Ramchaitramanas Chaupai : मानस प्रसंग/ मोर दास कहाइ नर आसा।
Ramchaitramanas Chaupai : रामचरितमानस के कई ऐसे प्रसंग हैं जो मनुष्य को सत्मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं उन्हीं में से प्रसंग का वर्णन यहाँ किया गया है।;
Ramchaitramanas Chaupai (Image Credit-Social Media)
Manas Prasang: रामचरितमानस का ये प्रसंग आपको सही मार्ग पर चलने को प्रेरित करेगा और आपको सुख की अनुभूति देगा।
जौ परलोक इहां सुख चहहु।
सुनि मम वचन हृदय दृढ गहहूं।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई।
भगति मोर पुरान श्रुति गाई।।
यदि परलोक में और यहां दोनों जगह सुख चाहते हो , तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो । हे भाई ! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गया है ।
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है । परंतु सत्संग ( संतो के संग ) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते । और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत् संगति ही जन्म मरण के चक्र का अंत करती है ।
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।
और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूं कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।
कहो तो , भक्ति मार्ग में कौन सा परिश्रम है ? इसमें न योग की आवश्यकता है , न यज्ञ ,जप , तप, और उपवास की । ( यहां इतना ही आवश्यक है कि ) *सरल स्वभाव हो , मन में कुटिलता न हो , और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखें ।
मोर दास कहाइ नर आसा।
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।
बहुत कहउ का कथा बढाई ।
एहि आचरन बस्य मै भाई ।।
मेरा दास कहला कर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है , तो तुम्ही कहो , उसका क्या विश्वास ? ( अर्थात उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है ) बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूं ? हे भाइयों ! मैं तो इसी आचरण के बस में हूं ।
न किसी से वैर करें , न लड़ाई झगड़ा करें , न आशा करें , न भय ही करें । जो मानहीन, पापहीन , और क्रोधहीन है। जिसके मन में सब विषय यहां तक की स्वर्ग और मुक्ति तक ( भक्ति के सामने) तृण के समान है । जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है , पर ( दूसरों के मत का खंडन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्को को दूर बहा दिया है ।
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह।।
जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के पारायण हैं, एवं ममता मद और मोह से रहित है , उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मा रूप ) परमानंद राशि को प्राप्त है।
श्रीरामचंद्रजी के अमृत के समान वचन सुनकर सब ने कृपा धाम के चरण पकड़ लिए (और कहा--) हे कृपा निधान ! आप हमारे माता-पिता गुरु भाई सब कुछ है और प्राणों से भी अधिक प्रिय है ।
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ।
मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।।
ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता, माता-पिता ( हितेषी है और शिक्षा भी देते हैं) परंतु वे स्वार्थ पारायण हैं। (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)
हे असुरों के शत्रु ! जगत में बिना हेतु के( निस्वार्थ ) उपकार करने वाले तो दो ही है -एक आप , दूसरे आपका सेवक । जगत में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं। हे प्रभु ! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ भाव नहीं है।
सबके प्रेम रस में सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुंदर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए ।
उमा अवधवासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जय भूप ।।
शिवजी कहते हैं -हे उमा ! अयोध्या में रहने वाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थ स्वरूप है , जहां स्वयं सच्चिदानंद घन-ब्रह्म श्री रघुनाथजी राजा है।