Ramrajya: जानें क्या रामराज्य के मूल में भरत थे

Ramrajya: रामजी के सांवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए, उनके कमल समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई।

Newstrack :  Network
Update: 2024-05-29 05:41 GMT

Ramrajya

Ramrajya: राजाविहीन राज्य को राजाधिराज युवराज मिले हैं।राजाधिराज युवराज कह ही दिया है तब मुझे उस समय का स्मरण हो रहा है,जब चौदह वर्ष वनवास अवधि पूर्ण कर दिग्विजय करके प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटकर आए,और गुरु वशिष्ठादि ब्राह्मणों के समूह के समूह,महादेव के साथ समस्त देवताओं के जूथप-जूथ उनका राज्यारोहण सम्पन्न करा रहे हैं।महारानी सर्वश्रेयस्करीं सियाजू के संग राजाधिराज राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुए हैं। समीप में लक्ष्मण हैं, चरणों के समीप वानराकार विग्रह पुरारी श्रीहनुमंतलालज्यू हैं, शत्रुघ्न हैं, तीनों माताएँ हैं, प्रजाजन हैं किंतु श्रीरघुनाथ जी अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते नहीं अघाते हैं,वे भरत भैय्या कहीं नहीं दिखाई दे रहे। रामजी के नेत्र वल्गित हो इधर-उधर घूम रहे हैं,नेत्रों के गोलक विचलित हो दशों दिशाओं में जैसे गति कर रहे हैं,जैसे कि कुछ खोज रहे हैं।

लखनलालज्यू ने प्रभु के विचलित नेत्रों को सर्वप्रथम अनुभव किया।उसी समय श्रीहनुमान जी की ओर लखनलाल की दृष्टि गई,लक्ष्मण आश्चर्य से भर गए कि श्रीहनुमान भी रामजी की ही भांति कुछ खोज रहे हैं।लखनलाल ज्यू का राघवेन्द्र से कुछ पूछने का साहस नहीं होता,किंतु इतने अधीर हो गए कि श्रीहनुमानजी से पूछ ही लिया कि हे हनुमंत आप किसे खोज रहे हैं और आप ही सी दशा रघुनाथ जी की भी हो रही है,क्या कारण है?तब हनुमानजी लक्ष्मण से कहते हैं मैं भरत भैया को खोज रहा हूँ।हमारे प्रभु का राज्यारोहण हो रहा है,सब देवता, नर-नाग, प्रजाजन, विप्रदेव सम्मुख हैं,हर्षोल्लास हो रहा है, ऐसे उत्सव में भरत भैय्या कहाँ हैं,कहां छुपे बैठे हैं। लखनलाल ने कहा,हे हनुमंत! आप राघवेन्द्र से ही क्यों नहीं पूछ लेते।

तब हनुमानजी राघवेन्द्र के कानों के सम्मुख अपना मुख लगाकर पूछ ही लिये,हे प्रभु! मैं जानता हूँ कि आप क्यों विचलित हैं,आपका चित्त क्यों इतना अधीर हुआ है,क्योंकि आप भरत भैया को खोज रहे हैं।तब हमारे रघुनाथ जी ने हनुमानजी को उत्तर दिया कि,मैं इसलिए अधीर नहीं हूँ कि भरत कहाँ है,क्योंकि मैं जानता हूँ कि भरत कहाँ है! हे हनुमान! यहाँ राजसभा में सब मेरे सम्मुख हैं। और भरत राजगद्दी के पीछे राज्यछत्र को अपने हाथों में पकड़े स्थिर खड़ा है।भरत जैसे निस्पृही, गुरुनिष्ठ, संतनिष्ठ, सुहृद्, विनम्रमूर्ति के हाथों में राजछत्र हो,मेरे सिर के ऊपर वरदहस्त जैसा छत्र हो तो ही रामराज्य की स्थापना हो सकती है।है हनुमंत! मेरे विचलित-अधीर होने का एकमात्र कारण यही है कि,ये राज्यारोहण, राजसिंहासन पर बैठने का ये कर्मकांड, विधियाँ शीघ्र पूर्ण क्यों नहीं होती,ताकि मैं भरत को अपने हृदय से लगा सकूँ,उसे अपने अंक में भरकर अनवरत् प्रेम कर सकूं,मुझे उसे गले लगाने की शीघ्रता है।

तब हनुमानजी ने राजगद्दी के पीछे देखा,वहाँ नेत्रों में अश्रुधारा लिए भरत जी सिसक सिसक रहे हैं।राज्यारोहण की सब विधियाँ पूर्ण हुईं,भरत के हाथों से छत्र लेकर श्रीहनुमान जी ने लखन भैया के हाथों में छत्र पकड़ा भरतलालज्यू को श्रीराम के सन्मुख खड़ा कर दिया। भरत को सामने देखते ही हमारे रामजी की ठीक वैसी ही दशा हो गई,जैसे अपने खोये हुए बछड़े को पाकर गइया की दशा हो जाती है,बछड़े को चाट-चाटकर वत्सला गाय के नेत्रों से अजस्र अश्रुधारा बहने लगती है।ऐसे ही हमारे रघुनाथ जी नेत्र विह्वल हो गए,अश्रुधार फूट पड़ी और भरत भैया चरणों में लोटपोट करने लगे।भाव से भरकर तुलसी लिखते हैं-

परे भूमि नहिं उठत उठाए।

बर करि कृपासिंधु उर लाए।।

स्यामल गात रोम भए ठाढ़े।

नव राजीव नयन जल बाढ़े।।

भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं।

तब कृपा-सिंधु श्रीराम जी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया।रामजी के सांवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए, उनके कमल समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई।

राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।

अतिप्रेम हृदय लगाई अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुवन धनी।।

प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।

जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।

कमल के समान नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है।

सुंदर शरीर पुलकावली अत्यन्त शोभायमान हो रही है।

त्रिलोकी के स्वामी श्रीराम जी अपने छोटे भैया भरतजी को अत्यन्त प्रेम से मिल रहे हैं।

हृदय से भरतजी को लगाकर प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती है।मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिल रहे हैं और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हो रहे हैं।सोचिए हनुमानजी की क्या दशा हो रही है। श्रीहनुमान भरत जी के चरणों में लोटपोट कर रहे हैं और बार-बार प्रभु श्रीराम को एकटक निहारते हुए जैसे जड़ हो गए हैं। यही भावदशा आज हम सभी की है। हे रघुनाथ, ये भावदशा अनंतकाल के लिए स्थिर हो जाय, समय रुक जाये, सूर्य-चंद्र की गति टर जाय, भक्त यही चाहते हैं और आप तो भक्तवत्सल हैं।

Tags:    

Similar News