Bhagavad Geeta Gyan: कर्मों के फल को भोगने के लिए नया जन्म लेना पड़ता

Bhagavad Geeta Gyan:जब तक हमारे द्वारा किए गए कर्मों के फलों को हम भोग नहीं लेते, तब तक जन्म-मरण का सिलसिला चलता रहता है।

Newstrack :  Network
Update:2024-07-03 16:10 IST

Bhagavad Geeta Gyan

Bhagavad Geeta Gyan: गीता में भगवान्‌ ने एक बड़ी विलक्षण बात बतायी है-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।

(गीता ७/१९ )

बहुत जन्मों के अन्त में अर्थात् मनुष्य जन्म में सब कुछ वासुदेव ही है–ऐसे जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। ज्ञान किसी अभ्यास से पैदा नहीं होता, प्रत्युत जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान लेने का नाम ‘ज्ञान’ है ।

‘वासुदेवः सर्वम्

(सब कुछ परमात्मा ही है )–यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा ।

यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है ।

अतः भगवान्‌ की वाणी से हमें इस बात का पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्द की बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है ।इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं ।कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले, पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तव में बात है ही यही !इच्छाओं, वासनाओं, संस्कारों व कर्मों के फलों को भोगने के लिए नया जन्म लेना पड़ता है।जब तक हमारे द्वारा किए गए कर्मों के फलों को हम भोग नहीं लेते, तब तक जन्म-मरण का सिलसिला चलता रहता है।लेकिन जब हमारी रुचि परमात्मा को जानने में होती है, तब आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है और इस यात्रा में व्यक्ति भक्तियोग की साधना से प्रारब्ध कर्म को स्वीकार करने लगता है। कर्मयोग से अपने कर्मों में निष्काम भाव ले आता है और निरंतर ज्ञान-ध्यान से चित्त में पड़े संचित कर्मों का नाश कर देता है।

इस प्रकार का जन्म साधक का अंतिम जन्म होता है,इसमें वह जान जाता है कि जो घट-घट में वास कर रहा है,वहीं वासुदेव है और इस भाव से वह जीवन जीता हुआ परमात्मा को निरंतर भजन करता रहता है।सबको सामान्य भाव से देखने के लिए कहां जा रहा है।अगर आप सुख दु:ख का कारण दूसरे को मानने से ही राग -द्वेष होते हैं अर्थात् जिस को सुख देने वाला मानते हैं,उसमें राग हो जाता है और जिसको दु:ख देने वाला मानते हैं, उसमें द्वेष हो जाता है ।

अतः राग -द्वेष अपनी भूल से पैदा होते हैं, इसमें दूसरा कोई कारण नहीं है ।राग -द्वेष होने के कारण ही संसार भगवत्स्वरूप नहीं दीखता, प्रत्युत जड़ और नाशवान् दीखता है ।अगर राग -द्वेष न हों तो जड़ता है ही नहीं, प्रत्युत सब कुछ चिन्मय परमात्मा ही हैं - वासुदेव: सर्वम्'* ( गीता ७/१९ ) ।संसार में प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है ।

परन्तु भगवान्‌ ने ऊँचे-से-ऊँचे महात्मा के हृदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है,इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदि के रूप में हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं ।परमात्मा की जगह ही यह संसार दीख रहा है ।बाहर से संसार का जो रूप दीख रहा है, यह तो एक चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है ।परन्तु इसके भीतर सत्ता रूप से एक परमात्म तत्त्व है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है ।भूल यह होती है कि ऊपर के चोले की तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है,पर उसके भीतर क्या है–इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिए भगवान्‌ कहते हैं–

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्

मनुष्य मेरे को तत्त्व से जानकर फिर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है ।

तत्त्व से जानना क्या है ?

जैसे सूती कपड़ों में रूई की सत्ता है, मिट्टी के बर्तनों में मिट्टी की सत्ता है, लोहे के अस्त्र-शस्त्रों में लोहे की सत्ता है, सोने के गहनों में सोने की सत्ता है,ऐसे ही संसार में परमात्मा की सत्ता है–यह जानना ही तत्त्व से जानना अर्थात् अनुभव करना है,पूज्य श्री गुरुदेव जी भगवान के पावन श्री चरणों में कोटि कोटि नमन वंदन प्रणाम कर्ता हूँ।

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