आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि बहुत विशिष्ट है। देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय हासिल की थी। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। राम ने भी देवी दुर्गा का आवाहन कर यह युद्ध जीता था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग शस्त्र-पूजा करते हैं। नया कार्य प्रारम्भ करते हैं। माना जाता है कि इस दिन जो कार्य आरम्भ किया जाता है उसमें विजय जरूर मिलती है। प्राचीन काल में राजा इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे।
दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई मान्यताएं हैं। भारत सहित विश्व के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टांगने तथा गेहूं आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। इसलिए कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों का मत है कि यह रणयात्रा का द्योतक है क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इस दूसरे मत से सम्बंधित भी है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी।
इस पर्व को भगवती के विजया नाम पर विजयादशमी कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र रावण का वध कर अयोध्या पहुंचे थे। इसलिए भी इस पर्व को विजयादशमी कहा जाता है।
ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं। ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। इस अवसर पर कहीं-कहीं भैंसे या बकरे की बलि देने की प्रथा भी है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों में यथा बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे। इस मौके पर हौदों से युक्त हाथी व घोड़ों की सवारियां निकाली जाती थीं। प्राचीन एवं मध्य काल में राजा घोड़ों, हाथियों, सैनिकों के साथ उत्सव करते थे। कालिदास व वराह ने भी इसका वर्णन किया है।
भारत वर्ष के अलावा दुनिया के अन्य कई देशों में दशहरा उत्सव किसी न किसी रूप में मनाने का चलन है। कई देशों में रामलीलाओं का मंचन प्रमुख आकर्षण होता है। कम्बोडिया, मॉरीशस, त्रिनिदाद, थाईलैंड, मलेशिया,ब्रिटेन और अमेरिका में भी दशहरा उल्लास के साथ मनाया जाता है। अब तो दुनिया के लगभग उन सभी देशों में जहां भारतीय मूल के लोग पहुंचे हैं वहां दशहरा पूरे उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है।
वनस्पति पूजन
विजयादशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्व है। एक है शमी वृक्ष, जिसका रावण दहन के बाद पूजन करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं। दूसरा है अपराजिता। यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है। नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भांति इसकी नियमित सेवा की जाती है।
विजयादशमी के दस सूत्र
- दस इन्द्रियों पर विजय
- असत्य पर सत्य की विजय
- बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय
- अन्याय पर न्याय की विजय
- दुराचार पर सदाचार की विजय
- तमोगुण पर दैवीगुण की विजय
- दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय
- भोग पर योग की विजय
- असुरत्व पर देवत्व की विजय
- मेला और रावण का पुतला
दशहरा पर जगह-जगह बड़े मेलों का आयोजन होता है। यहां लोग अपने परिवार व दोस्तों के साथ आते हैं। खुले आसमान के नीचे मेले का पूरा आनंद लेते हैं। मेले में तरह-तरह की वस्तुएं, खाने-पीने के सामान व अन्य घरेलू सामान बेचे जाते हैं। दशहरा उत्सव में रामलीला काफी महत्वपूर्ण है। रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण के जीवन का वर्णन किया जाता है। रामलीला का मंचन देश के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। यह देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरीके से प्रस्तुत की जाती है। बंगाल और मध्य भारत के अलावा दशहरा पर्व देश के अन्य राज्यों में भी पूरे उत्साह और शौक से मनाया जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला का उत्सव कई दिनों तक चलता है। आश्विन माह की दशमी को रावण एवं उसके साथियों का पुतला जलाया जाता है। यह पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
शस्त्र पूजन
दशहरा या विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्तिपूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। भारतीय संस्कृति शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो, इसलिए दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। माना जाता है कि मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म की रक्षा की थी। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय प्रस्थान करते थे।
