Panchatatva : संसार प्रपंच है, पंच तत्वों से निर्मित संसार
Panchatatva : हम सदैव प्रपंच में लिप्त हैं।किसी से राग है तो वह प्रिय है।किसी से द्वेष है तो वह अप्रिय है।और राग किससे है
Panchatatva : प्रपंच में फंसे लोग संसार के पार नहीं जा सकते।अब प्रश्न है कि संसार के पार जाएं तो कहां जाएं और क्यों जाएं।संसार है क्लेश, पतंजलि का कथन है।क्योंकि हम सदैव प्रपंच में लिप्त हैं।किसी से राग है तो वह प्रिय है।किसी से द्वेष है तो वह अप्रिय है।और राग किससे है?*
जो हमारे मन के अनुकूल चलता हो। जो हमारे हर कृत्य का समर्थन करता हो।वरना यह कैसे होता कि जिस पुत्र - पुत्री को या माता - पिता को लोग अपना सर्व प्रिय समझते हों,कई बार देखा गया है कि उसका परित्याग कर देते हैं जीते जी।और द्वेष किससे है?
जो हमारे मन के अनुकूल नहीं चलता।जो हमारे विरोध में खड़ा हो।जो हमारे चाहत, इच्छा कृत्य के मार्ग में रोड़े अटकाता हो।भले ही वह सगा भाई हो, बहन हो, पति हो, पत्नी हो, पुत्र हो, पुत्री हो।कोई अंतर नहीं पड़ता।हां सामाजिक दबाव के कारण,भय के कारण भले ही वह अप्रकट रहे,परंतु रहेगा तो अवश्य ही।
मन में रहे।रहेगा।मजे की बात यह है कि इस प्रपंच से प्रपंच करके जो भी,जितना भी प्राप्त करोगे,उतना ही क्लेश साथ साथ आएगा उसके।यह निजी अनुभव है।कोई पद प्राप्त किया।किलेश शुरू।जितना बड़ा पद उतना बड़ा किलेश।
बुद्ध कहते हैं कि दुख है।बुद्ध राजा महाराजा थे।हम लोगों की तरह दो कौड़ी कमाने वाले लोग न थे।इसीलिए प्रपंच को छोड़कर उसकी खोज में निकले,जो प्रपंच के पार है।प्रपंच के पार कौन है?
परमात्मा।परमात्मा का क्या करेंगे हम? ओढ़ेगें या बिछाएंगे?खाएंगे या पियेंगे।परमात्मा की खोज किसी को नहीं है।तो उसी का एक और नाम है परमानंद।उसी आनंद और सुख की खोज में पूरा संसार है।
प्रपंच फैलाए हुए है।कोई यहां से भागकर अमरीका जा रहा है कोई यूरोप।कोई हरिद्वार और कोई ऋषिकेश।तो क्या करे उस प्रपंच से बाहर आने के लिए,परमानंद न सही, आनंद की ही प्राप्ति हेतु?
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूढे वन माहि।
यह किसी हिरण के लिए नहीं कहा गया है।
यह प्रपंच और पिचाल में रमे हुए मानव मात्र के लिए कहा गया है।
सारे उपनिषद, पुराण, भगवद्गीता, रामायण अपनी रहस्यमई भाषा में यही बात कर रहे हैं।उनको पढ़ लो, विद्वान हो जाओगे।समाज से सम्मान पा जाओगे।परंतु आनंद की झलक भी जीवन में न मिलेगी।करने से मिलेगी।करना क्या होगा?मात्र एक काम।शांति पूर्वक विश्राम अवस्था में बैठो।लेट भी सकते हो। परंतु सो जाओगे।वह भी अच्छा ही रहेगा।आनंद न सही विश्राम तो कर लोगे।प्रपंच से बाहर निकलकर।*
बैठो और नेत्रों को बंद करो।और देखो अपने अंदर।कम से कम आधा घंटा से पैतालीस मिनट।यह मिनिमम शर्त है।
क्या देखो?
मात्र यह कि तुम्हारे मन में चल क्या रहा है?
इतना देखो।
और फिर अपना अनुभव करो।