Bhagavad Gita Quotes On Friendship: मित्र कैसा हो

Bhagavad Gita: आज नहीं तो कल निराशा का सामना अवश्य करना पड़ेगा।पड़ा है।अपने जीवन में एक बार झांक कर देख लें।यदि ये बात गलत हो तो आगे की पोस्ट न पढ़ें।अपवाद भी सम्भव है।

Update:2024-08-10 20:14 IST

Bhagavad Gita: 

बाबा तुलसीदास लिखते हैं -

जो न मित्र दुख होहिं दुखारी

तिनहिं विलोकत पातक भारी।

जो मित्र के दुख में दुखी न हो,उससे अधिक गिरा हुवा व्यक्ति कोई हो नहीं सकता। तो प्रश्न यह उठता है कि मित्र कौन है? मित्रता की खोज परक अपने से शुरू करना चाहिये।यही विशिष्ट बात है और अनोखी भी।हम प्रायः दूसरों से मित्रता की अपेक्षा रखते हैं।लेकिन वह अपेक्षा है। और जहां अपेक्षा है,इच्छा है,ख्वाहिश है,डिजायर है,वहां आज नहीं तो कल निराशा का सामना अवश्य करना पड़ेगा।पड़ा है।अपने जीवन में एक बार झांक कर देख लें।यदि ये बात गलत हो तो आगे की पोस्ट न पढ़ें।अपवाद भी सम्भव है।

लेकिन अपवाद नियम नहीं होते।आजकल चौतरफा विश्व में विकास की बात चल रही है।लेकिन इतने विकास के बाद भी मनुष्य अवसाद ग्रस्त क्यों है?WHO का कहना है कि आने वाले वर्षों में यह और बढ़ेगा।विकास और अवसाद का चोली दामन का सम्बन्ध है। वह विकास,जिसे हम जानते हैं।यह है वाह्यविकास।एक और तरह का भी विकास होता है,जिससे हम अपरिचित हैं।अपना विकास, अन्तर्विकास- हृदय, मन की उन्नति या आत्मिक ज्ञान। अपने विकास का क्या अर्थ है? कृष्ण कहते हैं कि जब तुम अपने मित्र बन जाओगे,तो ही विकास संभव होगा और अवसाद से मुक्ति मिलेगी।

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

( गीता - 6.5 )

व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना विकास करे अपनी अवनति न होने दे।व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है स्वयं ही अपना शत्रु भी। हमारे जीवन में हम अपने प्रति अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाते।बहम अपने दुखों के लिए दूसरों को उत्तरदायी समझते हैं और अपने सुखों के लिए स्वयं अपनी पीठ ठोंकते हैंयह एक गैर जिम्मेदाराना सिद्धांत है जीवन के प्रति।अपना मित्र होने का अर्थ है कि हम अपना जीवन किस स्तर पर जीते हैं।हमारे जीवन की कई परते हैं।योग विज्ञान पांच परतें बताता है -अन्न मय कोष , शरीर प्राणमय कोष (बायोलॉजिकल एनर्जी), मनोमय कोष ( मन ) , विज्ञान मय कोष ( बुद्द्धि और विवेक आनंद मय कोष ( ब्लिस बॉडी )।हम साधारण शरीर और मन के अंदर ही जीते हैं।

मन का अर्थ है विचार और भाव।हमारे विचार दूसरों के द्वारा निर्मित होते हैं।दूसरों का अर्थ है -परिवार समाज शिक्षा धर्म आदि।लेकिन हम उनसे इतना गहन तादात्म्य बिठा लेते हैं,कि हमें लगता है कि वे हमारे विचार हैं।हमारे भाव उन्हीं विचारों के अनुकूल निर्मित होते हैं। अब कोई भी व्यक्ति जो हमारे भाव या विचारों के विरुद्ध कुछ करता या कहता है,तो हम उसके विरोध में प्रतिक्रिया देते हैं।इसका अर्थ क्या हुवा? हम अपने मालिक नहीं हैं।दूसरे हमारे मालिक हैं।अर्थात हम अपने शत्रु हैं। हमने दूसरे को यह स्वतंत्रता कि जब चाहे वह हमारे विचार और भावों को भड़का कर हमें क्रोधित कर सकता है, या अवसाद में डाल सकता है।कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य रोबोट है,क्योंकि उसको उसका मनोजगत चलाता है।मनोजगत अर्थात माया।माया अर्थात मैं और मेरा,तुम और तेरा।रामचरित मानस में इसकी व्याख्या की गई है कि माया क्या है?मैं और मोर तोर तै माया।जेहिं विधि कीनी जीव निकाया।।कृष्ण कहते हैं

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।

( गीता - 18.61 )

हमारे चित्त या सोच का केंद्र सदैव दूसरा होता है, हम नहीं।हमें तो यह भी नहीं पता होता कि हमारे मन में चल क्या रहा है?आप अपने घर से निकलते हैं और ऑफिस पहुंच जाते हैं।रास्ते में कितने विचार आपके मन में आए, आपको पता ही नहीं चलता।आप तो एक यांत्रिक मशीन की भांति जीवन जीते इसी को साइकोलॉजिकल संसार अर्थात माया कहा गया है।हमारी अपेक्षा होती है कि हर कोई हमारी अपेक्षा के अनुरूप व्यवहार करे।यदि कोई भी व्यक्ति उसके अनुरूप नहीं चलता तो हमें कष्ट होता है,क्लेश होता है।हमारे अंदर क्रोध का प्रदुर्भाव होता है।ऐसा ही होता है न? या कुछ और होता है?

एक बार विचार कीजिए।हमारी अपेक्षा यह है कि कोई ऐसा न करे।लेकिन ऐसा कैसे संभव है?क्या संसार हमारे अनुकूल चलेगा?कोई हमारे अनुकूल नहीं चल सकता,जब तक कि उसका कोई लोभ या लाभ न फंसा हो हमारे पास।प्रेमचंद के एक उपन्यास या कहानी का डायलाग याद कीजिये -जिस पैर के तले गर्दन दबी हो उसे सहलाना ही हितकर होता है।आप अपने मित्र तभी हो सकते हैं,जब जीवन को विकसित करके उस स्तर तक ले जा सकें जहां विवेक जाग्रत होता हैं -

Who Am I.

मैं कौन हूँ?

जब इस दिशा में आप अपनी यात्रा करते हैं, तो दूसरे लोग आपको प्रभावित करना कम कर देते हैं।जब दूसरे लोग हमें चलाना बंद करते हैं,तभी आप अपने मित्र होते हैं। आप अपना उत्तरदायित्व अपने हाँथ में लेते हैं।उसी को कृष्ण कहते हैं अपना मित्र होना।तुलसीदास के रामायण में जिक्र आता है-

जब राम सीता और लक्ष्मण के साथ अपने मित्र निषादराज से मिलते हैं।रात को सीता और राम घास फूस की शैया पर आराम कर रहे हैं और लक्षमण तथा निषादराज पहरे पर हैं निषादराज को सारी कथा पता चलती है वनवास की।तो वह कैकेयी पर क्रोधित होकर उसे भला बुरा कहने लगता है।लक्ष्मण उसे शांत कराते हैं यह बोलकर-

काहु न केहु सुख दुख कर दाता।*

निज कृत कर्म भोग सब भ्राता।।

( लेखक धर्म व अध्यात्म के विशेषज्ञ हैं ।) 

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