हिन्दू दर्शन में नवरात्र को सर्वाधिक फलदायी साधनाकाल माना जाता है। जानते हैं क्यूं! जिस प्रकार दिन-रात के 24 घंटों में ईश्वर की उपासना के लिए प्रात:काल की ब्रह्मबेला सर्वोत्तम होती है, उसी प्रकार वार्षिक साधनाकाल की दृष्टि से साल में आने वाले दो नवरात्र काल (चैत्र व आश्विन) सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं। मान्यता है कि इस समय वायुमंडल में दैवीय शक्तियों का स्पंदन अत्यधिक सक्रिय होता है और वे सुपात्रों को साधना के अनुदान बांटने को तत्पर रहती हैं। इन नौ दिनों में सच्चे हृदय से नियम-संयम के साथ की गयी छोटी सी साधना चमत्कारी नतीजे देती है। इसलिए साधना की इस अमृत बेला का लाभ आत्म व लोककल्याण के आकांक्षी को जरूर उठाना चाहिए।
चैत्र नवरात्र काल इस कारण और भी विशिष्ट है क्योंकि इसके साथ हमारे भारतीय नववर्ष का भी शुभारम्भ होता है। हिन्दू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है यानी वर्षभर का सबसे उत्तम दिन। सृष्टि रचयिता ब्रह्मा ने धरती पर जीवों की रचना के लिए इसी शुभ दिन का चयन किया और एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन समूचे जीव जगत की रचना की। श्रीहरि विष्णु ने सृष्टि के प्रथम जीव के रूप में इसी दिन प्रथम मत्स्यावतार लिया था। त्रेता युग में लंका विजय के बाद अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक इसी शुभ दिन हुआ था।
द्वापर काल में महाभारत के युद्ध में विजय के उपरान्त धर्मराज्य युधिष्ठिर भी इसी दिन राजगद्दी पर बैठे थे। इसी विशेष तिथि को ही सिंधी समाज के महान संत झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुण देव के अवतार माने जाते हैं। सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगददेव का जन्म भी इसी पावन दिन हुआ था। समाज से आडम्बरों का विनाश करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के लिए चैत्र प्रतिपदा का तिथि निर्धारित की थी।
भारतीय पंचांग का निर्धारण वाकई अद्भुत
भारत के महान खगोलशास्त्रियों ने तारों, ग्रहों, नक्षत्रों, चांद, सूरज आदि की गति का गहन अध्ययन कर छह ऋतुओं और 12 महीनों पर आधारित जिस भारतीय पंचांग का निर्धारण किया, वह वाकई अद्भुत है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए पंचांग की रचना की थी। इस भारतीय कलेंडर की गणना का आधार सूर्य के स्थान पर चंद्रमा की गति को बनाया जाना उनकी दूरदृष्टि का परिचायक है। उनका आधार यह था कि उस समय सूर्य की रोशनी में नक्षत्रों को देखने का कोई साधन नहीं था, जबकि रात के समय नक्षत्रों से होकर गुजरते चंद्रमा की गति को देखकर अनपढ़ आदमी भी समय व तिथि का अनुमान सहज ही कर सकता था। यह कालगणना युगों बाद भी पूरी तरह सटीक साबित हो रही है।
यह इतनी सामंजस्यपूर्ण है कि तिथि वृद्धि, तिथि क्षय, अधिक मास, क्षय मास आदि व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाते। तिथि घटे या बढ़े, लेकिन सूर्यग्रहण सदैव अमावस्या को होगा और चन्द्रग्रहण सदैव पूर्णिमा को ही होगा। हमारे खगोलशास्त्रियों ने इस कालगणना के आधार पर दिन-रात, सप्ताह, पखवारा, महीने, साल और ऋतुुओं का निर्धारण किया और 12 महीनों और छह ऋतुओं के पूरे एक चक्र यानी पूरे वर्ष की अवधि को संवत्सर का नाम दिया।
