Ramayan Katha: क्या निषादराज और वशिष्ठ की भेंट चित्रकूट में हुई
Ramayan Katha: जब भरतजी राम - सखा सुनते ही रथ से उतरकर उससे मिलने को सप्रेम आगे बढ़े और उसे दंडवत करते देखकर उन्होंने छाती से लगा लिया
Ramayan Katha: निषादराज गुह ने श्रृंगवेरपुर के प्रथम मिलन के अवसर पर मुनिवर वशिष्ठजी को दंडवत प्रणाम किया था । यथा-
देखि दूरि ते कहि निज नामू।
कीन्ह मुनीसहि दंड प्रणामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा।
भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ॥
परंतु श्रीवसिष्ठजी ने निषादराज का स्पर्श नहीं किया। उन्होंने उसको श्रीरघुनाथजी का प्रिय जानकर आशीर्वाद मात्र दे दिया । जब भरतजी राम - सखा सुनते ही रथ से उतरकर उससे मिलने को सप्रेम आगे बढ़े और उसे दंडवत करते देखकर उन्होंने छाती से लगा लिया और उसके इस प्रेम पूर्ण व्यवहार की देवता लोग भी भूरि-भूरि प्रशंसा एवं सुहृदय समर्थन करने लगे ।तब यह सब देख - सुनकर वशिष्ठजी के मन में यह लालसा जाग उठी कि अब जब कभी संयोग लगेगा , तब मैं अपनी इस कमी की पूर्ति अवश्य करूंगा । वे मन ही मन सोचने लगे ,, यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। अतएव मुझे भी इसके साथ स्पर्शास्पर्श का भेद रखना उचित नहीं था । फलत: जिस समय श्रीचित्रकूट पर्वत पर निषादराज पर्णकुटी से श्रीराम- लक्ष्मण के साथ श्रीवशिष्ठजी के स्वागत के लिए लौटे और दोनों भाइयों ने गुरु को प्रणाम कर लेने पर निषादराज गुह भी सेवक के नियम अनुसार प्रणाम करने लगे ।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।
कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा ॥
तब श्रीवशिष्ठजी को अवसर मिल गया । उस समय निषादराज ने यह सोचा कि श्रीगुरुजी मुझे स्पर्श नहीं करते,, इसलिए मुझे दूर से ही दंडवत करना चाहिए और यह सोचकर उन्होंने श्रीवशिष्ठजी को दूर से ही दंडवत किया। परंतु अब की बार श्रीवशिष्ठजी क्यो चूकने लगे । उन्होंने दौड़कर निषादराज को जबरदस्ती ह्रदय से लगा लिया और इस प्रकार उन्होंने श्रृंगवेरपुर में उत्पन्न हुई लालसा तथा त्रुटी पूरी की ।उस समय वे ही देवता गण , जो श्रृंगवेरपुर में इस मर्म को जान चुके थे। श्री राम भजन (भक्ति ) के प्रभाव को प्रकट देखकर आकाश से फूल बरसाते हुए यह गाने लगे कि इस निषाद से जाति में कोई नीचा नहीं है-
जासु छाह छुइ लेइअ सीचा।
जिसकी परछाई छू जाने पर स्नान किया जाता है , उधर वशिष्ट जी से जाति और कुल में कोई बड़ा नहीं हैं। वे साक्षात ब्रह्मा के सुपुत्र है।,फिर भी वे रामभक्त के नाते निषाद से श्रीलक्ष्मणजी की अपेक्षा अधिक सम्मान पूर्वक मिल रहे हैं ।यह सुसंयोग सर्वांतर्यामी प्रभु श्रीरघुनाथजी की कृपा - प्रेरणा से ही घटित हुआ । इधर परम भागवत श्रीवशिष्ठजी की रुचि पूर्ण हुई । क्योंकि राम सदा सेवक रूचि राखी"इधर निषाद राज के हृदय में भी यह बात निकल गई कि गुरुजी मुझको स्पर्श से बचाते हैं।