Yousuf Khan Kaise Bane Dilip Kumar: यूसुफ खान से दिलीप कुमार बनने की कहानी

Yousuf Khan Kaise Bane Dilip Kumar: दिलीप कुमार ने अपने करियर की शुरुआत 1944 में की, जब उन्होंने 'जुआरी' नामक फिल्म में काम किया। हालांकि, यह फिल्म सफल नहीं हो पाई, लेकिन उनकी अभिनय क्षमता को पहचानने में देर नहीं लगी।

Written By :  AKshita Pidiha
Update:2024-12-10 20:07 IST

यूसुफ खान से दिलीप कुमार बनने की कहानी: Photo- Social Media

Yousuf Khan Kaise Bane Dilip Kumar: दिलीप कुमार, जिनका असली नाम मोहम्मद यूसुफ खान था, भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े और सम्मानित अभिनेता माने जाते हैं। उनकी अदाकारी ने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी और उन्हें 'ट्रैजेडी किंग' के तौर पर पहचाना गया। उनका जीवन न केवल फिल्मी जगत में बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। उनकी जीवन यात्रा बहुत ही प्रेरणादायक और रोमांचक रही है।

प्रारंभिक जीवन: दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर, 1922 को पाकिस्तान के पेशावर शहर में हुआ था, जो तब ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। उनके पिता का नाम लतीफ उल्लाह खान और माता का नाम ऐश्वरिया था। उनका परिवार बहुत साधारण था, और उनका बचपन काफी कठिनाइयों में बिता। जब दिलीप कुमार का परिवार भारत में आकर बस गया, तो वे मुंबई में रहने लगे। उनकी शिक्षा भी मुंबई में ही हुई थी, जहां उन्होंने अपने स्कूल की पढ़ाई पूरी की।दिलीप कुमार का बचपन फिल्मी दुनिया से दूर था, वे एक सामान्य लड़के की तरह अपनी जिंदगी जी रहे थे। लेकिन उनका गहरा लगाव कला और अभिनय से था, और यही उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में लेकर आया। उनकी पहली मुलाकात फिल्म निर्माता देविका रानी से हुई, जिन्होंने उन्हें फिल्मों में आने का प्रस्ताव दिया।

फिल्मी करियर की शुरुआत-

दिलीप कुमार ने अपने करियर की शुरुआत 1944 में की, जब उन्होंने 'जुआरी' नामक फिल्म में काम किया। हालांकि, यह फिल्म सफल नहीं हो पाई, लेकिन उनकी अभिनय क्षमता को पहचानने में देर नहीं लगी। दिलीप कुमार ने 1947 में अपनी दूसरी फिल्म 'शाही रास्ता' में अभिनय किया, लेकिन वह फिल्म भी खास सफलता नहीं पा सकी। इसके बाद उन्होंने 'जुगनू' (1947) फिल्म की, जो काफी सफल रही और उन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ी। साल 1949 में दिलीप कुमार की फिल्म 'दाग' आई, जो उनके करियर की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म के जरिए उन्होंने अपनी अदाकारी को साबित किया और उन्हें दर्शकों का दिल जीतने का मौका मिला। इसके बाद उन्होंने 'अंदाज' (1949), 'दीदार' (1951), 'आदमी' (1953), और 'मधुमती' (1958) जैसी फिल्मों में अपने अभिनय से एक अलग ही पहचान बनाई।दिलीप कुमार का अभिनय गहरी संवेदनशीलता और दिल को छूने वाली भावनाओं से भरपूर था। उनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी और उन्हें अभिनय के उच्चतम मानकों पर स्थापित किया। उन्होंने ट्रैजेडी की भूमिकाओं में बहुत नाम कमाया और यही कारण है कि उन्हें 'ट्रैजेडी किंग' कहा गया।

दिलीप कुमार की प्रमुख फिल्में-

देवदास (1955) - इस फिल्म ने उन्हें सबसे बड़ा स्टार बना दिया। 'देवदास' के किरदार ने दिलीप कुमार को एक अमर अभिनेता बना दिया। उनके अभिनय ने इस फिल्म को एक ऐतिहासिक मुकाम दिलाया।

मुगल-ए-आज़म (1960) - यह फिल्म भारतीय सिनेमा का ऐतिहासिक क्लासिक बन गई। दिलीप कुमार का 'अकबर' के रूप में अभिनय और उनकी शानदार संवाद अदायगी ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

गंगा जमुना (1961) - इस फिल्म में दिलीप कुमार ने गाँव के एक शख्स की भूमिका निभाई थी, जो अपने संघर्षों और परिवार की जिम्मेदारियों से जूझता है। इस फिल्म को भी जबरदस्त सफलता मिली।

