Tulsidas Jayanti 2024: तुलसी जयंती पर विशेष, लोकस्वर में लोक मंगल

Tulsidas Jayanti 2024: गोस्वामी तुलसी दास लोक मंगल के लोक स्वरों के प्रणेता हैं। वह गूढ़ ज्ञान को लोक की भाषा में शब्द देने में सिद्धहस्त है। वह लोक की चेतना और उसके सम्प्रेषण के लिए सतत प्रयत्नशील हैं।

Written By :  Sanjay Tiwari
Update:2024-08-11 10:43 IST

Tulsidas Jayanti 2024 (Pic: Social Media)

Tulsidas Jayanti 2024: गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन सभी को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का प्रयास किया। वाल्मीकि जी की रचना रामायण को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में राम कथा की रचना की। सम्पूर्ण भारतवर्ष में गोस्वामी तुलसीदास के स्मरण में तुलसी जयंती मनाई जाती है। श्रावण मास की सप्तमी के दिन तुलसीदास की जयंती मनाई जाती है। इस वर्ष यह आज (11 अगस्त)  के दिन गोस्वामी तुलसीदास जयंती मनाई जा रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि वह धारा आज भी प्रवाहित हो रही है।

गोस्वामी तुलसी दास लोक मंगल के लोक स्वरों के प्रणेता हैं। वह गूढ़ ज्ञान को लोक की भाषा में शब्द देने में सिद्धहस्त है। वह लोक की चेतना और उसके सम्प्रेषण के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। वह जितने बड़े भक्त हैं उससे भी बड़े मनुष्य। मानव उनकी रचना के केंद्र में है। इसीलिए वह आज भी लोक में उतने ही घुले मिले हैं। भारत की ज्ञान परमपरा को लोक में प्रवाहित करने की उनकी मेहनत खुद में बहुत कुछ कह जाती है। केवल भक्ति को भी देखें तो तुलसी को गाकर आज हजारों लोग अपनी रोजी चला रहे हैं। मानस मर्मज्ञ और मानस के व्याख्याता बन कर पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं। एक मानस से ही आज हजारों घर पल्लवित और पुष्पित हो रहे हैं। अद्भुत रचना संसार है गोस्वामी जी का। उतनी विशद राशि को भला कुछ पन्नों और शब्दों में कैसे समेटा जा सकता है। तुलसी की प्रत्येक कृति कालजयी है। उनके प्रत्येक शब्द सन्देश और मंत्र हैं। उनकी हर रचना पृथ्वी की धारिता को भी पार करने वाली है। वह जितने बड़े कवि हैं उससे भी बड़े युगद्रष्टा हैं। समय को पढऩा और उसके अनुरूप चेतना विकिसत कर लोक को जगा देने में वह माहिर हैं। इसी पर प्रस्तुत है भारत संस्कृतिन्यास के संस्थापक संजय तिवारी का यह विशेष आलेख। 


तुलसीदास जी जिनका नाम आते ही प्रभु राम का स्वरूप भी सामने उभर आता है। तुलसीदास जी रामचरित मानस के रचयिता तथा उस भक्ति को पाने वाले जो अनेक जन्मों को धारण करने के पश्चात भी नहीं मिल पाती, उसी अदभूत स्वरूप को पाने वाले तुलसीदास जी सभी के लिए सम्माननीय एवं पूजनीय रहे। तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास जी ने अपने बाल्यकाल में अनेक दुख सहे। युवा होने पर इनका विवाह रत्नावली से हुआ, अपनी पत्नी रत्नावली से इन्हें अत्याधिक प्रेम था परंतु अपने इसी प्रेम के कारण उन्हें एक बार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ‘लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ’ अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और तुलसी जी, राम जी की भक्ति में ऐसे डूबे कि उनके अनन्य भक्त बन गए। बाद में इन्होंने गुरु बाबा नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की।

समाज के पथप्रदर्शक

तुलसीदास जी ने उस समय में समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने विधर्मी बातों, पंथवाद और सामाज में उत्पन्न बुराइयों की आलोचना की उन्होंने साकार उपासना, गो-ब्राह्मण रक्षा, सगुणवाद एवं प्राचीन संस्कृति के सम्मान को उपर उठाने का प्रयास किया वह रामराज्य की परिकल्पना करते थे। इधर उनके इस कार्यों के द्वारा समाज के कुछ लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे तथा उनकी रचनाओं को नष्ट करने के प्रयास भी किए किंतु कोई भी उनकी कृतियों को हानि नहीं पहुंचा सका। आज भी भारत के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन होता है। उनके जयंती के उपलक्ष्य में देश के कोने कोने में रामचरित मानस तथा उनके निर्मित ग्रंथों का पाठ किया जाता है। तुलसीदास जी ने अपना अंतिम समय काशी में व्यतीत किया और वहीं विख्यात असीघाट पर संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन अपने प्रभु श्री राम जी के नाम का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया।


