Bhagavad Gita: कामना के सफल होने पर लोभ
Bhagavad Gita:‘इच्छा न रहने पर भी ऐसा कौन है,जिसकी प्रेरणा से मुनष्य मानो बलपूर्वक लगाया हुआ- सा पाप करता है
Shri Bhagavad Gita: इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न जितने भी भोग हैं,वे सब निश्चय ही दुःखयोनि हैं।_यथार्थ बात तो यह है कि जब तक आपका यह विश्वास है कि जगत की पदार्थों में-भोगों में सुख है,और जब तक उनके संग्रह को ही आप सुख का साधन मानते रहेंगे;तब तक आपको सच्चे सुख के दर्शन कदापि नहीं होंगे।अमुक-अमुक विषयों की प्राप्ति से, अमुक प्रकार की परिस्थिति से मुझको सुख हो जायगा,यह बहुत बड़ा भ्रम है, इसी भ्रम के कारण मनुष्य दिन-रात विषय-चिन्तन में लगा रहता है।आपको यह सत्य सदा याद रखना चाहिये कि समस्त पापों का मूल विषय-चिन्तन है।श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन ने भगवान् से पूछा था कि ‘इच्छा न रहने पर भी ऐसा कौन है,जिसकी प्रेरणा से मुनष्य मानो बलपूर्वक लगाया हुआ- सा पाप करता है?’श्रीभगवान् ने इसके उत्तर में स्पष्ट बतलाया कि-काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
( गीता ३/३७ )
काम ( कामना ) ही वह वैरी है,जो महाशन है-जिसकी कभी तृप्ति होती ही नहीं,और जो महान् पापी है; यह काम ही क्रोध बनता है,और इस काम की उत्पत्ति होती है रजोगुण से।’रजोगुण रागात्मक है।अर्थात् आसक्ति ही रजोगुण का स्वरूप है।इस आसक्ति से ही काम की उत्पत्ति होती है,और आसक्ति होती है विषयों के चिन्तन से,विषय-चिन्तन में मनुष्य का मन जहाँ रम जाता है,वहाँ एक के बाद दूसरा क्रमशः सारे दोष उत्पन्न हो जाते हैंऔर अन्त में उसका सर्वनाश होकर रहता है।
भगवान् ने कहा है-
ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते।संगात् सज्जायते कामः कामात् क्रोधोअभिजायते।।क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।।मनुष्य मन से विषयों का चिन्तन करता है, विषय-चिन्तन से उसकी विषयों में आसक्ति होती है,आसक्ति से उनको प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है,कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध ( कामना के सफल होने पर लोभ ) उत्पन्न होता है,क्रोध ( या लोभ ) से मूढ़ता आती है,
मूढ़भाव से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है,
स्मृति के भ्रंश होने पर बुद्धि मारी जाती है और बुद्धि के नाश हो जाने से मनुष्य का पतन या सर्वनाश हो जाता है।इससे सिद्ध है कि समस्त पापों का और सर्वनाश का मूल विषय-चिन्तन है।यह विषय-चिन्तन तब तक नहीं छूटता, जब तक विषयों में सुख की प्राप्ति का भ्रम है। भगवान् तो कहते हैं-ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न जितने भी भोग हैं,
वे सब निश्चय ही दुःखयोनि हैं-
दुःखों की उत्पत्ति के स्थान हैंऔर आदि अन्त वाले-अनित्य हैं,अतएव हे अर्जुन! बुद्धिमान् पुरुष इनमें नहीं रमता-सुख नहीं मानता।’सच्चे अक्षय सुख का उपभोग तो उस भगवत्-रूप योग में युक्त पुरुष को प्राप्त होता है,जिसका अन्तःकरण बाह्य जागतिक विषय-भोगों में आसक्त नहीं है और जो अन्तःकरण के ध्यान जनित सुख को प्राप्त है।अतएव हमें यदि सुख की-सच्चे सुख की चाह है तो चित्त के द्वारा निरन्तर भगवान् का चिन्तन -ध्यान करने का प्रयत्न करना पड़ेगा।
भगवान् ने श्रीमद्भागवत में कहा है-
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।।जो मनुष्य निरन्तर विषय-चिन्तन करता है,उसका चित्त विषयों में आसक्त हो जाता है और मेरा ( भगवान् का ) स्मरण करता है,उसका चित्त में मुझमें ( श्रीभगवान् में ) तल्लीन हो जाता है।एवं भगवान् के चित्त में आते ही भगवत्-कृपा से चित्तगत समस्त अशुभों, दोषों और पापों का नाश हो जाता है।
श्रीमद्भागवत में कहा है-
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसम्भवान्।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः।।
यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्ण हन्ति धातुजम्।
एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशयम्।।
कलियुग के कारण मनुष्य के वस्तु, स्थान, अन्तःकरण सभी में दोष उत्पन्न हो जाते हैंपरंतु जब पुरुषोत्तम श्रीहरि चित्त में आ जाते हैं, तब वे सारे दोष नष्ट हो जाते हैं।जैसे स्वर्ण के साथ संयुक्त होकर अग्नि उसकी धातु सम्बन्धी मलिनता आदि दोषों को नष्ट कर डालती है,वैसे ही हृदय में आये हुए भगवान् विष्णु उसके समस्त अशुभ संस्कारों को नष्ट कर देते हैं।परंतु भगवान् का चिन्तन तभी होगा, जब ‘विषयों में सुख है’-यह भ्रम हमारे मनसे सर्वथा निकल जायगा और जब यह निश्चय हो जायगा कि सुख तो एकमात्र श्रीभगवान् में ही है।किसी वस्तु का यथार्थ त्याग मनुष्य तभी करता है, जब वह समझ लेता है कि यह वस्तु सुख नहीं वरं नित्य नये-नये दुःख ही देने वाली है।और यह दोष वैसे ही प्रत्यक्ष निश्चय के रूप में आ जाना चाहिये, जैसे हमारा यह निश्चय है कि संखिया या अफीम खाने से हमारी मृत्यु हो जायगी।बहुत बड़े धन का लालच देने पर भी मनुष्य अफीम या संखिया नहीं खाता।