Bhagavad Geeta: आपका रस किसमें है
Bhagavad Geeta: रस कितने प्रकार के होते हैं? रस क्या है?जिसमे आपको रस मिलता है वही है रस।
Bhagavad Geeta: रस कितने प्रकार के होते हैं? रस क्या है?जिसमे आपको रस मिलता है वही है रस।रस वही है,आपका चित्त जहां अटक गया है।आपका चित्त बार-बार घूम फिर कर जहां वापस आ जाता है।चित्त अर्थात चेतना।आपका मन।माइंड।माइंड जहाँ घूम फिर कर वापस आ जाता है।माइंड में जो सदैव घूमता रहता है।वृत्त यानी -गोल गोल।घूम फिर कर पॉइंट जीरो पर पहुंचना।वृत्त से ही वृत्ति बनी है।चित्त वृत्ति - चित्त घूम घूम कर जहां बारम्बार पहुंच जाए।वही चित्त की वृत्ति हुयी।चित्त घूम फिर कर तीन जगहों पर अटकता है -काम, धन और प्रतिष्ठा।
तुलसीदास कहते हैं -
सुत वित लोक ऐषणा तीनी।
केहि कर मन एहि कृति न मलीनी।
जिन जिन पदार्थो, व्यक्तियों, विचारों, और भावों में आपको रस मिलता है उसे कहते हैं -विषय।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(गीता - 2.59 )
हम यदि किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार, या भाव से, लंबे समय तक संपर्क में न रहें, तो उसमें हमारी रुचि समाप्त हो जाती है।वह हमारे चित्त का अंग नही रह जाता।स्मृति से इन विषयों का लोप हो जाता है।लेकिन उन विषयों से रस समाप्त नहीं होता।उन विषयों के संपर्क में आते ही हम पुनः उनमे रस लेने लगते हैं।उन विषयों में रस तभी नष्ट होता है परम अर्थात परमात्मा का दर्शन प्राप्त हो जाय।हमारे ऋषियों ने परमात्मा को-रसो वै स: कहा है। परम रस वही है।जिसे परमानंद भी कहते हैं। तत्वमसि।तुम वही हो।तो रस के प्रकार है -पर रस।विरस।स्व रस।और फिर अंतिम रस - परम रस या मात्र रस।पर में जब तक रस बना रहे उसे कहते हैं राग।
सुत वित लोकेषणा तीनी : काम, धन और प्रतिष्ठा।जब तक इनमें रस बना है यह है: पर रस।धन कमाए जा रहे हैं, धन कमाते कमाते यह सोचना भी भूल गए कि क्यों कमाए जा रहे हैं।हवा भरते जा रहे हैं, गुब्बारे की तरह फुलाये जा रहे हैं।एक दिन गुब्बारा फूटा।पता चला कि इसमें तो कोई रस नहीं था।फिर दौड़ शुरू हुयी पद और प्रतिष्ठा की।अब एम एल ए और एम पी के टिकट की लाइन में लगे खड़े हैं।दांत चियारो हर नेता के पीछे पीछे।फ़ोटो खिंचवाओ।उसका बैनर बनवाओ।नयी दौड़ शुरू हो गयी।हो सकता है सफलता हाँथ लग जाय।सफल हो गए तो दौड़ शुरू हो गयी मंत्री पद की।अनंत दौड़। जिंदगी की शाम आ गयी।अंतिम घड़ी आ गयी।अब अपने पुत्र पुत्रियों को एम एल ए बनवाना है, मंत्री बनवाना है।अनंत दौड़।यदि गुब्बारा फूटा समय रहते, तो पता चला कि इसमें भी रस न था।दौड़ मात्र थी।
संघर्ष मात्र था।जहाँ संघर्ष है वहाँ शांति कहाँ? फिर शांति की खोज शुरू हुयी - विरस।जिन विषयो में रस था।उन्ही से विरक्ति - स्त्री धन प्रतिष्ठा से विरक्ति।अब उन्हीं विषयों से नकारात्मक रूप से जुड गए।नेगेटिव माइंड सेट से, नेगेटिव भाव से, घृणा से उनसे जुड़ गए।उनके प्रति विरस हो गए।इसका भी गुब्बारा भर सकता है।इनका भी गुब्बारा फूट सकता है।इनमें जो नेगेटिव लगाव है वह समाप्त हो सकता है तब उपजता है - स्वरस।स्वरस - अपने अंदर रस की खोज शुरू हुयी - यम,नियम, आसन, प्रत्याहार।अंदर के रस की खोज शुरू हुयी।यदि रस की झलक मिलना शुरू हुआ तो बहिरंग साधना समाप्त हुयी।अंतरंग साधना शुरू हुयी - धारणा ध्यान समाधि।स्व भी समाप्त हो जाय तो उस रस की प्राप्ति होती है जिसे कहते हैं- रसो वै स:*।परम रस। परमानंद।जिसके दर्शन से - "रसवर्जं रसो अपि अस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।” कह रहे हैं श्रीकृष्ण। परमानंद।राम नाम रस भीनी चदरिया।औरराम रसायन तुम्हरे पासा।सदा रहो रघुवर को दासा।।
( लेखक धर्म व अध्यात्म के विशेषज्ञ हैं।)