जयपुर: मां सरस्वती की पूजा और उनकी महिमा का गुणगान करता यह मंत्र सनातन धर्म के मानने वालों को वैसे तो हर दिन करना चाहिए। हर दिन नहीं कर सकते तो वसंत पंचमी (22 जनवरी) को जरूर करना चाहिए। इस दिन दोपहर तक ही मुहूर्त है। विद्या की देवी सरस्वती की पूजा गणेश जी के साथ जरूर करनी चाहिए। जो लोग इस दिन पूजा नहीं कर सकते, वे कम से कम इस दिन पीले वस्त्र जरूर पहनें। धन की कमी न हो तो पुस्तकें और शिक्षा से जुड़े उपकरण जरूरतमंद छात्र-छात्रओं को प्रदान करें, ताकि मां सरस्वती की यह इच्छा पूरी हो कि पृथ्वी पर मौजूद हर मनुष्य शिक्षित हो। मां सरस्वती केवल लेखकों, संगीतकारों, विद्वानों तक सीमित नहीं हैं।
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वे उन सभी को सम्मानित करती हैं, जो अपने-अपने घर में परिवार के सभी सदस्यों को आनंद प्रदान करते हैं। छल-कपट से दूर रहते हैं। जहां सरस्वती हैं, वहां निर्मल आनंद तो रहता ही है। जब सृष्टि में हलचल नहीं थी, सभी जीव-जन्तु ज्ञान सम्पन्न नहीं थे, तब अशांत ब्रह्मा को नारायण ने ज्ञान दिया। तब उन्होंने पृथ्वी पर जल छिड़का। चतुभरुजी मां सरस्वती वीणा, पुस्तक और माला के साथ वर प्रदान करती प्रकट हुईं। ब्रह्मा जी के अनुरोध करने पर उनके वीणा बजाते ही खामोश बैठे सभी प्रकार के जीवों में वाणी प्रकट हो गई, ज्ञान का संगीत रोम-रोम में बज उठा। ब्राह्मा जी ने उन्हें नाम दिया- सरस्वती, वीणावरदायिनी शारदा और वाग्देवी। देखा जाए तो सनातन धर्म में रूप की जगह ज्ञान को सदैव प्रधानता प्रदान की जाती है। ऋग्वेद में इस तरह मां सरस्वती का गुणगान किया गया है- ‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिव्रजिनीवती धीनामणित्रयवस्तु।’ अर्थात् ये परम चेतना हैं।
सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हमारे भीतर जो मेधा है, उसका आधार भगवती शारदा ही हैं। भगवान कृष्ण ने कहा भी है कि वे ऋतुओं में वसंत हैं। कवि, लेखक, गायक, वादक, नृत्यकार आदि सब इस दिन की शुरुआत अपने उपकरणों की पूजा से करते हैं। मां सरस्वती की पीले फूलों, पीले लड्डू और केसर युक्त खीर आदि से पूजा की जानी चाहिए। ज्योतिष के हिसाब से देखा जाए तो मां की मीन राशि है। इस दिन किसी मुहूर्त की जरूरत नहीं होती। इसलिए विवाह आदि इस दिन करना शुभ माना जाता है।
‘या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रवृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।। या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाडय़ापहा॥’