Mahabharat Ke Pramukh Patra: महाभारत के पात्र जिनके बिना युद्ध की कल्पना नहीं हो सकती, इनमें से एक आज भी है जिंदा

Mahabharat Ke Pramukh Patra Kaun Kaun Hai: महाभारत के पात्र:महाभारत के इन पात्रों का नाम सुना होगा, लेकिन इनके जीवन से क्या शिक्षा मिलती है जानते है...

Update: 2024-09-10 12:52 GMT

Mahabharat Ke Pramukh Patra Kaun Kaun Hai: महाभारत महाकाव्य और पाचवां वेद है। इस ग्रंथ में धर्म की महत्ता का वर्णन है। इस महाकाव्य के प्रमुख पात्रों में श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम , द्रौपदी, भीष्म के नाम तो सबकी जुबान है इनके अलावा भी और पात्र है जो प्रमुख है। उन पात्रों में  कर्ण, अश्वत्थामा, बर्बरीक, द्रौपदी, संजय विदुर  कई  पात्र है जिनके बिना महाभारत की कल्पना अधूरी है। 

हाभारत के रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। जानें, महाभारत के उन प्रमुख पात्रों के बारे में जिनके बिना ये कथा अधूरी है।  महाभारत में  हजारों किरदारों में ये  कुछ नाम जिनका महाभारत के युद्ध से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंध था।


महाभारत में कर्ण कौन थे

पांडवों के बड़े भाई कहें तो गलत नहीं होगा, क्योंकि कर्ण  सूर्यदेव एवं कुंती के पुत्र थे। कर्ण का पालन-पोषण अधिरथ और राधा ने किया था। वो दानवीर कर्ण के नाम से आज तक जाने जाते है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुए थे। इंद्र ने उनसे ये कवच और कुंडल दान में मांग लिए थे। छल करने के कारण बदले में इंद्र को अपना अमोघ अस्त्र देना पड़ा था। 'अंग' देश के राजा कर्ण की पहली पत्नी का नाम वृषाली था। वृषाली से उसको वृषसेन, सुषेण, वृषकेत नामक 3 पुत्र मिले। दूसरी सुप्रिया से चित्रसेन, सुशर्मा प्रसेन, भानुसेन नामक 3 पुत्र मिले। माना जाता है कि सुप्रिया को ही पद्मावती और पुन्नुरुवी भी कहा जाता था।

कर्ण महाभारत के एक अत्यंत महत्वपूर्ण और जटिल पात्र थे, जिन्हें उनकी वीरता, उदारता, और संघर्षशील जीवन के लिए जाना जाता है। उनका जीवन कई विरोधाभासों और चुनौतियों से भरा हुआ था। कर्ण परशराम के शिष्य थे, परशुराम ने उन्हें ब्राह्मण समझकर शिक्षा दी, लेकिन जब उन्हें पता चला कि कर्ण क्षत्रिय नहीं हैं, तो उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि उन्हें सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में अपनी विद्या का स्मरण नहीं होगा। कर्ण दुर्योधन के मित्र थे जिन्होंने जीवनभर मित्रता निभाई और आखिरी सांस तक सच जानने के बाद भी पांडवों के हाथ वीरगति  प्राप्त किया, लेकिन दुर्योधन के प्रति वफादारी नही छोड़ी।


महाभारत में कौन थे  अश्वत्थामा

महाभारत के एक विवादास्पद  लेकिन प्रमुख पात्र थे, जो अपनी वीरता, अमरत्व, और क्रोध के लिए जाने जाते हैं। वे द्रोणाचार्य और कृपी के पुत्र थे और अपने पिता के समान एक महान योद्धा और ब्राह्मण थे। उनका जीवन महाभारत की कहानी में कई महत्वपूर्ण मोड़ लाता है।  अश्वत्थामा कौरवों की ओर से लड़े थे। गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के मस्तक पर अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। यही कारण था कि उन्हें कोई मार नहीं सकता था। पिता को छलपूर्वक मारे जाने का जानकर अश्वत्थामा दुखी होकर क्रोधित हो गए और उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया जिससे युद्धभूमि श्मशान भूमि में बदल गई। यह देख कृष्ण ने उन्हें 3 हजार वर्षों तक कोढ़ी के रूप में जीवित रहने का शाप दे डाला।