देश में अलग- अलग तरीके से मनाया जाता है त्योहार
दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की सीमा नहीं होती। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा मानता है। उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियों लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है। पहले तीन दिन लक्ष्मी-धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती की अर्चना की जाती है। अंतिम दिन देवी दुर्गा की स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है। लोग एक-दूसरे को मिठाइयां व कपड़े देते हैं। यहां दशहरा बच्चों के लिए शिक्षा या कला संबंधी नया कार्य सीखने का शुभ समय होता है। कर्नाटक में मैसूर का दशहरा पूरे भारत में प्रसिद्ध है।
मैसूर
मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियां रोशनी से नहा उठती हैं। हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आगे बढऩे के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं।
महाराष्ट्र में सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसे मनाया जाता है। सायंकाल के समय सभी ग्रामवासी सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में स्वर्ण लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।
हिमाचल प्रदेश
कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भांति यहां भी दस दिन पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियां और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बांसुरी आदि लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूमधाम से जुलूस निकालकर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथ जी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है।
गुजरात
गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। गुजरात में पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम-घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोकसंगीत सभी का समायोजन होता है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है। नवरात्रि में सोना और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है।
पंजाब
पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण दहन के आयोजन होते हैं व मैदानों में मेले लगते हैं।
बस्तर
बस्तर में लोग इसे राम की रावण पर विजय ना मानकर इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे 75 दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि देवी से समारोह आरंभ की अनुमति ली जाती है। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग 15वीं शताब्दी से शुरू हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है। इसके बाद भीतर रैनी (विजयादशमी) और बाहर रैनी (रथयात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।
कश्मीर
कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचोंबीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत-पाक युद्ध के पहले यहां का पानी सचमुच काला हो गया था।
इन इलाकों में पूजा जाता है रावण
दशहरा में प्राय: भगवन राम की लीला का मंचन और रावण पर उनकी विजय की गाथा ही त्योहार रूप में मनाई जाती है, लेकिन कई ऐसे स्थान हैं जहां इस अवसर पर रावण की विधिवत पूजा की जाती है। यहां रावण खलनायक नहीं बल्कि भगवान राम के समतुल्य प्रतिनायक माना जाता है। रावण के पांडित्य और उसकी शक्ति की पूजा कर लोग इस उत्सव को मनाते हैं। यहां प्रस्तुत है ऐसे ही कुछ प्रमुख स्थानों का विवरण -
मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश के मंदसौर में रावण को पूजा जाता है। कहा जाता है कि मंदसौर का असली नाम दशपुर था और यह रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी का मायका था। इसलिए इस शहर का नाम मंदसौर पड़ा। चूंकि मंदसौर रावण का ससुराल था और यहां की बेटी रावण से ब्याही गई थी। इसलिए यहां दामाद के सम्मान की परंपरा के कारण रावण के पुतले का दहन करने की बजाय उसे पूजा जाता है। मंदसौर के रूंडी में रावण की मूर्ति बनी हुई है, जिसकी पूजा की जाती है। कथाओं के अनुसार रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी मंदसौर की निवासी थी। मंदोदरी के कारण ही दशपुर का नाम मंदसौर माना जाता है।
विदिशा
मध्यप्रदेश के ही विदिशा जिले में एक गांव है, जहां राक्षसराज रावण का मंदिर बना हुआ है। यहां रावण की पूजा होती है। यह रावण का मध्यप्रदेश में पहला मंदिर था।
उज्जैन
