथी थे|

वही बात जो साहिर ने लिखी थी, "किसके रोके रुका है सबेरा ?"

दिनकर जी वीर रस की प्रतिमूर्ति साक्षात थे।दिनकर जी को भी जातिवादियों ने बख्शा नहीं |अपनी पोती के लिए वह वर खोज रहे थे| तभी उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था| दूल्हे राजा की नीलामी लगाने वालों की नजर एक लाख रूपये पर लगी थी| राष्ट्रकवि से नाता जुड़ना ही अहोभाग्य होता है| उधर प्रकाशकों द्वारा भी रायल्टी में आदतन हेराफेरी की गयी| यह तो अमूमन होता है| पर कोई बाज नहीं आया|

महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य 'कुरुक्षेत्र' को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वाँ स्थान दिया गया। 26 जनवरी, 1950 को पहले गणतंत्र दिवस के दिन दिनकर ने जनतंत्र का जन्म कविता का पाठ किया था -

आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख

मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे

देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में

गोलमेज़ सम्मेलन में शामिल होने पर दिनकर गांधी की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा –

रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर

फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥

गांधी की मृत्यु के बाद दिनकर ने लिखा -

कहने में जीभ सिहरती है

मूर्छित जाती कलम

हाय, हिंदू ही था वह हत्यारा

दिनकर अपनी कविता गांधी में लिखते हैं -

गांधी तूफान के पिता

और बाजों के भी बाज थे

क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे

किसानों की स्थिति पर लिखा -

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनके भी अपराध

दिनकर जी का अंतिम समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सान्निध्य में बीता| तब तक भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान शुरू हो गया था|

मशहूर पत्रकार सुरेन्द्र किशोर द्वारा उपलब्ध करायी गयी साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" के 5 मई,1974 के अंक में छपी रपट। जिसमें लिखा था, 'रामधारी सिंह दिनकर का 24 अप्रैल की रात को मद्रास के एक अस्पताल में देहांत हो गया। थोड़ी देर पहले तक वह समुद्र तट पर मित्रों के सामने कविता पाठ कर रहे थे| स्वस्थ और प्रसन्न थे। उसके भी पहले वेल्लूर जाने को मद्रास में ठहरे जयप्रकाश नारायण से वह मिल रहे थे। उन्हें एक लंबी कविता सुना रहे थे जो उन्हीं पर लिखी थी।

एक दिन पूर्व तिरुपति मंदिर में देवमूर्ति को भी उन्होंने तीन बार कविताएं सुनाई थीं | तीनों बार नयी रचना करके दर्शन किया था। समुद्र तट से लौटे तो सीने में दर्द उठा। घरेलू उपचार कारगर न होने पर मित्र रामनाथ गोयनका और गंगा शरण सिंह उन्हें तुरंत अस्पताल ले गये। पर तब तक आधे घंटे का ही जीवन शेष रह गया था|"

राष्ट्रकवि दिनकर से लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संबंध बेहद अंतरंग और घनिष्ठ थे।

बात है साल 1977-78 की। दिनकर जी की स्मृति में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। जयप्रकाश जी को बतौर मुख्य वक्ता कार्यक्रम में बुलाया गया। जब जयप्रकाश जी से बोलने के लिए कहा गया तो तीन बार कोशिश करने के बावजूद उनके मुंह से स्वर न फूट पाए। हर बार वे बोलने को आते और फफक-फफक कर रोने लगते। जब काफी देर बाद वो संयत हुए तो बताया कि कैसे एक बार तिरूपति में दिनकर जी ने ईश्वर से यह कामना की थी कि "हे भगवान ! मेरी उम्र जयप्रकाश जी को लग जाए|"

दूसरी आजादी के प्रणेता लोकनायक पर डॉ. धर्मवीर भारती की ऐतिहासिक पंक्तियाँ भी उधृत हैं :

"खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का

हुकुम शहर कोतवाल का…

हर खासोआम को आगाह किया जाता है

खबरदार रहें

और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से

कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें

गिरा लें खिड़कियों के पर्दे

और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें

क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी

अपनी कांपती कमजोर आवाज में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है|"

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