विक्रमी व शक संवत का शुभारम्भ
देश में विक्रमी व शक संवत का शुभारम्भ भी चैत्र प्रतिपदा की तिथि को ही हुआ। हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलने और अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण देश का एक बड़ा वर्ग नवसंवत्सर की महत्ता और तिथि-मासों की कालगणना की भारतीय पद्धति से अनजान है। फिर भी देश में सांस्कृतिक दृष्टि से विक्रमी संवत व शासकीय दृष्टि से शक संवत को मान्यता प्राप्त है तथा देश के सनातनधर्मी हिन्दू परिवार अपने सांस्कृतिक पर्व-उत्सवों, जन्म-मुंडन, विवाह संस्कार व श्राद्ध-तर्पण आदि के विक्रमी संवत के अनुसार ही करते हैं।
कहा जाता है कि आज से 2074 वर्ष पूर्व चैत्र प्रतिपदा के दिन उज्जयिनी नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रांता शकों से भारतमाता की रक्षा की और शक, यवन, हूण, पारसिक तथा कंबोज देशों पर विजय ध्वजा फहराई। उसी महाविजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को विक्रम संवत का शुभारम्भ हुआ। अपने नाम का संवत चलाने के लिए विक्रमादित्य ने शास्त्र विहित परम्परा का पालन करते हुए राष्ट्र के सभी नागरिकों का कर्ज अपने कोष से चुकाया। ऐसा उदाहरण दुनिया के इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता। विक्रमी संवत की सर्वग्राह्यïता का मूल कारण इसका किसी संकुचित विचारधारा या किसी देवी, देवता, महापुरुष, जाति अथवा संप्रदाय विशेष के नाम के स्थान पर विशुद्ध रूप से प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित होना है।
प्राकृतिक रूप से अत्यधिक समृद्ध
इन ऐतिहासिक प्रसंगों से इतर भी चैत्र प्रतिपदा की अपनी विशिष्ट महत्ता है। वर्ष प्रतिपदा प्राकृतिक रूप से अत्यधिक समृद्ध है। यह पर्व वसंत ऋतु में आता है और वसंत को ऋतुराज यूं ही नहीं कहते। वसंत ऋतु उल्लास, उमंग, खुशी तथा पुष्पों की सुगंध से परिपूर्ण होती है। इस समय प्रकृति का नवशृंगार देखते ही बनता है। मानव,पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। पुरातनता व जड़ता का त्याग व नवीनता व सक्रियता का स्वागत। यही है इस पर्व का मूल आधार, इसका गूढ़ संदेश। इसी समय पहाड़ों में बर्फ पिघलने लगती है।
आमों पर बौर आ जाता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है। यही वह समय होता है जब फसल पक जाती है। इस समय किसानों के चेहरे पर उनके मेहनत का फल मिलने की खुशी देखने वाली होती है। चैत्र मास में पेड़-पौधों पर नई पत्तियों आ जाती हैं। नया अनाज भी तैयार हो जाता है। हमारे अन्नदाता प्रसन्न रहें, धरती माता की उर्वरता को कोई कुदृष्टि न लगे, सभी देशवासियों का स्वास्थ्य उत्तम बना रहे, कोई आपदा-महामारी न आए, पूरे वर्ष में आने वाले सुख-दु:ख सभी मिलकर झेल सकें, इन्हीं शुभ भावों के साथ भारतीयता का यह नववर्ष मनाया जाता है।
बहुरंगी उत्सवधर्मिता का भी प्रतीक
