केवल अयोध्या नहीं, यहां भी हैं श्रीराम के प्रमाण, स्वर्ण मृग की तलाश में आए थे भगवान

रघुनंद का नाम आते ही आंखों के सामने उनकी जन्म स्थली आयोध्या घूमने लगती है। ये तो सभी जानते है कि श्री राम जी का संबंध अयोध्या से है। वहां उनके होने का साक्ष्य भी है, लेकिन शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनका संबंध झारखंड से भी है। यहां के लोगों  का कहना है कि  यहां भी भगवान राम आए है।

Update:2020-04-02 11:25 IST

जयपुर: रघुनंद का नाम आते ही आंखों के सामने उनकी जन्म स्थली आयोध्या घूमने लगती है। ये तो सभी जानते है कि श्री राम जी का संबंध अयोध्या से है। वहां उनके होने का साक्ष्य भी है, लेकिन शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनका संबंध झारखंड से भी है। यहां के लोगों का कहना है कि यहां भी भगवान राम आए है।

बोकारो में हैं श्रीराम के पदचिह्न

धार्मिक मान्यता है कि झारखंड के बोकारो और हजारीबाग में भगवान राम आए थे। इसके अलावा भी यहां के कई जगह है जहां उनके आने का साक्ष्य मिला है। चास-धनबाद मुख्य पथ करीब 10 किमी दूर पूरब दिशा में स्थित कुम्हरी पंचायत में दामोदर नदी पर बारनी घाट है। वहां वनवास के दौरान भगवान राम, पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ यहां से होकर गुजरे थे। वह वनवास का 12वां साल और चैत माह की 13वीं तिथि थी। रात्रि विश्राम के बाद सुबह बारनी घाट में स्नान किया था।

इसे पकाहा दह के नाम से भी जाना जाता है।यहां पर पौराणिक पत्थर और उनकी चरण पादुका भी हैं। कसमार प्रखंड के डुमरकुदर गांव के पास श्रीराम के आने का प्रसंग है। कहा जाता है कि माता जानकी की जिद्द पर स्वर्ण मृग की तलाश में भगवान राम आए थे। यहां कि पहाड़ी पर जिस जगह तीर चलाए थे, वहां से दूध की धारा निकल पड़ी थी, लेकिन एक चरवाहा की शरारत के कारण दूध की धारा पानी में तब्दील हो गई। यहां दो जगहों पर उनके पदचिह्न हैं।

 

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प्रसिद्ध है झारखंड के हजारीबाग की रामनवमी

पूरे झारखंड में रामनवमी के पारंपरिक आयोजन का अपना ही अंदाज और इतिहास है। हजारीबाग की रामनवमी की बात ही कुछ और है। सारे देश में जब रामनवमी का उल्लास ढलान पर होता है तब हजारीबाग में यह आयोजन जोर पकड़ता है। चैत माह के शुक्ल पक्ष की दशमी से आरम्भ झांकियों का क्रम त्रयोदशी की शाम तक जारी रहता है।

 

आठ दशकों से निकल रहा है पलामू में जुलूस

पलामू में रामनवमी अखाड़ा का इतिहास बहुत पुराना है। यहां 8 दशक पूर्व से जुलूस निकाला जा रहा है। इसकी शुरुआत 1932 में हरिजन मुहल्ला से हुई थी। ये इलाका अब आदर्शनगर के नाम से जाना जाता है। सारे धर्म के लोग संगठित होकर रामनवमी का त्योहार मनाते है। जो देखने में अनोखा और दर्शनीय होता है।

इस दौरान रांची में मांस-मदिरा पर रोक

रांची में रामनवमी का पर्व यहां की परंपरा की वजह से धार्मिक के साथ सांप्रदायिक सौहार्द और सांस्कृतिक विरासत की भी मिसाल है। अकेले रांची में रामनवमी पर लाखों लोग महावीरी पताकाएं लिए जुलूस के रूप में सड़कों पर निकलते हैं। जुलूस का जगह-जगह स्वागत किया जाता है। स्वागत करनेवालों में मुस्लिम और ईसाई भी शामिल होते हैं। इस दौरान शहर में शराब की दुकानें प्रतिबंधित रहती है। मटन -चिकन की भी बिक्री नहीं होती।

 

मुस्लिम बनाते हैं पताकाएं

हनुमान जी के चित्रों वाली पताकाओं को बनाने वाले कारीगर मुस्लिम होते है। दो-तीन महीने से लगभग 100 से ज्यादा मुसलमान कारीगर कई महीने इन झंडों को बनाने में ही लगा देते हैं। उनकी बनाई पताकाओं को रामभक्त बड़े उत्‍साह से लहराते हैं। यहां 250 से 300 फुट तक की पताकाएं बनाई जाती हैं। जुलूस में पताका बड़े से बड़े निकालने की होड़ भी रहती है।

रुपए से लेकर लाखों तक की कीमत

महावीरी पताकाएं पांच रुपए से लेकर लाखों तक की मिलती हैं। यहां पताकाओं का 20 लाख रुपए से अधिक का बाजार है। शहर में 1929 से महारामनवमी का आयोजन किया जा रहा है। महावीरी झंडा विक्रेता असद बताते हैं कि इस बार सबसे छोटी पताका 30 रुपए में बिक रही है। रांची के हिंदपीढ़ी का ये परिवार हर साल दो-तीन लाख रुपए के झंडे बनाता हैं।

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श्रीराम के आदर्श को जीवन में उतारने की जरूरत

भगवान विष्णु ने असुरों का संहार करने के लिए राम रूप में अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए राम राज्य की स्थापना की। इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। तब से लेकर आज तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन उनके आदर्शों को जीवन में नहीं उतारा जाता। यदि राम की सही मायने में आराधना करनी है और राम राज्य को स्थापित करना है तो उनके आदर्शों और विचारों को आत्मसात करना जरूरी है। तभी सही मायने में रामनवमी मनाने का संकल्प पूर्ण होगा।

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