Srimad Bhagavata Gita: मानव की सर्वोच्च उपलब्धि
Srimad Bhagavata Gita: यदि यह धन से सम्पन्न सारी पृथ्वी मेरी हो जाये तो क्या मैं अमर हो सकती हूँ?”याज्ञवल्क्य ने कहा,”भोग-सामग्रियों से सम्पन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।
( गीता, ४.२२ )
अर्थात् जो ( कर्मयोगी ) फल की इच्छा के बिना, अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से अतीत तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।यह एक तथ्य है कि मनुष्य सब कुछ यहीं एकत्रित करता है और सब कुछ यहीं छोड़कर सहसा चला जाता हैं।यदि सब कुछ छूटना है तो हम उसे स्वयं ही छोड़ दें अर्थात् उसके ममत्व, स्वामित्व और आसक्ति के भाव को छोड़कर भारयुक्त हो जायें।सब धन परमात्मा का ही है।अतः 'इदं न मम'( यह मेरा नहीं है। )की भावना को शिरोधार्य करके धन का उपभोग एवं सदुपयोग करना सब प्रकार से श्रेष्ठ है।निश्चय ही आत्मज्ञान की अपेक्षा धन अत्यन्त तुच्छ है।बृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य ऋषि से पूछा,“यदि यह धन से सम्पन्न सारी पृथ्वी मेरी हो जाये तो क्या मैं अमर हो सकती हूँ?”याज्ञवल्क्य ने कहा,”भोग-सामग्रियों से सम्पन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है,
वैसा ही तेरा जीवन भी हो जायेगा।धन से अमृतत्व की तो आशा ही नहीं।”'अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेन।'मैत्रेयी ने कहा,“जिससे मैं अमृता नहीं हो सकती,उसे लेकर क्या करूँगी?मुझे तो अमृतत्व का साधन बतलायें।”'येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम्?यदेव भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहि।'जीवन का उद्देश्य तो अमृत स्वरूप आत्मा को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना है।उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अमृतत्व की चर्चा है।जीवन काल में आत्मतत्त्व को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना ही उत्तम धन है।यही मानव की सर्वोच्च उपलब्धि भी है।