Ganesh Visarjan: गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है, कैसे शुरू हुई ये परंपरा
Ganesh Visarjan: क्या आप जानते हैं कि शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है।
Ganesh Visarjan: यह यथार्थ है कि जितने लोग भी गणेश विसर्जन करते हैं उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होगा कि यह गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है और इसका क्या लाभ है? हमारे देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि देखा देखी में एक परंपरा चल पड़ती है जिसके पीछे का मर्म कोई नहीं जानता लेकिन भयवश वह चलती रहती है। शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है।
गोबर से गणेश एकमात्र प्रतीकात्मक है। माता पार्वती द्वारा अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को उत्पन्न करने का। चूंकि गाय का गोबर हमारे शास्त्रों में पवित्र माना गया है। इसीलिए गणेश जी का आह्वाहन गोबर की प्रतिमा बनाकर ही किया जाता है। इसीलिए एक शब्द प्रचलन में चल पड़ा-गोबर गणेश। इसलिए पूजा, यज्ञ, हवन इत्यादि करते समय गोबर के गणेश का ही विधान है। जिसको बाद में नदी या पवित्र सरोवर या जलाशय में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया। अब आईये समझते हैं कि गणेश जी के विसर्जन का क्या कारण है?
गणेश विसर्जन का कारण
भगवान वेदव्यास ने जब शास्त्रों की रचना प्रारम्भ की तो भगवान ने प्रेरणा कर प्रथम पूज्य बुद्धि निधान गणेश जी को वेदव्यास जी की सहायता के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भेजा। वेदव्यास जी ने गणेश जी का आदर सत्कार किया। उन्हें एक आसन पर स्थापित एवं विराजमान किया। वेदव्यास जी ने इसी दिन महाभारत की रचना प्रारम्भ की या "श्री गणेश" किया। वेदव्यास जी बोलते जाते थे। गणेश जी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे। लगातार दस दिन तक लिखने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन इसका उपसंहार हुआ।
भगवान की लीलाओं और गीता के रसपान करते करते गणेश जी को अष्टसात्विक भाव का आवेग हो चला था। जिससे उनका पूरा शरीर गर्म हो गया था। गणेश जी अपनी स्थिति में नहीं थे। गणेश जी के शरीर की ऊष्मा का निष्कीलन या उनके शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए वेदव्यास जी ने उनके शरीर पर गीली मिट्टी का लेप किया। इसके बाद उन्होंने गणेश जी को जलाशय में स्नान करवाया, जिसे विसर्जन का नाम दिया गया।
बाल गंगाधर तिलक जी ने अच्छे उद्देश्य से यह शुरू करवाया। पर उन्हें यह नहीं पता था कि इसका भविष्य बिगड़ जाएगा। गणेश जी को घर में लाने तक तो बहुत अच्छा है, परंतु विसर्जन के दिन उनकी प्रतिमा के साथ जो होता है। वह असहनीय बन जाती है।
आजकल गणेश जी की प्रतिमा गोबर की न बना कर लोग अपने रुतबे , पैसे , दिखावे और अखबार में नाम छापने से बनाते हैं। जिसके जितने बड़े गणेश जी, उसकी उतनी बड़ी ख्याति, उसके पंडाल में उतने ही बड़े लोग और चढ़ावे का तांता। इसके बाद यश और नाम अखबारों में अलग।
सबसे ज्यादा दुःख तब होता है जब कस्टर अट्रैक्ट करने के लिए लोग DJ पर फिल्मी अश्लील गाने और नचनियां को नचवाते हैं। आप विचार करके हृदय पर हाथ रखकर बतायें कि क्या यही उद्देश्य है गणेश चतुर्थी या अनंत चतुर्दशी का? क्या गणेश जी का यह सम्मान है? इसके बाद विसर्जन के दिन बड़े ही अभद्र तरीके से प्रतिमा की दुर्गति की जाती है।
वेदव्यास जी का तो एक कारण था विसर्जन करने का लेकिन हम लोग क्यों करते हैं यह बुद्धि से परे है। क्या हम भी वेदव्यास जी के समकक्ष हो गए? क्या हमने भी गणेश जी से कुछ लिखवाया? क्या हम गणेश जी के अष्टसात्विक भाव को शांत करने की हैसियत रखते हैं?
विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं
गोबर गणेश मात्र अंगुष्ठ के बराबर बनाया जाता है और होना चाहिए, इससे बड़ी प्रतिमा या अन्य पदार्थ से बनी प्रतिमा के विसर्जन का शास्त्रों में निषेध है। और एक बात और गणेश जी का विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं है। यह मात्र अपने स्वांत सुखाय के लिए बिना इसके पीछे का मर्म, अर्थ और अभिप्राय समझे लोगों ने बना दिया। एकमात्र हवन, यज्ञ, अग्निहोत्र के समय बनने वाले गोबर गणेश का ही विसर्जन शास्त्रीय विधान के अंतर्गत आता है।
प्लास्टर ऑफ पेरिस से बने, चॉकलेट से बने, केमिकल पेंट से बने गणेश प्रतिमा का विसर्जन एकमात्र अपने भविष्य और उन्नति के विसर्जन का मार्ग है। इससे केवल प्रकृति के वातावरण, जलाशय, जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र, भूमि, हवा, मृदा इत्यादि को नुकसान पहुँचता है। इस गणेश विसर्जन से किसी को एक अंश भी लाभ नहीं होने वाला। हाँ, बाजारीकरण, सेल्फी पुरुष, सेल्फी स्त्रियों को अवश्य लाभ मिलता है। लेकिन इससे आत्मिक उन्नति कभी नहीं मिलेगी। इसीलिए गणेश विसर्जन को रोकना ही एकमात्र शास्त्र अनुरूप है।
कैसे किया जाए विसर्जन?
चलिए माना कि आप अज्ञानतावश डर रहे हैं कि इतनी प्रख्यात परंपरा हम कैसे तोड़ दें तो करिए विसर्जन। लेकिन गोबर के गणेश को बनाकर विसर्जन करिए और उनकी प्रतिमा एक अंगुष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए।
लम्बोदराय वै तुभ्यं सर्वोदरगताय च।
अमायिने च मायाया आधाराय नमो नमः॥
भावार्थ:-
तुम लम्बोदर हो, सबके पेट में जठर रूप में निवास करते हो, तुम पर किसी का भ्रम काम नहीं करता और तुम ही माया के आधार हो। आपको बार-बार नमस्कार।
गिरीश पाण्डे