Guru Purnima Importance: आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा, यहां सारा ज्ञान आपके लिए
Guru Purnima Importance: साल में और भी पूर्णिमाएं हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है या आपको मालूम है कि आषाढ़ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा क्या मनाते हैं।
Guru Purnima Importance: धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा।
और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? ज्यादा ठीक होता, ज्यादा मौजूं मालूम पड़ता। नहीं, लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से।
शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसीलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।
पूर्णिमा की जरूरत
अगर यह समझ में आ जाए काव्य-प्रतीक, तो आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल हम में भरा है, और न मालूम कितने जन्मों-जन्मों के संस्कार लेकर हम चल रहे हैं, हम बोझिल हैं। हमें अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा की जरूरत है!
चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, ज्यादा समानांतर होता, तथ्यगत होता, क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोड़ा समझना होगा।
चांद की रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है। चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि दीये को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीये की रोशनी का प्रतिफलन है, वापस लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है।
चांद को ही गुरु के लिए क्यों चुना गया?
हमने गुरु को सूरज कहा होता, तो बात ज्यादा दिव्य और गरिमापूर्ण लगती। सूरज के पास प्रकाश भी विराट है। चांद के पास कोई बहुत बड़ा प्रकाश थोड़े ही है, बड़ा सीमित है। पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक और तब हमने चांद को चुना है- दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है, वह केवल निमित्त मात्र है, वह केवल दर्पण है।
हम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधे देखना भी बहुत मुश्किल है। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ भी सीधा देखना असंभव है। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, हम संभाल न पायेंगे, असह्य हो जाएगी। हम उसमें टूट जायेंगे, खंडित हो जायेंगे, विकसित न हो पायेंगे। इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है, शिष्य की सामर्थ्य के बिल्कुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है।
गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और हमें दे देता है। लेकिन इस देने में वह रोशनी को मधुर और सहनीय बना देता है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है।
इसीलिए तो कबीर ने कहा है,
गुरु गोविंद दोऊ खड़े
काके लागूं पांय।
किसके छुऊं पैर? वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं।
फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए।
क्योंकि,
बलिहारी गुरु आपकी,
जो गोविंद दियो बताय।
= साभार गीता दर्शन (भाग-८, अध्याय--१८)