जन्म

अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरों शूकरक्षेत्र भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गांव है। वहां आत्माराम दूबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् 1554 के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक मां के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दांत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन मां का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियां नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष का हुआ तो चुनियां भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।

बचपन

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अयोध्या ले गये और वहां संवत् 1561 माघ शुक्ल पंचमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। वहां से कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहां नरहरि बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भांति समझ न आयी। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गांव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूंकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहां शेष सनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये।

वहां रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरुजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूंकि मायके में ही थी अत: तुलसीराम ने भयंकर अंधेरी रात में उफनाती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुंचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है-

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?

संस्कृत में पद्य-रचना

संवत् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहां कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छह दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्यमुनि के दर्शन हुए। वहां उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहां के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा, तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।

तुलसीदास की रचनाएं

अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं-

रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली।

इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।

लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।

रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त: साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

रामचरितमानस, रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनय-पत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण, कलिधर्माधर्म निरूपण, हनुमान चालीसा।

एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।

श्रीराम से भेंट

कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहां की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा, तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होंगे। इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। चित्रकूट पहुंच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमानजी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा प्रात: काल फिर दर्शन होंगे। संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुन: प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा, बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं? हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा,

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।

तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्धान हो गये।


डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के मुताबिक, तुलसी के विषय में जो प्रामाणिक, अर्ध प्रमाणिक किवदंतियां और आलेख मिलते हैं, उनसे ज्ञात होता है की वे कई मुस्लिम और अवर्ण व्यक्तियों के अभिन्न मित्र थे। उनकी मित्र मंडली में पासी, चमार, अहीर, धाड़ी, जुलाहा, केवट सभी जातियों के लोग थे। अवर्ण जाति के लोगों से तुलसी की इतनी अभिन्नता के कारण काशी के कट्टर ब्राह्मणों और पंडितों में कैसा प्रवाद फैला होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तुलसी के जन्म और माता-पिता विषयक प्रवाद ने ही इस प्रवाद को बहुत तीव्र और क्लेशकर बना दिया होगा। ‘काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब’, ‘मेरे कोऊ कम को न हौं, काहू के काम कौं’, ‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को’ जैसे टुकड़े उसी अकेलेपन और अमर्ष को व्यंजित करते हैं। उनकी मानासोत्तर रचनाएं जहां उनके भाषा और विधागत वैविध्य का परिचय देती हैं, वहीं उनकी निज वेदना का जीवंत दस्तावेज भी हैं जिसमें वो पूरी दैन्यता और आत्मनिवेदन के साथ राम को संबोधित करते हुए आत्म-पीड़ा का वर्णन करते हैं।

कलिकाल के बहाने से तुलसी कवितावली और विनयपत्रिका में बाह्य समाज में व्याप्त लोभ, लिप्सा, ईर्ष्या-द्वेष, शोषण, भूख, बेकारी, अकाल सामजिक अराजकता, सांस्कृतिक अपदूषण, सामंती वर्ग की मनमानी, कट्टरपंथी धर्मावलम्बियों के वर्णन के साथ तुलसी के अंतर्मन और तन की पीड़ा का उल्लेख किया है। आलोचक रमेश कुंतल मेघ की साहसपूर्ण मगर वस्तुनिष्ठ टिप्पणी तुलसीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को रेखांकित करती है, जब वे समाज के पूरे रंगमंच को देखते-देखते तथा भोगते-भोगते यथार्थवादी एवं व्यवाहरिक भी हो जाते हैं (दोहावली, कवितावली, हनुमानबाहुकादि) तब वे कलिकाल की गर्दन मरोड़ देते हैं। अपने जीवन के परवर्ती चरण में तुलसी आध्यात्मिक और स्वप्नद्रष्टा के बजाय धार्मिक और यथार्थ द्रष्टा हुए हैं। उन्होंने अंतत: घोषित ही किया की सारे समाज तंत्र का आधार ‘पेट’ अर्थात आर्थिक शक्ति है (कवितावाली)। यह उनके समाज दर्शन की महत्तम सिद्धि है जो उन्हें कबीर तक से बहुत आगे ले जा सकती है। आर्थिक दरिद्रता को इतना भोगने-समझने वाला मनुष्य, दरिद्रता के सामाजिक परिणामों को इतना सटीक विश्लेषित करने वाला समाज-पुरुष और दरिद्रता से इतनी प्रगाढ़ नफरत करने वाला लोककवि, तुलसी के अलावा कोई नहीं है।

