Srimad Bhagavad Gita: विषादमय अर्जुन, भगवद्गीता- (अध्याय-1/ श्लोक संख्या-47)
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 47: संजय जो सुन रहे हैं तथा देख रहे हैं, उसी का वर्णन धृतराष्ट्र से कर रहे हैं। अब विषादमय अवस्था में अर्जुन जो करने जा रहे हैं, उसे संजय उपर्युक्त श्लोक के अंतर्गत बताने जा रहे हैं। अर्जुन जब युद्धक्षेत्र में प्रवेश किया था, तब वह रथ में बैठकर ही आया था।
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 47:
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सञ्जय उवाच
एवमुक्तवार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविदग्नमानस:।।
सरलार्थ - संजय बोले - रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।
निहितार्थ - भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का यह अंतिम श्लोक है। यह श्लोक अर्जुन का नहीं, बल्कि संजय का है। संजय जो सुन रहे हैं तथा देख रहे हैं, उसी का वर्णन धृतराष्ट्र से कर रहे हैं। अब विषादमय अवस्था में अर्जुन जो करने जा रहे हैं, उसे संजय उपर्युक्त श्लोक के अंतर्गत बताने जा रहे हैं। अर्जुन जब युद्धक्षेत्र में प्रवेश किया था, तब वह रथ में बैठकर ही आया था। लेकिन जब धृतराष्ट्र -पक्ष एवं स्वयं उसके पक्ष की सेना द्वारा प्रचंड शंखनाद के साथ घोर घोष - निनाद किया गया, तब अर्जुन
“प्रवृत्तेशस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य”
अर्थात् धनुष उठाकर चलाने के लिए उठ खड़ा हुआ था। तत्पश्चात् दोनों पक्षों में स्वजनों को देखकर उसका मन विचलित हो उठा। अर्जुन विषाद से ओतप्रोत हो गया। शोक से व्याकुल हो अर्जुन ने श्रीकृष्ण के समक्ष युद्ध के भयंकर परिणाम को प्रस्तुत किया। इससे वह खड़ा रह पाने में भी अपने को असमर्थ महसूस करने लगा। शोक - विह्वल मन ने अर्जुन को युद्ध से निरत कर पुनः रथ में बिठा दिया। संजय यह बता रहे हैं कि जो अर्जुन रथ के अगले हिस्से में बैठकर सेना का निरीक्षण किया था, वही अर्जुन युद्ध न करने के लिए पुनः बैठ गया।
हम सभी जानते हैं कि मनुष्य कोई भी कार्य ‘मनसा वाचा कर्मणा' के सिद्धांत पर करता है। पहले मनुष्य मन में विचार करता है, फिर वह उस विचार को वाणी के द्वारा प्रकट करता है और अंत में उस विचार को व्यवहार के माध्यम से कार्यरूप में परिणत कर देता है। चूंकि अर्जुन का मन संताप से भर चुका था, उसे कहीं भी आशा की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी। तब वह निराशा के घोर अंधकार में डूब गया। वह गांडीव जैसे प्रबल धनुष एवं बाणों को त्याग कर स्वयं निहत्था हो गया। वह अपने द्वारा निर्मित काल्पनिक संविग्न मानस-जगत में खोकर रह गया।
युद्ध का केंद्र-बिंदु बना तेजस्वी एवं प्रतापी अर्जुन स्वयं ही निस्तेज हो गया। अर्जुन अपने को पांडव - पक्ष का एकमात्र निर्भीक शूरवीर दिखाने चला था ! पर वही अर्जुन मोहग्रस्त हो एकदम असहाय हो रथ पर ही लुढ़क पड़ा, खड़ा भी न रह पाया। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अर्जुन अपने सखा एवं सारथी श्रीकृष्ण से कोई सलाह नहीं ले रहा है। सब कुछ एकतरफा वक्तव्य वह स्वयं ही रख रहा है। विषादमय अवस्था में मनुष्य की हालत ऐसी ही हो जाती है। स्वस्थ चिंतन करना, समग्रता से विचार करना एवं राय - मशविरा कर निर्णय लेना एक विषादी मनुष्य नहीं कर सकता।
अर्जुन के इस आचरण का प्रभाव धृतराष्ट्र -पक्ष पर क्या पड़ेगा ? तथा इसका प्रभाव पांडव-पक्ष पर क्या पड़ेगा ? इसकी तनिक भी चिंता अर्जुन ने नहीं की। जब भी कोई व्यक्ति केवल यह सोचता है कि उसकी सोच के आधार पर ही सारी सृष्टि चलती है, तो वह यह सर्वथा गलत है। हर मनुष्य चाहता कुछ और है और हो जाता कुछ और है। केवल मनुष्य के चाहने, न चाहने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि किसी भी कार्य के पीछे एक अदृश्य-शक्ति काम कर रही होती है। इस अदृश्य शक्ति को जो पहचानता है, वह अपने को अदृश्य-शक्ति के हाथों सौंप निश्चिंत हो जाता है। जो केवल अपने बूते ही कार्य को संपादित करना चाहता है, वह अंत में विफल हो जाता है। अर्जुन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। अर्जुन के साथ तो अदृश्य शक्ति दृश्यवान होकर सारथी के रूप में ही विराजित थी। फिर भी, अब तक अर्जुन ने इस शक्ति का उपयोग अपने मानस विकार तथा मानस - संताप को दूर करने के लिए थोड़ा भी नहीं किया। परिणाम हम सबके सामने है। अर्जुन विषादमय अवस्था में ही रथ पर बैठ गया।