श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष: नवयुग के अलौकिक सर्जक!

Update:2017-08-13 22:36 IST
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष: नवयुग के अलौकिक सर्जक!

पूनम नेगी

लखनऊ: लीलाधर कृष्ण के जीवन चरित्र का भारतीय जनमानस पर अद्भुत प्रभाव है। जन्म से लेकर मोक्ष तक वो भारतीय जनमानस से जुड़े रहे। उनके चरित्र को लोग इतने निकट पाते हैं कि लगता है कि ये सब उनके घर में ही घटित हुआ हो। कृष्ण आत्मतत्व के मूर्तिमान स्वरूप हैं।

कृष्ण की लीलाएं बताती हैं कि व्यक्ति और समाज आसुरी शक्तियों का हनन तभी कर सकता है, जब कृष्णरूपी आत्म-तत्व चेतन में विराजमान हो। ज्ञान और भक्ति के अभाव में कर्म का परिणाम कर्तापन के अहंकार में संचय होने लगता है। सर्वात्म रूप कृष्णभाव का उदय इस अहंकार से हमारी रक्षा करता है।

कृष्ण जीवनभर यताति रहे, भटकते रहे लेकिन दूसरों का सहारा बने रहे। बाल लीलाएं करके गांव वालों को बहुत-सी व्याधियों से बचाया, कर्मयोगी बनाया, बुरी परंपराओं से आजाद कराया। कृष्ण सभी दृष्टि से पूर्णावतार हैं। आध्यात्मिक, नैतिक या दूसरी किसी भी दृष्टि से देखेंगे तो मालूम होगा कि कृष्ण जैसा समाज उद्धारक दूसरा कोई पैदा हुआ ही नहीं। श्रीकृष्ण जन्म का घटनाक्रम बड़ा विचित्र था। जन्म से ही जिसकी हत्या की बिसात बिछाई गई हो, जिसे जन्म से ही अपने माता-पिता से अलग कर दिया हो, जिसने अपना संपूर्ण जीवन तलवार की धार पर जिया हो, वो ही इतने विराट व्यक्तित्व का धनी हो सकता है।

महान कार्य के लिए संसार में आने वाले हर संकट को नष्ट कर अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते रहते हैं। कृष्ण चेतना के सागर हैं, अलौकिक हैं, सभी कलाओं में माहिर हैं, जगत का विस्तार हैं । कृष्ण ने अवतार से लीला संवरण तक एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जो मानवता के उद्धार के लिए न हो। कृष्ण चरित्र सबको लुभाता है। कृष्ण संपूर्ण जिंदगी के पर्याय हैं।

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की महारात्रि में रोहिणी नक्षत्र की विशिष्ट ग्रहीय दशाओं में कारागार में माता देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाले इस महामानव के जन्म की तिथि जन्माष्टमी कई रूपों में अति विशिष्ट मानी जाती है। पौराणिक मान्यताओं के आधार पर भगवान विष्णु ने 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में 8वें अवतार के रूप में अवतरण लिया था, जिसे 'कृष्ण' कहा जाता है।

ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर कृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व में हुआ था। हिन्दू कालगणना के अनुसार 5126 वर्ष पूर्व कृष्ण का जन्म हुआ था। हमारे वेदों में चार रात्रियों का विशेष महात्म्य बताया गया है। दीपावली जिसे कालरात्रि कहते हैं, शिवरात्रि महारात्रि है, श्री कृष्ण जन्माष्टमी मोहरात्रि और होली अहोरात्रि। भगवान श्रीकृष्ण को संपूर्ण सृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है और इसी कारण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है।

