Amalaki Ekadashi: आमलिक या रंगभरी एकादशी आज,जानिए पूजा विधि और आंवला पूजा का महत्व और कथा
Amalaki Ekadashi: फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर रंगभरी एकादशी का व्रत रखा जाता है। इस दिन विष्णु जी के साथ महादेव की पूजा का खास महत्व है।
Amalaki Ekadashi: हिंदू धर्म में भगवान विष्णु की उपासना का विशेष महत्व है। गुरुवार के साथ ही एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करने बड़ा महत्व है। इससे भगवान प्रसन्न होने के साथ ही सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। माह में दो और पूरे साल में कुल 24 एकादशी पड़ती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर रंगभरी एकादशी का व्रत रखा जाता है। इसे आमलकी एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन विष्णु जी के साथ महादेव की पूजा का खास महत्व है।
रंगभरी एकादशी की तिथि
इस फाल्गुनी माह में एकादशी का व्रत 20 मार्च को रखा जाएगा। इसे रंगभरी और आमलकी एकादशी भी कहा जाता है। एकादशी की तिथि 19 मार्च की रात 12 बजकर 22 मिनट से शुरू होकर अगले दिन 20 मार्च को रात 2 बजकर 23 मिनट पर सामाप्त होगी। ऐसे में एकादशी का व्रत पुष्य नक्ष में 20 मार्च को रखा जाएगा। साथ ही व्रत का पारण अगले दिन 21 मार्च को सुबह 9 बजे से पहले किया जाएगा।
एकादशी की पूजा विधि
रंगभरी एकादशी पर सुबह जल्दी उठकर सबसे पहले स्नान करें। इसके बाद स्वच्छ कपड़े पहनकर व्रत का संकल्प लें। लोटे में जलकर भरकर इसमें थोड़ा सा गाय का कच्चा दूध, गंगाजल, शहद और अक्षत को मिलाकर भगवान शिव के मंदिर में शिवलिंग पर अभिषेक करें। इस दिन महिलाएं व्रत करने के साथ ही माता पार्वती को श्रृंगार का सामान अर्पित करें। साथ ही शिवलिंग पर बेलपत्र अर्पित करें। इससे भगवान शिव आपकी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करेंगे।
विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को भी जन्म दिया। भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन लोग भगवान विष्णु का आराधना कर उपवास करते हैं और आवंले के वृक्ष की पूजा करते हैं। भारत में आवंले के पेड़ को आमलकी भी कहा जाता है। भगवान विष्णु के इस पेड़ में वास करने से यह बहुत ही शुभ और पूजनीय माना जाता है। आमलकी एकादशी का व्रत करने से समस्त देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होने के साथ भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहती है।
आमलकी एकादशी का महत्व
हिंदू पंचाग के अनुसार, दूसरे त्यौहारों की तुलना में आमलकी एकादशी के दिन का सबसे अधिक महत्व होता है। होली के लोकप्रिय त्यौहार की शुरुआत भी आमलकी एकादशी को मानी जाती है। भगवान को संदर्भित करते हुए इस पेड़ की पूजा करना व्यापक परिप्रेक्ष्य से हिंदू धर्म के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्वों में से एक माना जाता है। इस दिन जो भी इच्छा मन में लेकर उपवास करते हैं । उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। हिन्दू मान्यतानुसार देवी लक्ष्मी को धन की देवी माना जाता है। आमलकी एकादशी के दिन व्रत करने से देवी लक्ष्मी उनकी हर मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। इसके अलावा, यह माना जाता है कि भगवान कृष्ण जो कि भगवान विष्णु का अवतार थे, अपनी प्रेमिका राधा के साथ आवंले के पेड़ के पास मिलने जाया करते थे। इस वजह से इस दिन की महत्वता और बढ़ जाती है। जो भी आमला के पेड़ से प्रार्थना कर रहे होते हैं, उन लोगों के मन की हर मुराद पूरी हो जाती है। आंवला का पेड़ औषधीय परिप्रेक्ष्य से सबसे महत्वपूर्ण है। यह स्वास्थ्य लाभ भी देता है। आवंला के पेड़ से कई प्रकार की जड़ी-बूटियां बनाई जाती हैं। आवंला के पेड़ का उपयोग बड़े पैमाने पर आधुनिक दवाओं के निर्माण के लिए किया जाता है जो विटामिन सी का स्त्रोत होती हैं।
आमलकी एकादशी से जुड़ी कथा
हिन्दू मान्यतानुसार आमलकी एकादशी से जुड़ी कथा काफी प्रचलित है । एक बार मांधाता ने महर्षि वशिष्ठजी से ऐसे व्रत की कथा सुनाने का आग्रह किया । जिससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो। तब महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें आमलकी एकादशी की कहानी सुनाते हुए कहा कि एक वैदिश नाम का नगर था, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था। उस नगर में चैतरथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे।
एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से आंवले का पूजन करने लगे और स्तुति करने लगे। तभी वहां एक भूखा शिकारी आ गया और उसने भी बैठ कर मन से कथा सुनी। जिसके कुछ दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उसने एक राजा के यहां जन्म लिया और अन्न, धन बल, साहस से परिपूर्ण रहा। एक बार जब वो थक कर जंगल में ही विश्राम करने लगा तो जिन लोगों को उसने मारा था उनके सम्बधीं उसे मारने आए तभी वहां देवी प्रकट हुई और देवी ने उन लोगों का सर्वनाश कर दिया। जब उस राज की आंख खुली तो उसने पूछा मेरी मदद किसने की। तब आकाशवाणी हुई कि यह तुम्हारे आमलकी एकादशी करने का फल है तुम्हारी रक्षा स्वंय भगवान विष्णु ने की है। तभी से इस व्रत को किया जाने लगा। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गोदान के फल के बराबर होता है।
एकादशी व्रत के लाभ
युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ण ! मुझे फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये ।भगवान श्रीकृष्ण बोले: महाभाग धर्मनन्दन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है । इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाला है । राजा मान्धाता ने भी महात्मा वशिष्ठजी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठजी ने कहा था :
महाभाग ! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा । उसीसे आमलक (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है । इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और ब्रह्माजी ने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को जन्म दिया । उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिय आमलक का वृक्ष था । महाभाग ! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे । उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई: ‘महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है । इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है । स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है । यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है । इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं । आमलक सर्वदेवमय है । अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए ।’