मप्र के उज्जैन जिले के एक गांव में भी रावण का दहन नहीं किया जाता बल्कि उसकी पूजा की जाती है। रावण का यह स्थान उज्जैन जिले का चिखली गांव है। यहां के बारे में कहा जाता है कि रावण की पूजा नहीं करने पर गांव जलकर राख हो जाएगा। इसी डर से ग्रामीण यहां रावण दहन नहीं करते और उसकी मूर्ति की पूजा करते हैं।
राजस्थान
राजस्थान के जोधपुर में भी रावण का मंदिर और उसकी प्रतिमा स्थापित है। कुछ समाज विशेष के लोग यहां पर रावण का पूजन करते हैं और खुद को रावण का वंशज मानते हैं। इस स्थान को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। कुछ लोग इसे रावण का ससुराल बताते हैं। जोधपुर जिले के मन्दोदरी नाम के क्षेत्र को रावण और मन्दोदरी का विवाह स्थल माना जाता है। जोधपुर में रावण और मन्दोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। शहर के चांदपोल क्षेत्र में रावण का मंदिर बनाया गया है।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के अमरावती में भी रावण को पूजा जाता है। यहां गढ़चिरौली नामक स्थान पर आदिवासी समुदाय रावण की पूजा करता है। दरअसल, आदिवासी रावण की खास तौर से पूजा कर पर्व मनाते हैं। कहा जाता है कि यह समुदाय रावण और उसके पुत्र को अपना देवता मानता है।
कर्नाटक
कोलार जिले में लोग फसल महोत्सव के दौरान रावण की पूजा करते हैं। इस मौके पर जुलूस भी निकाला जाता है। ये लोग रावण की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वह भगवान शिव का परम भक्त था। लंकेश्वर महोत्सव में भगवान शिव के साथ रावण की प्रतिमा भी जुलूस में निकाली जाती है। इसी राज्य के मंडया जिले के मालवल्ली तहसील में रावण का एक मंदिर भी है।
आंध्रप्रदेश
आंध्रप्रदेश के काकिनाड नामक स्थान पर भी रावण का मंदिर बना हुआ है, जहां भगवान शिव के साथ उसकी भी पूजा की जाती है। यहां पर विशेष रूप से मछुआरा समुदाय रावण का पूजन अर्चन करता है। यहां को लेकर उनकी कुछ और भी मान्यताएं हैं।
हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश में स्थित कांगड़ा जिले का बैजनाथ कस्बा भी रावण की पूजा के लिए जाना जाता है। यहां के बारे में कहा जाता है कि रावण ने यहां पर भगवान शिव की तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे मोक्ष का वरदान दिया था। इसलिए शिव के इस भक्त का इस स्थान पर पुतला नहीं जलाया जाता।
दिल्ली
राजधानी से लगे धरसींवा क्षेत्र के ग्राम मोहदी में रावण ग्रामीणों के लिए आस्था का प्रतीक बना हुआ है। यहां रावण की मूर्ति की विशेष पूजा-अर्चना कर गांव में अमन-चैन की मन्नतें मांगी जाती है। प्रतिवर्ष दशहरा पर्व पर रावण की सामूहिक पूजा की जाती है। उसने जबसे होश संभाला है तबसे अपने पूर्वजों को भी रावण महाराज की प्रतिमा का पूजन करते और मनौती मांगते ही देखा है। संकट के समय गांव के लोग नारियल चढ़ाते हैं। मत्था टेककर मनौती मांगते हैं। मोहदी में अकोली मार्ग तिराहे पर उत्तर दिशा मुखी रावण प्रतिमा की प्रति वर्ष पेंटिंग की जाती है। 82 वर्ष पूर्व मोहदी में गोविंदराव मालगुजार नामक समाजसेवी ने रावण प्रतिमा की स्थापना की थी। उन्होंने भी अपने पूर्वजों को रावण प्रतिमा को पूजन करते और मनौती मांगते देखा था। वही परंपरा आज भी चल रही है।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर कानपुर में रावण एक बहुत ही प्रसिद्ध दशानन मंदिर है। कानपुर के शिवाला इलाके के दशानन मंदिर में शक्ति के प्रतीक के रूप में रावण की पूजा होती है। यहां श्रद्धालु तेल के दिए जलाकर रावण से अपनी मन्नतें पूरी करने की प्रार्थना करते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1890 में किया गया था। रावण के इस मंदिर के द्वार साल में केवल एक बार दशहरे के दिन ही खोले जाते हैं। परंपरा के अनुसार दशहरे पर सुबह मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं। फिर रावण की प्रतिमा का साज शृंगार कर आरती की जाती है। दशहरे पर रावण के दर्शन के लिए इस मंदिर में भक्तों की भीड़ लगी रहती है। शाम को मंदिर के दरवाजे एक साल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।
जसवंतनगर
उत्तर प्रदेश के जसवंतनगर में दशहरे पर रावण की आरती उतारकर पूजा की जाती है। फिर उसे मार-मारकर उसके टुकड़े किए जाते हैं। इसके बाद लोग रावण के टुकड़ों को घर ले जाते हैं और तेरहवें दिन रावण की तेरहवीं भी की जाती है।
बिसरख
यूपी के नोएडा में बिसरख नामक गांव में भी रावण का मंदिर बना हुआ है, जहां उसका पूजन होता है। ऐसा माना जाता है कि बिसरख गांव रावण का ननिहाल था। माना जाता है कि बिसरख का नाम पहले विश्वेशरा था जो रावण के पिता के नाम पर रखा गया है।