राम और श्याम (1967) - इस फिल्म में दिलीप कुमार ने दो विपरीत व्यक्तित्व वाले भाइयों का किरदार निभाया था। यह फिल्म उनके करियर के उच्चतम मुकामों में से एक थी। कोहिनूर (1960), क्रांति (1981) और शक्ति (1982) जैसी फिल्मों में भी दिलीप कुमार के अभिनय को खूब सराहा गया।

निजी जीवन-

दिलीप कुमार की निजी जिंदगी भी काफी चर्चा का विषय रही। उन्होंने 1966 में अभिनेत्री सायरा बानो से शादी की, जो उनसे काफी छोटी थीं। सायरा बानो से उनकी शादी एक सुखमय और प्रेमपूर्ण रिश्ता बन गई। उनके साथ दिलीप कुमार की जोड़ी को हमेशा सिनेमा में याद किया जाएगा।हालांकि दिलीप कुमार का व्यक्तिगत जीवन कभी भी विवादों से पूरी तरह मुक्त नहीं रहा। उनके जीवन में कुछ ऐसे मोड़ भी आए जब उन्हें व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन के बीच संतुलन बनाने में मुश्किलें आईं, लेकिन उन्होंने हमेशा अपने काम को प्राथमिकता दी और सिनेमा के लिए समर्पित रहे।

राजनीतिक और सामाजिक जीवन-

दिलीप कुमार न केवल एक अभिनेता थे, बल्कि वे एक सजग और जागरूक नागरिक भी थे। उन्होंने समाज में हो रहे असमानताओं और अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। उन्होंने अपनी पहचान का इस्तेमाल हमेशा समाज के भले के लिए किया। दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज हस्ताक्षर होने के बावजूद सादगी से भरे व्यक्ति थे।उनकी समाजसेवा और राजनीति में भी रुचि थी, हालांकि उन्होंने खुद को कभी भी पूरी तरह से राजनीति से नहीं जोड़ा। वे कई बार सार्वजनिक मंचों पर अपनी आवाज उठाते थे, खासकर मुस्लिम समुदाय और भारत-पाकिस्तान संबंधों पर। दिलीप कुमार ने कई बार पाकिस्तान और भारत के बीच बेहतर रिश्तों की बात की थी।

स्वास्थ्य और मृत्यु-

दिलीप कुमार को जीवन के अंतिम दिनों में स्वास्थ्य की समस्याओं का सामना करना पड़ा। वे काफी समय से वृद्धावस्था से जुड़ी बीमारियों से जूझते रहे। 7 जुलाई, 2021 को दिलीप कुमार का निधन हो गया और इस खबर ने पूरे देश को शोक में डाल दिया। उनका निधन भारतीय सिनेमा की एक बड़ी क्षति मानी गई, क्योंकि दिलीप कुमार का नाम हमेशा सिनेमा के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।

दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा 'वजूद और परछाईं' में अपने नाम बदलने का किस्सा साझा किया है। वह बताते हैं कि देविका रानी, जो बॉम्बे टॉकीज की प्रमुख थीं, ने उन्हें एक दिन ऑफिस बुलाया और सलाह दी कि वह फिल्मों के लिए एक नया नाम रखें। देविका रानी ने उन्हें यूसुफ खान से 'दिलीप कुमार' नाम अपनाने की सलाह दी, जो अभिनेता की रोमांटिक छवि के अनुकूल था। यह नाम उनके फिल्मी करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।

पुणे मे सैन्डविच की दुकान-

दिलीप कुमार ने एक समय अपने पिता से अनबन के बाद पुणे में सैंडविच की दुकान खोली। यह दुकान कैंट एरिया में थी और जब इसका अनुबंध खत्म हुआ, तो वे 5000 रुपये जोड़कर वापस लौटे, जो उस समय के हिसाब से एक बड़ी रकम थी।

उन्होंने एक्टिंग की अपनी अनोखी शैली विकसित की, जो उस समय के लाउड एक्टिंग से अलग थी। दिलीप कुमार की एक्टिंग ने नेचुरल अभिनय को स्थापित किया, जिसे बाद में बॉलीवुड में अपनाया गया। उनके द्वारा निभाए गए किरदार इतने सजीव होते थे कि वे उनमें पूरी तरह डूब जाते थे, जैसे ‘नया दौर’ में तांगा चालक या ‘कोहिनूर’ में सितार बजाने वाला नायक।

स्वतंत्रता संग्राम मे हुए शामिल-

दिलीप कुमार का जन्म भारत की आजादी से पहले हुआ था और उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को करीब से देखा। कैंटीन में काम करते हुए उन्होंने साथी के आग्रह पर भारत की प्रशंसा में भाषण दिया। इसमें उन्होंने आजादी की लड़ाई को जायज ठहराया और ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की। अंग्रेज सरकार के खिलाफ बोलने के जुर्म में उन्हें जेल भेज दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनका यह साहसिक दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व का एक अहम पहलू था।

