जानिए क्या है शिव चार महारात्रियां, मंगल मंगल
Shiv Maharatri: कालरात्रि का दूसरा नाम शिवरात्रि है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व शिव - पार्वती के पावन परिणय का मांगलिक पर्व है। शिव ( शंकर ) एवं शक्ति ( पार्वती ) पृथक नहीं है अपितु एक ही है।
Shiv Maharatri: दुर्गा सप्तशती में चार महत्वपूर्ण रात्रियों का उल्लेख है -
“कालरात्रिर्महारात्रि: मोहरात्रिश्चदारुणा"
अर्थात् कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि एवं दारुणरात्रि।
कालरात्रि का दूसरा नाम शिवरात्रि है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व शिव - पार्वती के पावन परिणय का मांगलिक पर्व है। शिव ( शंकर ) एवं शक्ति ( पार्वती ) पृथक नहीं है अपितु एक ही है। शक्ति के बिना शिव सिर्फ 'शव' बन जाता है, तो शिव अर्थात् कल्याण-भाव के बिना शक्ति विध्वंसक बन जाती है। अतः इन दोनों के सह अस्तित्व एवं संतुलन को दर्शाता है - शिव का अर्द्धनारीश्वर रूप। यह एक सुव्यवस्थित मनोविज्ञान है - प्रकृति-पुरुष का एवं भौतिक - आध्यात्मिक तत्त्वों का इसमें मंजुल समन्वय है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं -
‘रूद्राणां शंकरचास्मि'
अर्थात् और एकादश रूद्र में मैं शंकर हूं।
शिव पुराण के सात संहिताओं में 3 संहिताओं के नाम में "रूद्र" शब्द लगा हुआ है। दूसरी संहिता - रूद्र संहिता, तीसरी संहिता - शतरूद्र संहिता तथा चौथी संहिता - कोटिरुद्र संहिता है। शतरुद्र संहिता में शिवजी के विभिन्न अवतारों का वर्णन है। कोटिरुद्र संहिता में द्वादश ज्योतिर्लिंगों का विशद वर्णन है।
शिव = श कार का अर्थ है सुख एवं आनंद। इ कार का अर्थ है पुरुष। व कार का अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति।इन सबका सम्मिलित रूप ही "शिव" कहलाता है।
जो सदैव कल्याण करत हैं, वही शिव हैं। शिवलिंग प्रतीक है - विश्व ब्रह्मांड का, जिसके कण-कण में भगवान शिव का वास है। स्कंद पुराण में कहा गया है -
आकाशं लिङ्गमित्याहु: पृथ्वी तस्य पीठिका।
आलय: सर्वदेवानां लयनाल्लिङ्गमुच्चते।।
अर्थ - आकाश लिंग है, पृथ्वी उसकी पीठिका है। सभी देवताओं का आलय है। इसमें सब का लय होता है, इसलिए उसे लिङ्ग कहते हैं।
लिङ्ग-अभिषेक का तात्पर्य यह है कि हम विश्व - वसुधा के साथ समुन्नत कर रहे हैं। अपने कर्मों को विविध रूपों में शिवरूपी ब्रह्मांड को अर्पण कर रहे हैं। यह समर्पण की भावना ही हमें शिव की ओर अर्थात् कल्याण की ओर ले जाती है।
महादेव शिव के दिव्य रूप का विश्लेषण
शिव का स्वरूप बहुत ही प्रतीकात्मक एवं प्रेरणादायक है। शिव जी के ललाट पर शोभित चंद्रमा शांति एवं स्निग्धता का प्रतीक है। मस्तक पर सुशोभित गंगा पवित्रता एवं शीतलता का प्रतीक है। शिव के हस्त में स्थित डमरु संगीत एवं उल्लास के नाद का प्रतीक है। जब मानवीय चेतना सुप्त तथा निराश हताश होने लगती है, तब शिव का डमरू उसे इस दु:खद स्थिति से उबारता है। अतः डमरु जागरण का भी प्रतीक है।शिवजी का त्रिशूल मनुष्य के त्रयताप को भेदकर उसका उच्छेदन करने वाला है। शिव जी का तृतीय नेत्र सूक्ष्म-दृष्टि एवं दिव्य अंतःकरण की ज्योति का प्रतीक है।
आज के जमाने के अनुसार शिवजी सर्कस के रिंग-मास्टर हैं। जिस प्रकार सर्कस में रिंग-मास्टर बाघ और बकरी दोनों को एक स्थान पर बैठाता है, ठीक इसी प्रकार शिव जी का पूरा परिवार ही समन्वय का अद्भुत उदाहरण है, जहां शिवजी के साथ रूद्रगण, भूत- प्रेत, सांप, मोर, चूहा, बैल आदि सभी प्राणी आपस में तालमेल के साथ रहते हैं। हमें भी भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव वाले लोगों के साथ तालमेल बैठा कर इनसे सीख लेकर जीवन - व्यतीत करना चाहिए।
वन्दे महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम्।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराजसमुद्भवं शंकरमादिदेवम्।।
अर्थ - जो परमानंदमय हैं, जिनकी लीलाएं अनंत हैं, जो ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, सर्वव्यापक एवं महान हैं, गौरी के प्रियतम तथा स्वामी कार्तिक और विघ्नराज गणेश को उत्पन्न करने वाले हैं, उन आदिदेव शंकर की हम सब को वंदना करना चाहिए।