Bhagavad Gita Gyan: क्या है आपके काम करने का तरीका

Bhagavad Gita Gyan: कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो उनको करते समय तीनों का मेल होना चाहिए। तभी जीवन में सफलता मिलेगी।

Update:2023-12-03 15:36 IST

Bhagavad Gita Gyan in Hindi

Bhagavad Gita Gyan in Hindi: समग्रता से काम करते हैं या फिर विभाजित व्यक्तित्व से काम करते हैं? योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धन्नजय। (भगवद्गीता) योग का अर्थ है मिलन। किसका मिलन? कर्म के संदर्भ में बात हो रही है। तो हमारे पास कर्म करने के कितने उपकरण उपलब्ध हैं। कृष्ण कहते हैं - शरीर वाक मनोभि: यत् कर्म प्रारभते नर:। शरीर मन और वाणी से जो कर्म मनुष्यों द्वारा शुरू किए जाते हैं। अर्थात यही तीन यंत्र हैं हमारे पास कर्म करने के। इन्ही तीन उपकरणों की सहायता से हम अपने समस्त कर्म करते हैं :- शरीर वाणी और मन।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो उनको करते समय तीनों का मेल होना चाहिए। तभी जीवन में सफलता मिलेगी। इसी मिलन का नाम ध्यान है। हमारे गुरुओं ने, माता पिता ने सबने हमको समझाया कि ध्यान से काम करना सीखो। हम अपने बच्चों को यही प्रवचन दे रहे हैं कि बेटा ध्यान से पढो, ध्यान से काम करो।

लेकिन क्या हम स्वयं ध्यान से काम करना सीख पाये हैं? क्या हम इस शब्द का अर्थ समझते हैं?

योगस्थ कुरु कर्माणि :-

ध्यान से काम करो। ध्यान - शरीर और मन।

अभी तो हमारे काम करने का तरीका ऐसा है कि हमें ध्यान का कुछ अता पता ही नहीं है।हम काम कुछ कर रहे हैं और मन में कुछ और चल रहा हैं। हम बैठे हैं ऑफिस में और मन में घर में हुवा महाभारत चल रहा है। पत्नी की किचकिच चल रही हैं। हम बैठे हैं घर में। पत्नी के साथ चाय पी रहे हैं। और मन में बॉस दहाड़ रहा है।

घर मे बैठे हैं तो ऑफिस की किचकिच चल रही है। हम गाड़ी चलाकर आफिस जा रहे हैं और रास्ते में मन मे सैकड़ो योजनाएं बन बिगड़ रही हैं।और तो और साधारण से साधारण नित्यकर्मों के समय भी मन स्थिर नहीं रहता। शरीर के साथ नहीं रहता। भोजन करने बैठे हैं तो टी वी खोल लिया। अखबार खोल लिया। किताब खोल ली।

क्यों?

क्योंकि भोजन करते समय भी मन इतना बेचैन है कि यदि उसे खुला छोड़ दें तो वह न जाने कौन कौन सा उपद्रव खड़ा कर दे? इस भय के कारण हम मन को कहीं न कहीं अटका देते हैं - टी वी में, किताबों में, अखबार में। मन के उपद्रव से बचने के लिए।

मैं स्वयं अभी एक वर्ष पूर्व तक भोजन करते समय कुछ न कुछ अवश्य पढ़ता था। मेरी श्रीमती जी ऐतराज करती थीं तो संभबतः मेरे पास कोई तर्कपूर्ण तर्क नहीं रहता होगा। लेकिन अपने आप को सही प्रमाणित करने के लिए मैं कहता था कि इससे भोजन खराब भी बना हो तो पता नहीं चलता। खा लेता हूँ। इसे कहते हैं बेध्यानी से भोजन करना। बेहोशी में भोजन करना। होश नहीं है खाते समय। बेहोश हैं हम भोजन करते समय भी।

अरे भैया भोजन प्रेम से बनाया है आपकी पत्नी ने, माँ ने, उस प्रेम का तो अपमान न करो। ध्यान से खाओ। ध्यान का एक नाम प्रेम भी है।

