Bhagavad Gita: जो दुःख दे वह शत्रु है
Bhagavad Gita: दुःख देने वाले विरोध करने वाले सभी व्यक्ति, वस्तु आदि शत्रु हैं
शत्रु की परिभाषा क्या है ?
श्री गुरुदेव जी भगवान कहते हैं कि
जो दुःख दे वह शत्रु है।
जो विरोध करे वह शत्रु है।
दुःख देने वाले/विरोध करने वाले सभी व्यक्ति, वस्तु आदि शत्रु हैं।
इसलिये यह रोग भाव हुआ।
इस भाव से हर प्रकार के शत्रुओं का बोध होता है।
इन शत्रुओं में एक बड़ा शत्रु है और वह है-दरिद्रता।
कहा गया है...
दारिद्रयान् मरणाद्वापि दारिद्रयमवरं स्मृतम्।
अल्पक्लेशेन मरणं दारिद्यमति दुःसहम् ॥
( हितोपदेश, मित्रलाभ १२८ )
दरिद्रता और मरना-इन दोनों में से दरिद्रता बुरी है।
क्योंकि मरण तो थोड़े क्लेश से होता है और दरिद्रता सदा दुःख देती है ।
कोई भी वस्तु जो नियन्त्रण वा अधिकार में नहीं है, वह शत्रु है।
शंकराचार्य कहते हैं...
के शत्रवः सन्ति ? निजेन्द्रियाणि ।
तान्येव मित्राणि जितानि यानि ।
( प्रश्नोत्तरी।)
[ कौन शत्रु है ? अपनी इन्द्रियाँ यदि ये जीत ली जाती हैं तो मित्र हैं। ]
विष सब का शत्रु है।
यदि इसका शोधन कर औषधि बनाया जाय तो यही मित्र हो जाता है।
इसी प्रकार व्यक्ति का अपना आत्मा ही उसका मित्र वा शत्रु है।
गीता में भगवान् कृष्ण का अर्जुन के प्रति वचन है...
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
( गीता ६।६ )
आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है,
यह बात कही गयी उसमें किन लक्षणों वाला पुरुष तो ( आप ही ) अपना मित्र होता है,
और कौन ( आप ही ) अपना शत्रु होता है,
सो कहा जाता है उस जीवात्मा का तो वही आप मित्र है,
कि जिसने स्वयमेव कार्य करण के समुदाय शरीर.रूप आत्मा को अपने वश में कर लिया हो,
अर्थात् जो जितेन्द्रिय हो।
जिसने ( कार्य करण के संघात ) शरीर रूप आत्मा को अपने वश में नहीं किया,उसका वह आप ही शत्रु की भाँति शत्रु भाव में बर्तता है।
अर्थात् जैसे दूसरा शत्रु अपना अनिष्ट करने वाला होता है,
वैसे ही वह आप ही अपना अनिष्ट करने में लगा रहता है।