Shrimad Bhagavad Gita: संयोग वाले सुख ही दुखों के कारण

Shrimad Bhagavad Gita: संयोग की इच्छा ही दुःखों का घर है। संयोग की इच्छा क्यों होती है ? क्यों कि हम संयोगजन्य सुख भोगते हैं , तो अन्तःकरण में उसके संस्कार पड़ जाते हैं, जिसको वासना कहते हैं।

Update:2024-06-04 12:01 IST

Shrimad Bhagavad Gita

संसार के संयोग में दुःख-ही-दुःख हैं ।

तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥

(गीता 6 / 23 )

अर्थात् दुःखों के संयोग से वियोग हो जाना ही योग है। इस योग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिए । इसलिये भगवान्-ने संसार को दुःख रूप कहा है -

दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ( गीता 6 / 23 ),

दुःखालयम् ( गीता 8 / 15 )

कारण कि प्रत्येक संयोग का वियोग होता ही है और वियोग में दुःख होता है-यह सबका अनुभव है। अगर हम संयोग की इच्छा छोड़ दें तो उसका वियोग होने से दुःख नहीं होगा। संयोग की इच्छा ही दुःखों का घर है। संयोग की इच्छा क्यों होती है ? क्यों कि हम संयोगजन्य सुख भोगते हैं , तो अन्तःकरण में उसके संस्कार पड़ जाते हैं, जिसको वासना कहते हैं। फिर जब भोग सामने आते हैं,तब वह वासना जाग्रत् हो जाती है, जिससे संयोग की रूचि पैदा होती है। संयोग की रूचि से इच्छा पैदा हो जाती है। इसलिये भगवान्-ने कहा है कि संयोगजन्य जितने भी सुख हैं। वे सब आदि-अन्त वाले और दुःखों के कारण हैं। अर्थात् उनसे दुःख-ही-दुःख पैदा होते हैं।इसलिये विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।कारण कि संयोगजन्य सुखों का वियोग होगा ही।

अगर उनमें रमण करने की इच्छा करेंगे तो वह दुःख ही देगा। सामान्यतया तो ऐसा ही सुना जाता है कि जुड़ना ही योग है या मिलन ही योग है। लेकिन यहाँ योग की एक नयी परिभाषा दी जा रही है कि वियोग भी योग है।अर्थात दुःख रूपी संसार से वियोग का नाम भी योग है।असलियत में हर व्यक्ति का संसार उसके मन में बसा हुआ होता है।अतः संसार में जितने भी लोग हैं उतने ही संसार हैं।दुःख का कारण ये मन में बसा संसार होता है,बाहर दिखाई देने वाला संसार नहीं ।हर व्यक्ति अपने मन के संसार से ही उम्रभर बंधा रहता है,इसी को बंधन कहते हैं। इस दुःखों से जो संयोग हमारा बना रहता है उससे वियोग का नाम योग है।इसकी प्रैक्टिस के लिए कहा है कि संसार में लगी इस वृत्ति को अलग करने के लिए,साधक को पूरे उत्साह और बिना संशय,केवल निश्चय भाव से निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।वैसे किसी भी कार्य की सफलता के लिए उत्साह और निश्चय भाव का होना बड़ा ज़रूरी होता है।

Tags:    

Similar News