लीलाधारी कृष्ण के जन्म का घटनाक्रम किसी फिल्मी कथानक से कम नहीं। उनके जन्म से पूर्व आकाशवाणी होती है, 'तेरी बहन का आठवां बालक तेरा काल होगा।' यह सुनते ही उस राज्य का राजा कंस उनके मां-बाप को जेल में डाल देता है। उन पर कड़े पहरे बैठा दिए जाते हैं। कारागार में वसुदेव-देवकी के एक-एक करके सातों बच्चों को जन्म लेते ही कंस मार डालता है। मगर लीलापुरुषोत्तम के जन्म से पूर्व अद्भुत घटना घटती है। जिस कोठरी में देवकी-वसुदेव कैद थे, वह अचानक प्रकाश से भर उठती है और उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए चतुर्भुज भगवान प्रकट होकर कहते हैं, 'पूर्व जन्म में मुझे पुत्र रूप में पाने के लिए की गयी तपस्या के सुफल के रूप में अब मैं तुम्हारे शिशु रूप में अवतरण लूंगा। तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में भेज आओ और उनके यहां जो कन्या जन्मी है, उसे लाकर कंस के हवाले कर दो।' यह कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो जाते हैं।

वसुदेव जब उस दिव्य शिशु को गोकुल ले जाने को प्रस्तुत होते हैं तो चमत्कारिक रूप से कारागार की सुरक्षा में तैनात पहरेदार सो जाते हैं, ताले स्वत: खुल जाते हैं। मूसलाधार वर्षा की उस महारात्रि में रौद्र रूप में उफनायी यमुना उस शिशु के चरण पखार कर शांत हो जाती हैं। शेषनाग बालक को बारिश से सुरक्षित करने के लिए छत्र बना लेते हैं। अथाह यमुना को पार कर नंदजी के घर पहुंचे। वहां उन्होंने नवजात शिशु को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए। कारागृह के फाटक पूर्ववत बंद हो गए। शिशु के जन्म की सूचना मिलते ही कंस ने बंदीगृह में जाकर देवकी के हाथ से नवजात शिशु को छीनकर ज्यों ही पृथ्वी पर पटक देना चाहा, त्यों ही वह कन्या अकाश में जा उड़ी और उसके काल के गोकुल में जन्म लेने की घोषणा कर विलुप्त हो गयी। जरा विचार कीजिए; सबकुछ कितना अलौकिक और अनुपम!

ग्वालों एवं बालाओं के साथ खेलने वाला सरल और मोहक कृष्ण इतने अगम्य हैं कि उसे जानने के लिए ज्ञानियों को कई जन्म लेने पड़ते हैं, तब भी उसे नहीं जान पाते। कृष्ण कई ग्रंथों के पात्र हैं । आज उन पर सैकड़ों ग्रंथ लिखे जा चुके हैं और तब भी लगता कि उन्हें तो किसी ने छुआ भी नहीं है। उन पर सैकड़ों वर्षों तक लिखने के बाद भी उनकी एक मुस्कान को ही परिभाषित नहीं किया जा सकता। कृष्ण का चरित्र व्यक्ति के सुखों एवं दुखों में आबद्ध है। राम का शैशव किसी को याद नहीं है, सिर्फ बालकांड तक सीमित है, लेकिन कृष्ण का बाल्यकाल हर घर की शोभा है। हर मां अपने बालक के बचपन की तुलना कृष्ण के बचपन से करती है। उनका घुटनों के बल चलना, पालने से नीचे गिरना, माखन के लिए जिद करना, माता को प्रति पल सताना हर घर का आदर्श है। उनका जीवन संदेश देता है कि जो भी पाना है, संघर्ष से पाना है।

कृष्ण के जन्म के साथ ही अनेक आसुरी शक्तियों ने उन्हें मारने की कोशिश की। सबसे पहले पूतना अपने वक्षस्थल पर विष लगा कर पहुंचती है परंतु वह भी समाप्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों कृष्ण बड़े हुए आपदाएं भी बढ़ती जाती हैं। अघासुर, बकासुर, त्रणावर्त, धेनुकासुर न जाने कितने असुर उन्हें मारने आते हैं पर सभी एक-एक कर समाप्त होते गए। कंस ने अनेक तरीके सोचे। धनुष यज्ञ का आयोजन रचा, अक्रूर जी को भेजा और श्रीकृष्ण को मथुरा बुला लिया वहीं यज्ञ शाला में मदमस्त कुबलियापीड़ हाथी तथा मुष्टिक एवं चाणूर पहवान उन पर टूट पड़े परंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें भी धराशायी कर दिया और कंस की छाती पर चढ़कर उसे भरी सभा में समाप्त कर अपने माता-पिता को उसकी कैद से मुक्त कराया और अपने नाना यानी कंस के पिता उग्रसेन के हाथों मथुरा की सत्ता सौंप कर भय और भ्रष्टाचार मुक्त शासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जरासंध 100 राजाओं का सिर काटकर शिवजी पर बलि चढ़ाने वाला था। कृष्ण ने इन दोनों आसुरी शक्तियों का संहार किया।

