Bhagavad Gita: गीता का उपदेश अत्यन्त है पुरातन, छिपे हैं इसमें जीवन के रहस्य

Bhagavad Gita: कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है?...

Newstrack :  Network
Update:2023-02-04 23:24 IST

Bhagavad Gita (Social Media)

Bhagavad Gita: गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन योग है, श्री भगवान् कहते हैं, इसे मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था, सूर्य ज्ञान का प्रतीक है, अतः श्री भगवान् के वचनों का तात्पर्य है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी अनेक स्वरूप अनुसंधान करने वाले भक्तों को यह ज्ञान दे चुका हूँ, यह ईश्वरीय वाणी है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार है एवं आधार है। मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं।

हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते,गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान् ने धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं, इस देह को जिसमें 36 तत्व जीवात्मा की उपस्थिति के कारण जुड़कर कार्य करते हैं, क्षेत्र कहा है, और जीवात्मा इस क्षेत्र में निवास करता है, वही इस देह का स्वामी है।

परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है, जब वह प्रकट होता है, अधिदैव अर्थात् 36 तत्वों वाले इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा (क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है,यही उत्तम पुरुष ही परम स्थिति और परम सत् है, यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है।

जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है, शरीर के मर जाने पर जीवात्मा अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है, गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है, तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है।

धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है, धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है।

कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि।।

धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है, इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है, आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय तो धर्म ही आत्मा है, आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द हैं, और शान्ति का अक्षय धाम है, इसके विपरीत अज्ञान, अशांति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है।

आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है, ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकति का जन्म होता है, प्रकृति के गुण सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है, सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियाँ प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिये, सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है।

सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है, बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो स्वभावगत कर्म करना सरल है, और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है, क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है।

श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है, स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है, अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है, यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग का गीता में उपदेश दिया है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं

इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है, श्रीकृष्ण को वेदों और उपनिषदों का सार माना जाता, जो लोग वेदों को पूरा नही पढ़ सकते, सिर्फ गीता के पढ़ने से भी आप को ज्ञान प्राप्ति हो सकती है, गीता न सिर्फ जीवन का सही अर्थ समझाती है बल्कि परमात्मा के अनंत रुप से हमे रुबरु कराती है।

इस संसारिक दुनिया मे दुख, क्रोध, अंहकार ईर्ष्या आदि से पिड़ित आत्माओं को गीता सत्य और आध्यात्म का मार्ग दिखाकर मोक्ष की प्राप्ति करवाती है, गीता मे लिखे उपदेश किसी एक मनुष्य विशेष या किसी खास धर्म के लिए नही है, इसके उपदेश तो पूरे जग के लिए है, जिसमे आध्यात्म और ईश्वर के बीच जो गहरा संबंध है उसके बारे मे विस्तार से लिखा गया है।

गीता मे धीरज, संतोष, शांति, मोक्ष और सिद्धि को प्राप्त करने के बारे मे उपदेश दिया गया है, आज से हज़ारो साल पहले महाभारत के युद्ध मे जब अर्जुन अपने ही भाईयों के विरुद्ध लड़ने के विचार से कांपने लगते हैं, तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि यह संसार एक बहुत बड़ी युद्ध भूमि है।

असली कुरुक्षेत्र तो तुम्हारे अंदर है, अज्ञानता या अविद्या धृतराष्ट्र है, और हर एक आत्मा अर्जुन है, और तुम्हारे अन्तरात्मा मे श्री कृष्ण का निवास है, जो इस रथ रुपी शरीर के सारथी है, ईंद्रियाँ इस रथ के घोड़ें हैं, अंहकार, लोभ, द्वेष ही मनुष्य के शत्रु हैं, गीता हमे जीवन के शत्रुओ से लड़ना सीखाती है, और ईश्वर से एक गहरा नाता जोड़ने मे भी मदद करती है।

गीता त्याग, प्रेम और कर्तव्य का संदेश देती हैं, गीता मे कर्म को बहुत महत्व दिया गया है, मोक्ष उसी मनुष्य को प्राप्त होता है जो अपने सारे सांसारिक कामों को करता हुआ ईश्वर की आराधना करता है, अहंकार, ईर्ष्या, लोभ आदि को त्याग कर मानवता को अपनाना ही गीता के उपदेशो का पालन करना है।

गीता सिर्फ एक पुस्तक नही है, यह तो जीवन मृत्यु के दुर्लभ सत्य को अपने मे समेटे हुए है, कृष्ण ने एक सच्चे मित्र और गुरु की तरह अर्जुन का न सिर्फ मार्गदर्शन किया बल्कि गीता का महान उपदेश भी दिया, उन्होने अर्जुन को बताया कि इस संसार मे हर मनुष्य के जन्म का कोई न कोई उद्देशय होता है।

मृत्यु पर शोक करना व्यर्थ है, यह तो एक अटल सत्य है जिसे टाला नही जा सकता, जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु भी निश्चित है, जिस प्रकार हम पुराने वस्त्रो को त्याग कर नए वस्त्रो को धारण करते है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर के नष्ट होने पर नए शरीर को धारण करती है।

जिस मनुष्य ने गीता के सार को अपने जीवन मे अपना लिया उसे ईश्वर की कृपा पाने के लिए इधर उधर नही भटकना पड़ेगा I

(जयश्री लड्डू गोपालजी फेसबुक पेज से साभार)

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