Narad Jayanti: देवर्षि नारद जयंती

Narad Jayanti: देवर्षि नारद भक्तों के लिए भगवद् भक्ति के प्ररेणा स्रोत हैं

Report :  Kanchan Singh
Update:2024-06-01 16:24 IST

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तपः स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।

नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् ।।

प्राणीमात्र के उद्धार हेतु विविध ब्रह्माण्डों में भ्रमणशील, अज्ञानजन्य दुःखों से दुःखित मनुष्यों को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने वाले ज्ञान, भक्ति, योग के प्रणेता, दिव्यताओं के प्रसार में प्रवृत्त देवर्षि नारद के आविर्भाव दिवस "नारद जयन्ती" पर हार्दिक शुभकामनाएँ।

यही प्रार्थना करता हूँ कि देवर्षि नारद जी की वीणा की मधुर ध्वनि की भाँति आप सबका जीवन मधुरता और आनंद से भरा हो और पवित्र हरिनाम के गान से सबका मंगल एवं कल्याण हो।

वेद तथा उपनिषदों के मर्मज्ञ,

भगवान विष्णु के परम भक्त,

समस्त विद्याओं में निपुण,

तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले परम तेजस्वी देवर्षि नारद के लिए कर्मयोगेश्वर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,

"देवर्षिणां च नारद" (श्री मद्भगवद्गगीता १०/२६) अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं।

,इतना उच्च स्थान प्राप्त करने वाले श्री नारद जी ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में से एक हैं।

वह ब्रह्मा जी की गोद से उत्पन्न हुए,

(श्रीमद्भागवत महापुराण, अध्याय १२) ।

देवर्षि नारद की जीवन गाथा स्वयं ही ब्रह्मज्ञान की महिमा का बखान करती है।

श्रीमद्भागवत महापुराण (अ• ५ ) में देवर्षि नारद महर्षि वेदव्यास जी को गुह्यतम ज्ञान तथा सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं कि,

वह (देवर्षि नारद ) पूर्व जन्म में दासी पुत्र थे ।

बचपन से ही वह संतों की सेवा करने में लगे थे।उनके शील स्वभाव के कारण उन संतों की उन पर बहुत बड़ी कृपा बरसती रहती थी।

संतों के संग से उन्हें दिन-प्रतिदिन सत्संग की प्राप्ति होती रहती थी।

धीरे-धीरे भगवन्नाम के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा बढ़ने लगी।

वे अक्सर भगवान श्री कृष्ण के भजन गायन के साथ-साथ ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवों के भी गुणगान किया करते थे।

उन महान शक्तियों की कृपा से उन संतों से उन्हें गुह्यतम ज्ञान (परम प्रभु के पावन अमृत नाम व सर्व रूप का बोध ) का उपदेश प्राप्त हुआ,

जिसका स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अपने श्रीमुख से वर्णन किया है।

उस उपदेश के कारण वे माया के प्रभाव को जान सकें।

उनकी माता की मृत्यु हो जाने के पश्चात वे अकेले हो गए।

भगवत् प्राप्ति की उत्कट लालसा से वे ध्यान में बैठ गये।

परम प्रभु उनके हृदय में दर्शन की एक झलक दिखाकर अदृश्य हो गये।

उनके पुनः प्रयास करने पर भी उन्हें प्रभु के दर्शन नहीं हुए।

वे दर्शनों के लिए विकल हो उठे। तब उनके हृदय में प्रभु की वाणी प्रकट हुई।

प्रभु ने कहा कि उनके श्री (नारद ) हृदय में प्रभु को प्राप्त करने की लालसा को जागृत करने के लिए ही मैंने अपने दर्शन दिए थे।

किन्तु जिनकी वासनायें पूर्णत: शांत नहीं हो जाती हैं उनको मेरा दर्शन दुर्लभ है।

भगवान की प्ररेणा से श्री नारद जी की भक्ति धीरे -धीरे दृढ़ होती गई।

कालचक्र आने पर वे मृत्यु को प्राप्त हो गये।

क‌ई युगों के पश्चात वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

तब से वे अखंड रूप से प्रभु नाम की चर्चा करते हुए, कीर्तन करते हुए तीनों लोकों में विचरण करने लगे।

उपर्युक्त गाथा से सत्संग की महिमा स्पष्ट होती है कि परमपिता परमात्मा को तत्व से जानने का सर्वश्रेष्ठ तथा सरल साधन सत्संग ही है।

सदगुरुदेव महाराज उसी ज्ञान का क्रियात्मक बोध जिज्ञासु एवं आत्मपिपासु भक्तों को करा रहे हैं।

नारद जानें नाम प्रतापू ।

जग प्रिय हरि हरिहर प्रिय आपू ।।

देवर्षि नारद भक्तों के लिए भगवद् भक्ति के प्ररेणा स्रोत हैं।

हमें ऐसे महान भक्त से प्ररेणा लेकर अपने जीवन का उद्धार करना चाहिए,

तथा दूसरों में भी भक्ति रस की भावना जाग्रत करनी चाहिए

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