Shree Ram Janam Katha: जानिए प्रभु श्री राम का जन्म रहस्य
Shree Ram Janam Katha: भगवान् की मधुर मूर्ति एवं चरित्रों में मनके आसक्त हो जाने पर उसकी निर्मलता और एकाग्रता सहज में ही सिद्ध हो जाती है। निर्मल एवं एकाग्र चित्त ही भगवान् के अचिन्त्य रूप के चिन्तन में समर्थ होता है।
Shree Ram Janam Katha: जिस समय संसार में दुराचार, दुर्विचार का परितः प्रसार होने लगता है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धैर्य, न्याय आदि मानवोचित सद्गुणों का अपमान होने लगता है, दम्भ का ही साम्राज्य तथा वेद-शास्त्रोक्त वर्णाश्रम धर्म का विलोप होने लगता है, दैत्य-दानवों या दैत्यप्राय कुपुरुषों से धरा व्याकुल हो जाती है, सत्पुरुष तथा देवगण अनीति से उद्विग्न हो उठते हैं, उस समय सर्वपालक भगवान् किसी रूप में प्रकट होकर श्रुति-सेतुका पालन करते और अपने मनोहर, मंगलमय, परम पवित्र चरित्रों का विस्तार करके प्राणियों के लिये मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।
अभिज्ञों का मत है कि यदि भगवान् का विशुद्ध, सत्त्वमय, परम मनोहर, मधुर स्वरूप प्रकट न होता तो अदृश्य, अग्राह्य, अव्यपदेश्य परब्रह्म के साक्षात्कार की बात ही जगत् से मिट जाती। भगवान् की मधुर मूर्ति एवं चरित्रों में मनके आसक्त हो जाने पर उसकी निर्मलता और एकाग्रता सहज में ही सिद्ध हो जाती है । निर्मल एवं एकाग्र चित्त ही भगवान् के अचिन्त्य रूप के चिन्तन में समर्थ होता है। जैसे अंजन द्वारा शुद्ध नेत्र से सूक्ष्म वस्तु का परिज्ञान सुगमता से हो जाता है, वैसे ही भगवच्चरित्र एवं उनके मधुर स्वरूप के परिशीलन से निर्मल होकर चित्त सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भगवदीय रहस्यों को समझ लेता है।
इसके अतिरिक्त अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को प्रेम योग-प्रदान करने के लिये भी प्रभु के लीला-विग्रह का आविर्भाव होता है। इन्हीं सब भावों को लेकर मधुमास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र का जन्म हुआ।
अनन्तकोटिब्रह्माण्ड-नायक, भगवान् सर्वान्तरात्मा, सर्वशक्तिमान् की भृकुटि के संकेत मात्र से उनकी माया शक्ति विश्व प्रपञ्च का सर्जन, पालन तथा संहार करती है। जैसे अयस्कान्त ( चुम्बक ) के सांनिध्य से लौह में हलचल होती है, वैसे ही भगवान् के सांनिध्य मात्र से माया शक्ति को चेतना प्राप्त होती है। जैसे झरोखों में सूर्य-किरणों के सहारे निरन्तर परिभ्रमण करते हुए अपरिगणित त्रसरेणु दिखाई देते हैं, वैसे ही प्रकृति पारदृश्वा लोकोत्तर-पुरुष-धैरियों को भगवान् के सन्निधान में अनन्त विश्व दिखाई देते हैं –
यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति ।।
भगवान् अपने परमार्थिक रूप से निराकार, निर्विकार, निष्कल, निरीह, निर्गुण होते हुए भी माया शक्ति-युक्त रूप से अनादिबद्ध, स्वांशभूत जीवों पर कृपा करके उनके कल्याणार्थ विश्व के सर्जन एवं संहारादि लीलाओं में प्रवृत होते हैं। मनीषी बड़े कुतूहल से सकल विरुद्ध धर्माश्रय भगवान् के इस कौतुक को देखकर कहते हैं –
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभो वदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुद्ध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते तथा ।।
अर्थात् – हे नाथ ! विज्ञजन निर्गुण, निरीह, अविक्रिय से ही इस विविध वैचित्र्योपेत विश्व का जन्म, स्थिति तथा संहार बतलाते हैं। भला जो निरीह तथा सर्वथा निष्क्रिय है वही निरन्तर चाञ्चल्य पूर्ण विश्वकी सृष्टि करने वाला है – यह कैसे ? परंतु भगवान् के ईश्वर तथा ब्रह्म इन दो रूपों में इन विरुद्ध धर्म के सामञ्जस्य होने में कोई भी आपत्ति नहीं है। मायायुक्त ऐश्वररूप में विश्व निर्माण के उपयुक्त निखिल क्रियाएँ हैं, परंतु माया रहित ब्रह्मरूप में निरी निरीहता एवं निष्क्रियता ही है। अर्थात् माया शक्ति के सहारे होने वाले समस्त व्यवहारों का मायाधिष्ठान, स्वप्रकाश, विशुद्ध ब्रह्म में उपचार होता है। अस्तु, वही व्यापक ब्रह्म निरञ्जन, निर्गुण, विगत-विनोद, भक्त प्रेमवश श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्ररूप में श्री कौसल्याम्बाके मंगलमय अंग में व्यक्त होता है ।
निखिल ब्रह्माण्ड-मण्डल जिसके परतन्त्र है, वह मायापति भगवान् भास्वती भगवती श्री कृपा देवी के पराधीन है और वह अनुकम्पा महारानी भी दीनता के परतन्त्र है। भगवान् के यहाँ दीनों की खूब सुनवायी होती है ।
जगद्विधेयं ससुरासुरं ते भवान् विधेयो भगवन् कृपायाः ।
सा दीनताया नमतां विधेया ममास्त्ययत्नोपनतैव सेति ।।
जो दीनता अन्यत्र अवहेलना की दृष्टि से देखी जाती है, वही भगवान् के यहाँ परमादरणीया है। शोक, मोह, जरा, मरण, आधि-व्याधि, दारिद्र्य-दुःखों से उत्पीडित प्राणियों के यहाँ दीनता की कमी नहीं है। उसी का दुखड़ा सर्वत्र गाया जाता है, परंतु दुर्भाग्यवश वह गाया जाता है ऐसी जगह जहाँ कुछ मिलना-जुलना तो दूर रहा, फूटे मुहँ से सहानुभूति का भी एक शब्द नहीं निकलता। वहाँ तो दीन को अवहेलनाओं का ही पात्र बनना पड़ता है। परंतु ‘दीनानाथ’ होने के नाते भगवान् दीनता के ग्राहक हैं। उनके सामने दीनता प्रकट करने में तो कृपणता न होनी चाहिये। जैसे संघर्ष के द्वारा व्यापक अग्नि का सगुण साकार रूपमें प्राकट्य होता है, किंवा शैत्य के सम्बन्ध से जल का ओला हो जाता है, वैसे ही प्रेमियों के प्रेम-प्राखर्य से विशुद्ध सत्त्वमयी श्रीकौसल्याम्बा से पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान् का प्राकट्य होता है। यज्ञपुरुषद्वारा सर्पित चरुके विभागानुसार भगवान् का ही श्रीराम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्नरूप में आविर्भाव होता है।
(संकठा प्रसाद द्विवेदी)