वसंत ऋतु के खुशनुमा वातावरण में चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को विभिन्न रूपों में होने वाला हिन्दू नववर्ष का अयोजन भारत की ऋषि संस्कृति की वैज्ञानिक दृष्टि का तो परिचायक है ही, इसके विविध रूप रंग हमारी बहुरंगी उत्सवधर्मिता के भी प्रतीक हैं। उत्तर भारत में इस अवसर पर नवरात्र में देवी मंदिर गुंजायमान दिखते हैं, मानस व सप्तशती पाठ की धूम रहती है। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे युगादि पर्व ( नये युग की शुरुआत) के रूप में मनाया जाता है। कश्मीर में नवरेह सिंध में चेटीचंड उत्सव, असम में बिहू (नयी फसल का पर्व) तथा महाराष्ट्र में इस दिन को गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगल आक्राताओं को परास्त कर इसी दिन भगवा ध्वज लहराकर हिंद साम्राज्य की नींव रखी थी। दक्षिण भारतीयों की एक अन्य मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचार से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी।
इस वर्ष भारतीय नवसंवत्सर (विक्रमी संवत 2075) का शुभारम्भ 18 मार्च से हो रहा है। तो आइये! मां शक्ति की आराधना के शुभ भाव के साथ भारतीय नववर्ष का स्वागत करें ताकि हमारी युवा पीढ़ी भारत की अमूल्य परम्पराओं की वैज्ञानिकता को जानकर उनका अनुसरण कर सके।
मां दुर्गा की उपासना का विधान
इसे सुखद संयोग कहें या हमारे ऋषियों का दूरदर्शी चिंतन कि उन्होंने चैत्र मास के इस संधिकाल को मां शक्ति की आराधना से जोडक़र देवत्वपूर्ण बना दिया। साधना की इस अमृत बेला में शक्ति की देवी मां दुर्गा की उपासना का विधान है। मार्कण्डेय पुराण के अंश दुर्गासप्तशती में मां दुर्गा का महात्म्य विस्तार से वर्णित है। दुर्गा का शाब्दिक अर्थ है दुर्ग यानी किला। अर्थात उनके दुर्ग की छत्रछाया सारे दुख-दुर्गुण, कष्ट-पीड़ा सभी दूर कर देती है मगर मां दुर्गा के दुर्ग में प्रवेश कर पाना सबके लिए संभव नहीं। उसमें निष्कपट व निश्छल मनुष्य को ही प्रवेश मिल सकता है। मां दुर्गा ने अनेक असुरों को मारकर प्रतीकात्मक रूप से यह संदेश दिया कि महिषासुर, धूम्र लोचन, चंड-मुंड, शुंभ-निशुम्भ, मधु-कैटभ आदि असुर हमारे भीतर स्थित आलस, लालच और घमंड जैसी दुष्प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं, जो हमें पतन की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।
मां आद्यशक्ति के इस कथाप्रसंग में श्री विष्णु के कान के मैल से मधु व कैटभ दैत्यों की उत्पत्ति बताई गई है। यह प्रसंग इस बात का संकेत है कि आलस्य व्यक्ति का सर्वाधिक निकटस्थ शत्रु है। कोई विष्णु जैसा महान क्यों न बन जाए पर आलसी होने पर उसका अपना शरीर ही उसका शत्रु बन जाता है।
इसी तरह महादैत्य रक्तबीज का भी प्रसंग आता है, जिसके रक्त की हर बूंद से एक महादैत्य पैदा हो जाता था। इस प्रसंग का संदेश यह है कि जब सज्जन लोग जरूरत से ज्यादा सरल हो जाते हैं तो समाज में दुष्ट लोगों की वृद्धि होने लगती है। प्रत्येक व्यक्ति के अंतस में दो प्रकार की वृत्तियां होती है- दैवी और आसुरी। हमारी बुरी आदतें आसुरी वृत्ति हैं जबकि अच्छाइयां दैवी वृत्ति। इसी कारण दुर्गा सप्तशती में मां दुर्गा से प्रार्थना की गयी है कि हे मां! मेरे भीतर सद्ज्ञान की ज्योति जलाकर इसे मिटाओ। इस तरह मां दुर्गा का चरित्र तमाम दैवीय शिक्षा-प्रसंगों से भरा पड़ा है। बस जरूरत है, इसे समझने की।