अश्वत्थामा महाभारत के उन पात्रों में से हैं जिनका जीवन कई शिक्षाएं देता है। वे अजेय और शक्तिशाली होते हुए भी अपने क्रोध, प्रतिशोध, और गलत निर्णयों के कारण अपना सब कुछ खो बैठे। उनका चरित्र यह संदेश देता है कि शक्ति और अमरत्व भी व्यर्थ हो जाते हैं यदि उनका उपयोग अधर्म और अनैतिक कार्यों के लिए किया जाए। उनका श्राप और जीवन की पीड़ा इस बात का प्रतीक है कि प्रतिशोध और क्रोध केवल विनाश की ओर ही ले जाते हैं।


द्रौपदी महाभारत में कौन थे

 सत्यवती, गांधारी और कुंती के बाद यदि किसी का नंबर आता है तो वह थीं 5 पांडवों की पत्नी द्रौपदी। द्रौपदी के लिए पांचों पांडवों के साथ विवाह करना बहुत कठिन निर्णय था। सामाजिक परंपरा के विरुद्ध उसने यह किया और दुनिया के समक्ष एक नया उदाहरण ही नहीं रखा बल्कि उसने अपना सम्मान भी प्राप्त किया और खुद की छवि को पवित्र भी बनाए रखा। द्रौपदी की कथा और व्यथा पर कई उपन्यास लिखे जा चुके हैं।वो अपनी साहस, विवेक, और दृढ़ संकल्प के लिए जानी जाती हैं। उनका जीवन महाभारत की कहानी के कई महत्वपूर्ण घटनाओं के केंद्र में रहा और उनके साथ घटी घटनाएं महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बनीं।

द्रौपदी को इस महाभारत युद्ध का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। द्रौपदी ने ही दुर्योधन को इंद्रप्रस्थ में कहा था, 'अंधे का पुत्र भी अंधा।' बस यही बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह धंस गई थी। यही कारण था कि द्यूतक्रीड़ा में उनसे शकुनि के साथ मिलकर पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए राजी कर लिया था। द्यूतक्रीड़ा या जुए के इस खेल ने ही महाभारत के युद्ध की भूमिका लिख दी थी, जहां द्रौपदी का चीरहरण हुआ था।

द्रौपदी का जन्म राजा द्रुपद की पुत्री के रूप में हुआ था। वे अग्निकुंड से उत्पन्न हुई थीं, इसलिए उन्हें "अग्निसुता" भी कहा जाता है। उनका एक भाई था, धृष्टद्युम्न, जो भी अग्निकुंड से उत्पन्न हुए थे और द्रोणाचार्य के वध के उद्देश्य से पैदा हुए थे।


महाभारत में कौन थे बर्बरीक

बर्बरीक महाभारत के एक वीर और अद्भुत योद्धा थे, जो अपने अपार बल और अद्वितीय युद्ध कौशल के लिए जाने जाते हैं। वे गदाधारी भीमसेन के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र थे। बर्बरीक का जीवन और उनका महाभारत युद्ध में योगदान अद्वितीय और प्रेरणादायक है। 

 बर्बरीक महान पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र थे। कहीं-कहीं पर मुर दैत्य की पुत्री 'कामकंटकटा' के उदर से भी इनके जन्म होने की बात कही गई है। बर्बरीक और घटोत्कच के बारे में कहा जाता है कि ये दोनों ही विशालकाय मानव थे। बर्बरीक के लिए 3 बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरव और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। यह जानकर भगवान कृष्ण ने ब्राह्मण के वेश में उनके सामने उपस्थित होकर उनसे दान में छलपूर्वक उनका शीश मांग लिया।श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के सिर को एक ऊँची पहाड़ी पर स्थापित कर दिया, ताकि वे महाभारत के युद्ध को देख सकें। इस प्रकार, बर्बरीक महाभारत के युद्ध के साक्षी बने। युद्ध के अंत में, जब उनसे पूछा गया कि युद्ध में सबसे अधिक प्रभावशाली योद्धा कौन था, तो बर्बरीक ने कहा कि केवल श्रीकृष्ण ही युद्ध के वास्तविक विजेता थे, क्योंकि उनकी रणनीति और लीला से ही युद्ध का परिणाम निर्धारित हुआ।

बर्बरीक महाभारत में निस्वार्थ बलिदान, शक्ति, और निष्ठा का प्रतीक है। उनका जीवन संदेश देता है कि महान शक्ति के साथ महान जिम्मेदारी भी आती है, और सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। उनका बलिदान यह भी सिखाता है कि कभी-कभी व्यक्तिगत इच्छाओं और शक्तियों का त्याग कर के, बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बलिदान देना पड़ता है।