रामचरितमानस की रचना

संवत् 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहां उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात: काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहां उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुन्दरम् की आवाज भी कानों से सुनी। इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे।


चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढऩे लगा। इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरु:।

कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है, काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मञ्जरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है। पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रात: काल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।

तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुंचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

तुलसी-स्तवन

तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। उसी प्रति के साथ रखे हुए एक कवि मदनलाल वर्मा क्रान्त की हस्तलिपि में तुलसी के व्यक्तित्व व कृतित्व को रेखांकित करते हुए निम्नलिखित दो छन्द भी उल्लेखनीय है, जिन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली की पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। इनमें पहला छन्द सिंहावलोकन है जिसकी विशेषता यह है कि प्रत्येक चरण जिस शब्द से समाप्त होता है उससे आगे का उसी से प्रारम्भ होता है। प्रथम व अन्तिम शब्द भी एक ही रहता है। काव्यशास्त्र में इसे अद्भुत छन्द कहा गया है। यही छन्द एक अन्य पत्रिका साहित्य परिक्रमा के तुलसी जयन्ती विशेषांक में भी प्रकाशित हुए थे वहीं से उद्धृत किये गये हैं। तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पांति-सम्प्रदाय-ताप से धरिम-धरा झुलसी-झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी-हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी, कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी। आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी। जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी। रत्नावली-सी अद्र्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ़ प्रीति पाय गये तुलसी। मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।

जब वे केवल आदर्शवादी हैं, महाकाव्यात्मक भव्यता तथा आध्यात्मिक उन्मेष में महत ललित रचना करते हैं। ‘रामचरित मानस’, ‘जानकीमंगल’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘वैराग्यसंदीपनी’, ‘रामाज्ञाप्रश्न’ आदि इस चरण की देन हैं। दूसरे चरण में वे आदर्श से यथार्थ की ओर मुडऩे लगते हैं, उल्लास से गाम्भीर्य की ओर बढ़ते हैं, और मानस के ‘परमब्रह्म राम’ की परम-पददायक गाथा के स्थान पर ‘कवितावली’ के लोकमंगल के नायक श्री रघुनाथ का जीवन गाने लगते हैं। इस चरण में उनकी काव्यात्मक भव्यता का स्थान वेणुगीतात्मक (लिरिकल) वैयक्तिकता ले लेती है, आध्यात्मिक उन्मेष वाली आस्था श्रद्धा-विश्वास के साथ-साथ नैतिक प्रायश्चित, पश्चाताप तथा सामाजिक-सन्देश-तर्क आदि का भी समावेश हो चला है। इसी वेणुगीतात्मक चरण में वे अपनी आत्मकथा कहने और समाज की निर्भात आलोचना करने की नयी जीवन-दृष्टि और सामथ्र्य पाते हैं। इसके साथ वे यथार्थ की ठोस भूमि पर उतरते चले जाते हैं। ‘गीतावली, ‘श्रीकृष्णगीतावली’, ‘विनय-पत्रिका’, ‘बरवै’, ‘दोहावली’ ‘सतसई’, ‘हनुमान-बाहुक’ आदि मुक्तक कृतियां इस चरण की देन हैं।

-डॉ. मेघ

जिसके आगे पीछे कोई शास्त्र नहीं है। वहां लोकजीवन का व्यापक अनुभव है, उनका अपना चिंतन है और गहरी सहृदयता है। यह सब रामचरित मानस में भी है, विशेषत: उसके मानवीय संबंधों के चित्रण, कथा के रचना-विधान और काव्यभाषा की बनावट में। परन्तु उनकी गंभीर चिन्तनशीलता और सहृदयता के एक से बढक़र एक उदाहरण विनयपत्रिका में मिलते हैं। कवितावली के आत्मकथात्मक छंदों में अपने जीवन और समाज के कठोर सच को सीधे कहने की तत्परता है तो दूसरे अनेक छंदों में उस समय के समाज के यथार्थ का मर्मस्पर्शी चित्रण भी है। उन्होंने समाज में फैली गरीबी, भुखमरी, अकाल और महामारी के त्रासद यथार्थ का जो वर्णन किया है, उसमें उनकी जनजीवन से गहरी आत्मीयता और व्यापक करुणा व्यक्त हुई है। तुलसीदास के काव्य का यह पक्ष शास्त्र से मुक्त एवं लोक अनुभव से प्रेरित है।

