Bhagwat Gita Gyaan: दृष्टि बदलती है दर्शन
Bhagwat Gita Gyaan: संसार में जो जड़ता, परिवर्तनशीलता, अदिव्यता दीखती है, वह वस्तुत: दिव्य विराट् रूप की ही एक झलक है, एक लीला है।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥११।२०॥
हे महात्मन् ! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक व्यथित व्याकुल हो रहे हैं। देखने, सुनने और समझने में आने वाला सम्पूर्ण संसार भगवान् के दिव्य विराट् रूप का ही एक छोटा-सा अंग है। संसार में जो जड़ता, परिवर्तनशीलता, अदिव्यता दीखती है, वह वस्तुत: दिव्य विराट् रूप की ही एक झलक है, एक लीला है। विराट् रूप की जो दिव्यता है, उसकी तो स्वतन्त्र सत्ता है, पर संसार की जो अदिव्यता है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
अर्जुन को तो दिव्यदृष्टिसे भगवान् का विराट् रूप दीखा, पर भक्तोंको भावदृष्टि से यह संसार भगवत्स्वरूप दीखता है—'वासुदेव: सर्वम्।’ तात्पर्य है कि जैसे बचपन में बालक का कंकड़-पत्थरों में जो भाव रहता है, वैसा भाव बड़े होने पर नहीं रहता; बड़े होने पर कंकड़-पत्थर उसे आकृष्ट नहीं करते, ऐसे ही भोगदृष्टि रहने पर संसार में जो भाव रहता है, वह भाव भोगदृष्टिके मिटने पर नहीं रहता।
जिनकी भोगदृष्टि होती है,उनको तो संसार सत्य दीखता है, पर जिनकी भोगदृष्टि नहीं है, ऐसे महापुरुषों को संसार भगवत्स्वरूप ही दीखता है। जैसे एक ही स्त्री बालक को माँके रूप में, पिता को पुत्री के रूप में,पति को पत्नी के रूप में और सिंह को भोजन के रूप में दीखती है, ऐसे ही यह संसार 'चर्मदृष्टि’ से सच्चा, 'विवेक दृष्टि’ से परिवर्तनशील, 'भावदृष्टि’ से भगवत्स्वरूप और 'दिव्य दृष्टि’ से विराट् रूप का ही एक छोटा-सा अंग दीखता है