महाभारत में कौन थे विदुर

विदुर महाभारत के विद्वान, धर्मपरायण, और नीतिज्ञ पात्र थे। वे कुरु वंश के महत्वपूर्ण सदस्य थे और अपने ज्ञान, नैतिकता, और सच्चाई के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध थे। विदुर को "विदुर नीति" के लिए भी जाना जाता है, जो उनके नीति शास्त्र और जीवन के सिद्धांतों का संकलन है।विदुर का जन्म महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद से हुआ था। वे धृतराष्ट्र और पांडु के सौतेले भाई थे। उनका जन्म एक दासी, परिणीति (जिसे सुद्राणी भी कहा जाता है), और वेदव्यास के संयोग से हुआ था। इसलिए, उन्हें समाज में दासीपुत्र के रूप में देखा गया और उन्हें राजा बनने का अधिकार नहीं था, भले ही वे विद्वता और नैतिकता में अपने भाइयों से श्रेष्ठ थे।

महर्षि अंगिरा, राजा मनु के बाद विदुर ने ही राज्य और धर्म संबंधी अपने सुंदर विचारों से ख्याति प्राप्त की थी। अम्बिका और अम्बालिका को नियोग कराते देखकर उनकी एक दासी की भी इच्छा हुई। तब वेदव्यास ने उससे भी नियोग किया जिसके फलस्वरूप विदुर की उत्पत्ति हुई। विदुर धृतराष्ट्र के मंत्री किंतु न्यायप्रियता के कारण पांडवों के हितैषी थे। विदुर को उनके पूर्व जन्म का धर्मराज कहा जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में इन्होंने वनवास ग्रहण कर लिया तथा वन में ही इनकी मृत्यु हुई।विदुर महाभारत में सत्य, धर्म, और न्याय का प्रतीक रहे, सत्य और धर्म के मार्ग पर चले चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो, सबसे श्रेष्ठ है। वे एक आदर्श राजनीतिज्ञ, सच्चे सलाहकार, और नीतिज्ञ थे,


महाभारत में कौन थे संजय

संजय महाभारत के विशिष्ट पात्र थे, जिन्हें उनके दिव्य दृष्टि और तटस्थ दृष्टिकोण थे। वे राजा धृतराष्ट्र के सचिव और सारथी थे, और महाभारत के युद्ध का सजीव वर्णन करने वाले प्रमुख व्यक्ति थे। संजय के पिता बुनकर थे इसलिए उन्हें सूत पुत्र माना जाता था। उनके पिता का नाम गावल्यगण था। उन्होंने महर्षि वेदव्यास से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व ग्रहण किया था अर्थात वे सूत से ब्राह्मण बन गए थे। वेदादि विद्याओं का अध्ययन करके वे धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित मंत्री भी बन गए थे।

कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना- एक अर्जुन और दूसरा संजय। यहीं नहीं, देवताओं के लिए दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी सिर्फ इन दो लोगों ने ही किया था। संजय हस्तिनापुर में बैठे हुए ही कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाते हैं। महाभारत युद्ध के पश्चात अनेक वर्षों तक संजय युधिष्ठिर के राज्य में रहे। इसके पश्चात धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती के साथ उन्होंने भी संन्यास ले लिया था। बाद में धृतराष्ट्र की मृत्यु के बाद वे हिमालय चले गए, जहां से वे फिर कभी नहीं लौटे। महर्षि अंगिरा, राजा मनु के बाद विदुर ने ही राज्य और धर्म संबंधी अपने सुंदर विचारों से ख्याति प्राप्त की थी। अम्बिका और अम्बालिका को नियोग कराते देखकर उनकी एक दासी की भी इच्छा हुई। तब वेदव्यास ने उससे भी नियोग किया जिसके फलस्वरूप विदुर की उत्पत्ति हुई। विदुर धृतराष्ट्र के मंत्री किंतु न्यायप्रियता के कारण पांडवों के हितैषी थे। विदुर को उनके पूर्व जन्म का धर्मराज कहा जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में इन्होंने वनवास ग्रहण कर लिया तथा वन में ही इनकी मृत्यु हुई।संजय का चरित्र महाभारत में सत्य की अभिव्यक्ति और तटस्थता का प्रतीक है।


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