मोदी के खिलाफ सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरीं ममता, राहुल की दावेदारी और कमजोर

पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से देश में विपक्ष की राजनीति पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा काफी बढ़ गया है।

Written By :  Anshuman Tiwari
Published By :  Roshni Khan
Update: 2021-05-03 04:43 GMT

ममता बनर्जी और पीएम मोदी (सोशल मीडिया)

नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से देश में विपक्ष की राजनीति पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा काफी बढ़ गया है। इन चुनाव नतीजों से ममता बनर्जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरी हैं। पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को लगे जबर्दस्त झटके ने भी ममता बनर्जी की दावेदारी को और मजबूत बनाया है।

देश के विभिन्न राज्यों में सक्रिय क्षेत्रीय क्षत्रप भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को मिली प्रचंड जीत के बाद उनके सामने बौने साबित होते दिख रहे हैं। इन चुनाव नतीजों से साफ हो गया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी पीएम मोदी के खिलाफ विपक्ष की ओर से सबसे बड़ा चेहरा साबित हो सकती हैं।

बंगाल में भाजपा की सारी कोशिशें फेल

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में लोगों की सबसे ज्यादा दिलचस्पी पश्चिम बंगाल को लेकर थी क्योंकि भाजपा ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी थी। पार्टी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के अलावा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा, केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई प्रमुख नेताओं ने पश्चिम बंगाल का लगातार दौरा करके ममता बनर्जी को घेरने की कोशिश की थी।

भाजपा की ओर से लगातार 200 से ज्यादा सीटें हासिल करने का दावा किया जा रहा था मगर भाजपा के सारे दावे धरे के धरे रह गए और ममता बनर्जी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि पश्चिम बंगाल की सियासत पर उनकी मजबूत पकड़ कायम है।

कांग्रेस का निराशाजनक प्रदर्शन

दूसरी ओर चुनावों में कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन ने पार्टी के नेता राहुल गांधी की दावेदारी को और कमजोर कर दिया है। कांग्रेस को असम और केरल से खासतौर पर उम्मीदें थीं और यही कारण था कि राहुल और प्रियंका ने इन दोनों राज्यों पर विशेष रूप से फोकस किया था। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने पश्चिम बंगाल पर तो कोई ध्यान ही नहीं दिया।

राहुल और प्रियंका के रवैये से पहले ही साफ हो गया था कि उन्हें पश्चिम बंगाल में पार्टी के लिए कोई खास उम्मीद नजर नहीं आ रही है। लेकिन असम और केरल में राहुल और प्रियंका ने लगातार दौरे किए।

अब राहुल पर भारी पड़ेंगी ममता

उम्मीद की जा रही थी कि इन दो राज्यों में कांग्रेस दमदार प्रदर्शन कर सकती है मगर सारी उम्मीदें धूल धूसरित होकर रह गईं क्योंकि इन दो राज्यों में भी कांग्रेस उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा समय में राहुल गांधी की केरल की ही वायनाड सीट से सांसद भी हैं। राहुल गांधी के खाते में लगातार हार का जो सिलसिला दर्ज होता जा रहा है वह इन चुनावी नतीजों में भी नहीं टूट सका। यही कारण है कि जानकारों का मानना है कि उनकी दावेदारी पर ममता बनर्जी अब भारी पड़ती दिख रही हैं।

अकेले मोर्चा संभालकर जीती जंग

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की ओर से ममता बनर्जी ने अकेले ही मोर्चा संभाले रखा और भाजपा की ओर से पूरी ताकत और संसाधनों के झोंके जाने के बावजूद चुनौतियों का डटकर मुकाबला किया। उन्होंने अकेले मोर्चा संभालते हुए एक बहुत ही कठिन चुनाव जीतकर देश के सबसे मजबूत नेता माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीति की बिसात पर मात दे दी। हालांकि टीएमसी की जीत में नंदीग्राम में ममता बनर्जी के हार ने रंग में भंग जरूर कर दिया मगर इतना जरूर है कि ममता बनर्जी ने मोदी और शाह की ताकतवर जोड़ी को अपनी ताकत दिखा दी।

ममता ने दिया बड़ा संदेश

मौजूदा समय में पूरे देश को व्याकुल करने वाली कोरोना वायरस की लहर के कारण पीएम मोदी खास तौर पर एक बड़े वर्ग के निशाने पर आ गए हैं। हालांकि भाजपा को अभी तीन साल बाद लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरना है मगर इस दौरान ममता बनर्जी ने यदि खुद को और मजबूत साबित किया तो निश्चित तौर पर वे मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा चेहरा बनकर उभरेंगी।

इन चुनाव नतीजों के जरिए ममता बनर्जी यह संदेश देने में भी कामयाब हुई हैं कि तमाम अपने लोगों का साथ छोड़ने के बावजूद भी वे तनिक भी नहीं घबराईं और लगातार मोर्चे पर डटे रहकर एक बड़ी जंग जीतने में कामयाब हुईं।

हिंदी भाषी राज्यों में होगी परीक्षा

हालांकि अभी देखने वाली बात होगी कि भाजपा पर यूपी और बिहार से गुंडों को बुलाकर चुनाव प्रचार कराने का आरोप लगाने वाली ममता बनर्जी को हिंदी भाषी राज्यों के लोग कहां तक स्वीकार कर पाते हैं। एक बात तो साफ है कि दिल्ली का की सत्ता का रास्ता हिंदी भाषी राज्यों से होकर ही गुजरता है और यह देखने वाली बात होगी कि यहां के लोग उनका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार होते हैं या नहीं।

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