दिलीप कुमार का कथित तौर पर अभिनेत्री मधुबाला के साथ सात साल तक रोमांटिक रिश्ता था, जो तराना (1951; ‘एंथम’) जैसी फिल्मों में उनकी सह-कलाकार थीं ।इन्हें नया दौर में एक दूसरे के विपरीत लिया गया था, जिस समय तक रोमांस खत्म होने के कगार पर था। लगभग 10 दिनों तक फिल्मांकन करने के बाद, मधुबाला के पिता ने उन्हें बाहरी शूटिंग के लिए जाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। निर्देशक बीआर चोपड़ा ने उनकी जगह अभिनेत्री वैजयंतीमाला को ले लिया, जिसके बाद मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान ने उन पर मुकदमा दायर कर दिया। एक बहुचर्चित अदालती मामला सामने आया जिसमें सितारों ने विरोधी पक्ष लिए- मधुबाला ने अपने पिता का समर्थन किया और कुमार ने चोपड़ा के समर्थन में उनके खिलाफ गवाही दी।दिलीप कुमार को ‘ट्रेजेडी किंग’ कहा जाता है। लेकिन उनकी प्रतिभा केवल गंभीर भूमिकाओं तक सीमित नहीं थी; उन्होंने कॉमेडी भी की। उन्होंने अपने करियर में 8 फिल्मफेयर अवॉर्ड्स जीते। उनकी आखिरी रोमांटिक फिल्म ‘बैराग’ (1976) फ्लॉप रही, जिसके बाद उन्होंने लवर बॉय के किरदारों को छोड़ने का निर्णय लिया। इसके बाद उन्होंने चार साल का ब्रेक लिया।

1981 में, उन्होंने फिल्म ‘क्रांति’ से वापसी की, जिसमें उनकी भूमिका छोटी लेकिन प्रभावशाली थी। ‘शक्ति’ में अमिताभ बच्चन के साथ और बाद की फिल्मों में नसीरुद्दीन शाह के साथ काम कर उन्होंने अपनी अभिनय विविधता को साबित किया।

अवार्ड और सम्मान-

वे आखिरी बार 1998 में आई फिल्म 'किला' में नजर आए थे। उन्होंने अपने पांच दशक के फिल्मी करियर में एक से बढ़कर एक सुपरहिट फिल्में दीं। दिलीप कुमार को 2015 में उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा गया था। उन्हें 1994 में दादासाहेब फाल्के अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।दिलीप कुमार और शाहरुख खान ने फिल्मफेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए आठ-आठ बार जीतने का रिकॉर्ड साझा किया। 1994 में दिलीप कुमार को फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। 1995 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। कुमार को 1991 में पद्म भूषण और 2015 में पद्म विभूषण जैसे भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार मिले। 1998 में उन्हें पाकिस्तान का निशान-ए-इम्तियाज सम्मान दिया गया। उसी वर्ष अभिनय से संन्यास लेने के बाद, 2000-2006 तक वे राज्यसभा सदस्य के रूप में कार्यरत रहे।

कैसे मिला फिल्मों मे मौका-

बॉम्बे टॉकीज, उस समय हिंदी सिनेमा का एक सफल प्रोडक्शन हाउस था। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा "द सबस्टांस एंड द शैडो" में लिखा है कि डॉक्टर मसानी ने देविका रानी से उनका परिचय कराया। देविका रानी ने उनसे उर्दू ज्ञान के बारे में पूछा, जिसे दिलीप कुमार ने सकारात्मक रूप से स्वीकार किया। इस बातचीत के दौरान, देविका रानी ने उनकी पृष्ठभूमि को जानने के बाद, उन्हें एक कलाकार के रूप में काम करने का प्रस्ताव दिया, जो उनके करियर की शुरुआत बन गया।

दिलीप कुमार का जीवन भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। उनकी अदाकारी ने न केवल भारतीय सिनेमा को आकार दिया बल्कि उन्होंने दुनियाभर में भारतीय फिल्मों को प्रतिष्ठित किया। उनका जीवन संघर्ष और सफलता की कहानी है, जिसने न केवल सिनेमा के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाया, बल्कि यह भी बताया कि एक कलाकार का जीवन समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण हो सकता है। दिलीप कुमार ने सिनेमा को एक नया दृष्टिकोण और नया आयाम दिया। उनका योगदान भारतीय सिनेमा के इतिहास में हमेशा जीवित रहेगा।

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