- मैनेजर पाण्डेय

लोकमर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्रा की निन्दा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अन्तरात्मा बहुत व्यथित हुई। इस दल का लोकविरोधी स्वरूप गोस्वामीजी ने खूब पहचाना। अशिष्ट सम्प्रदायों का औद्धत्य गोस्वामीजी नहीं देख सकते थे। इसी औद्धत्य के कारण विद्वान और कर्मनिष्ठ भी भक्तों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे थे, जैसा कि गोस्वामीजी के इन वाक्यों से प्रकट होता है। कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान बिहीन। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है, लोगों के चलते चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है, जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते हैं।

गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो।

-आचार्य रामचंद्र शुक्ल

भाषा पर जैसा अधिकार गोस्वामीजी का था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। पहली बात तो यह ध्यान देने की है कि अवधी और व्रज काव्यभाषा की दोनों शाखाओं पर उनका समान और पूर्ण अधिकार था। रामचरितमानस को उन्होंने अवधी में लिखा है जिसमें पूरबी और पछांही (अवधी) दोनों का मेल है। कवितावली, विनयपत्रिका और गीतावली तीनों की भाषा व्रज है। कवितावली तो व्रज की चलती भाषा का एक सुन्दर नमूना है। पार्वतीमंगल, जानकीमंगल और रामलला नहछू ये तीनों पूरबी अवधी में हैं। भाषा पर ऐसा विस्तृत अधिकार और किस कवि का था? न सूर अवधी लिख सकते थे, न जायसी व्रज।


हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।

अब तुलसी का होइंगे, नर के मनसबदार ।।

जब गोस्वामी तुलसी दास को सम्राट अकबर ने अपनी मनसबदारी प्रदान करी तब उन्होंने इन पंक्तियों के माध्यम से स्वयं को रघुवीर अर्थात् श्रीराम का दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है।

-पद्मभूषण आचार्य रामकिंकर जी

भक्ति-आन्दोलन और तुलसी-काव्य का अन्यतम सामाजिक महत्त्व यह है कि इनमें देश की कोटि-कोटि जनता की व्यथा, प्रतिरोध-भावना और सुखी जीवन की आकांक्षा व्यक्त हुई है। भारत के नए जागरण का कोई महान कवि भक्ति-आन्दोलन और तुलसीदास से पराड। मुख नहीं रह सकता। (परंपरा का मूल्यांकन, भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास, पृष्ठ-95 रामविलास शर्मा)।


तुलसीदास स्वयं ‘मानस’ के प्रथम व्यास थे। उनके शिष्यों एवं अन्य बुद्ध पुरुषों ने इस व्यास-परंपरा को जीवन-दान देकर निरंतर जीवित रखा है। पं. रामगुलाम जी, पं. रामकिंकर जी, मोरारीबापू इस परंपरा में उल्लेखनीय हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

महात्मा गांधी का आत्म-शुद्धि का उपदेश और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ दोनों एक ही वस्तु हैं। विश्व राजनीति को दिया गया गोस्वामीजी के ‘रामराज्य’ का आदर्श वस्तुत: पूर्ण लोकतंत्र ही है। (तुलसी और उनका काव्य, पंडित रामनरेश त्रिपाठी, पृष्ठ-273)

तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पंडित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की। (हिंदी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद, पृष्ठ-101)

‘महलों और झोपडिय़ों में समान रूप से लोग इसमें रस लेते हैं। वस्तुत: भारतवर्ष के इतिहास में गोस्वामीजी का जो महत्वपूर्ण स्थान है, उसकी समानता में कोई आता ही नहीं, उसकी ऊंचाई को कोई छू नहीं पाता। (द्रष्टव्य-कल्याण, वर्ष 47, अंक-6) रामचरितमानस के अंग्रेजी अनुवादक श्री ग्राउस के विचार

तुलसीदास जी अपने ही तक दृष्टि रखने वाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखने वाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत के बीच उन्हें भगवान के रामरूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा है। (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-99)


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