इस तरह हम शरीर और मन के स्तर पर प्रायः बंटे रहते हैं - विभक्त रहते हैं। यही बँटा पन यदि प्रगाढ़ हो जाय तो मनोवैज्ञनिक उसे Split Personality Disorder कहते हैं। एक मनोवैज्ञनिक बीमारी।

अब मन और वाणी के द्वारा किये जाने वाले कर्मो में मेल, मिलन के बारे में :-

हम जैसा जीवन जीते हैं उसमें हमारी वाणी में कुछ चलता है और मन मे कुछ और।

संसार में यह बहुत सामान्य बात है। मन में किसी के प्रति द्वेष है, घृणा है, लेकिन वह सामने आ जाय तो हमारी वाणी में मिठास आ जाती है। अहोभाग्य मित्र, आपके दर्शन हुए।लेकिन मन में चल रहा है कि अवसर मिले तो इसका गला दबा दूं। कहाँ से आ टपका यह नामुराद। मन और वाणी में कोई मेल नहीं है।

मेरे गाँव में एक लोग हैं। उनके बारे में सुना है कि किसी एक विषय में अलग अलग लोगों से इतनी अलग अलग बाते करते हैं कि शाम तक भूल जाते है कि किससे कौन सी बात की थी। बात तो एक ही करनी थी उस विषय पर।

लेकिन मन में उसी बात के लिए अलग अलग व्यक्ति के लिए अलग अलग साँचा तैयार कर रखा है। अंत में सब गड्डम गड्ड हो जाती है कि किससे क्या कहा।

उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि अपने गुरु को सामने पाकर तुरंत पैर छूते हैं और जैसे ही गुरु एक कदम आगे बढ़ा, वे अपने गुरु को एक भद्दी गाली समर्पित करते हैं। तो मन और वाणी में कोई मेल नहीं है। यह भी विभक्त व्यक्तित्व निर्मित करता है :- Split personality.*

ऐसा क्यों हो रहा है। कृष्ण कह रहे हैं कि - योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय

कर्म करते समय शरीर मन और वाणी से एक रहो। लेकिन ऐसा तभी होगा जब आसक्ति अर्थात संग का त्याग कर सकोगे। मन में हजारों इच्छाएं जन्म ले रही हैं। मन भाग रहा है निरन्तर उन इच्छाओं के पीछे। हर इच्छा के पीछे राग और द्वेष का भाव जुड़ा हुआ है।

तो हम जहां हैं मन वहां से अनुपस्थित है। और जहां पर मन उपस्थित हैं । वहां हम अनुपस्थित हैं। जहां मन और शरीर दोनों उपस्थित हैं वहां वाणी तो है लेकिन कौन सी? यह कहना मुश्किल है। सच्ची या झूंठी यह कहना मुश्किल है।

शरीर वाणी और मन में विभाजन व्यक्ति के अंदर खींचतान उत्पन्न करता है, तनाव और बेचैनी उतपन्न करता है। उपद्रव पैदा करता है।

क्या है आपके काम करने का तरीका 

मन है अतीत में संग्रहित की गयी सूचनाओं का भंडार। मन हमारा सदैव उसी अतीत में भटकता रहता है जो हमने जिया है। या फिर भविष्य में, जोकि अतीत का प्रक्षेपण मात्र है। हमारा मन इन्हीं दो स्थितियों में भटकता रहता है। हमारे दर्पण पर जमा मैल हैं मन। और हम इस मैल से चिपकते रहते हैं। कभी अपने आपको मन से पृथक नहीं कर पाते।

जिस कर्म में हम जितने प्रवीण हो जाते हैं, उतने ही हम उससे पृथक हो जाते हैं। कार चला रहे हैं, और मन में कई कई योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। यह सम्मोहन है, अचेतपन है, बेहोशी है।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी कर्म करना हो, उसे समग्रता के साथ करो, ध्यान के साथ करो। शरीर मन और वाणी में एकत्व स्थापित करके करो।

विभक्त व्यक्तित्व के साथ कोई काम न करो। समग्र व्यक्तित्व के साथ करो। तभी मन का द्वंद, मन का तनाव, मन की उलझनें, बेचैनियों से बच सकोगे।

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