Snan Mahatva : स्नान का महत्त्व
Snan Mahatva :स्नान का आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व तो बहुत विस्तृत प्रतिपादित है।
Snan Mahatva : पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रम-स्वेद-मलापहम् ।
शरीर-बल-संधानं स्नानमोजस्करं परम् ।।
स्नान करने से पवित्रता, ओज आरोग्य, आयु तथा बल की वृद्धि होती है।।
(चरकसूत्र-5/94)
स्नान से शारीरिक जलन दूर होती है।श्रम से उत्पन्न थकान जाती है। बार बार प्यास नहीं लगती है।खुजली नहीं होती है।पसीना और दुर्गन्ध से बचाव होता है।शरीर का मल दूर होता है।प्रसन्नता और पुलक में वृद्धि होती है।स्नान से पुरुषत्व में वृद्धि होती है और रक्त प्रसादन होता है।जठर अग्नि का दीपन होता है।तंद्रा और अशुद्धि दूर होती है।
स्नानं दाहश्रमहरं स्वेदकंडूय- तृषापहम्।
हृद्यम्मलहरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम्।।
तंद्रा पापोपशमनं तुष्टिदं पुंसत्व - वर्धनम् ।
रक्त प्रसादनं चापि मतमग्नेश्च दीपनम् ।।
(सुश्रुतसंहिता -24)
शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम कूप होते हैं।
सार्द्ध तिस्र: कोट्यो रोमाणि भवन्ति शरीरे।
ये शरीर के तीर्थ कहे जाते हैं।यदि इनसे पसीना बहना बन्द हो जायेतो त्वचा और मांस का कैंसर होने लगे।स्नान से रोम कूप स्वच्छ और खुले रहते हैं।अतः स्नान से दूर भागना स्वास्थ्य और आयु के लिए घातक होता है।स्नान का आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व तो बहुत विस्तृत प्रतिपादित है।
अशिरस्क स्नान
सिर को धोये बिना जो स्नान किया जाता है उसे अशिरस्क स्नान कहते हैं।ऐसे स्नान को स्नान नहीं माना जाता है।सिर धोये बिना जो स्नान किया जाता है उसे स्नान न कह कर अस्नान या नस्नान कहते हैं।अशिरस्क स्नान केवल अशक्त और बीमार व्यक्ति के लिए ही स्वीकृत है।