ॠषि बोले : आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक ठीक बताइये ।
पुन : आकाशवाणी हुई : जो सम्पूर्ण भूतों के कर्त्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूँ।
देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ॠषिगण भगवान की स्तुति करने लगे । इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले : ‘महर्षियो ! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ ?
ॠषि बोले : भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो ।
श्रीविष्णुजी बोले : महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है । इस दिन आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिए । इससे मनुष्य सब पापों से छुट जाता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है । विप्रगण ! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है ।
ॠषि बोले : भगवन् ! इस व्रत की विधि बताइये । इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? पूजन कैसे करें? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है?
भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा : द्विजवरो ! इस एकादशी को व्रती प्रात:काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘ हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा । आप मुझे शरण में रखें ।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करे । अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे । स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये ।
मृत्तिका लगाने का मंत्र
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।
मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम् ॥
वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था । मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो ।’
स्नान का मंत्र
त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।
स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नम:॥
स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च्।
नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥
जल की अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो । वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी रक्षक है । तुम रसों की स्वामिनी हो । तुम्हें नमस्कार है । आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका । मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो ।’
विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये । प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए । स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे । इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय । वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे । शुद्ध की हुई भूमि में मंत्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे । कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे । श्वेत चन्दन से उसका लेपन करे । उसके कण्ठ में फूल की माला पहनाये । सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये । जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे । तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे । पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे । कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों(खीलों) से भर दे । फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति (सुवर्ण की) स्थापित करे।
‘विशोकाय नम:’ कहकर उनके चरणों की,
‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की,
‘उग्राय नम:’ से जाँघो की,
‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की,
‘पधनाभाय नम:’ से उदर की,
‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की,
‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,
‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की,
‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,
‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की,
‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,
‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की,
‘वामनाय नम:’ से ललाट की,
‘सर्वात्मने नम:’ से संपूर्ण अंगो तथा *मस्तक की पूजा करे ।
ये ही पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्ध्य प्रदान करे । अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है :*
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते ।
गृहाणार्ध्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥
देवदेवेश्वर ! जमदग्निनन्दन ! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये ।’
‘तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे । नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथा वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे । उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे । फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे । ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे । परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि : ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों ।’ तत्पश्चात् आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये । तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे ।सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने दे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है । समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है ।’वशिष्ठजी कहते हैं : महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया । नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करने वाला है ।