कृष्ण का जीवन दो छोरों में बंधा है। एक ओर बांसुरी है, जिसमें सृजन का संगीत है, आनंद है, अमृत है और रास है। तो दूसरी ओर शंख है, जिसमें युद्ध की वेदना है तथा गरल है। ये विरोधाभास समझाते हैं कि सुख है तो दुःख भी है। कहीं यशोदा नंदन की नटखट कथा तो कहीं गोपियों का मनमोहन, कहीं सुदामा का मित्र तो कहीं द्रोपदी का रक्षक; हर रिश्ते में रंगे कृष्ण का जीवन नवरस में समाया हुआ है। अपने पूरे जीवनकाल में वो भारतीय जनमानस का नेतृत्व करते हुए दिखाई देते हैं। बचपन में इन्द्र के अभिमान को चूर करके प्रकृति के स्वरूप गोवर्धन की पूजा करवाते हुए ग्रामीण जनों एवं किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्यायी कंस का वध करके पूरे परिवार एवं समाज को भयमुक्त बनाते हैं। गरीब सुदामा के प्रति उनका प्रेम समाज के दलित एवं शोषित वर्ग के उत्थान का प्रतिनिधित्व करता है। गीता का संबोधन समस्त मानव जाति को बुराइयों से बचने का संदेश है।

राधा-कृष्ण का प्रेम त्याग-तपस्या की पराकाष्ठा है। अगर ‘प्रेम’ शब्द का कोई समानार्थी है तो वो राधा-कृष्ण है। प्रेम शब्द की व्याख्या राधा-कृष्ण से शुरू होकर उसी पर समाप्त हो जाती है। राधा-कृष्ण के प्रेम में कभी भी शरीर बीच में नहीं था। जब प्रेम देह से परे होता है तो उत्कृष्ट बन जाता है और प्रेम में देह शामिल होती है तो निकृष्ट बन जाता है। रुक्मणि व कृष्ण की अन्य रानियों ने कभी भी कृष्ण और राधा के प्रेम का बहिष्कार नहीं किया। रुक्मणि राधा को तबसे मानती थीं, जब कृष्ण के वक्षस्थल में तीव्र जलन थी। नारद ने कहा, कि कोई अपने पैरों की धूल उनके वक्षस्थल पर लगा दे, तो उनका कष्ट दूर हो जाएगा। कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि भगवान के वक्षस्थल पर अपने पैरों की धूल लगाकर हजारों साल कौन नरक भोगेगा? लेकिन राधा सहर्ष तैयार हो गईं। उन्हें अपने परलोक की चिंता नहीं थी, कृष्ण की एक पल की पीड़ा हरने के लिए वह हजारों साल तक नरक भोगने को तैयार थी।

उस समय तो रुक्मणि चमत्कृत थी, जब कृष्ण के गरम दूध पीने से राधाजी के पूरे शरीर पर छाले आ गए थे। कारण था कि राधा तो उनके पूरे शरीर में विद्यमान हैं। कृष्ण की मुरली की तान ने कभी भी मर्यादाओं की सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया। राधा के प्रति उनका प्रेम तो अनन्य है लेकिन सभी अपनों के प्रति उनके प्रेम में कोई अलग भाव नहीं था। अपनी दोनों माताओं एवं पिताओं, अपनी रानियों, ग्वाल बालों, संगी-साथियों, ब्रज वनिताओं से भी कृष्ण उतने ही घनिष्ठ थे। उन्होंने रास रचाया, लेकिन उनके महारास का मुख्य उद्देश्य था अंतस में दिव्य चेतना की जागृति; जिसे कतिपय लोगों के अन्य अर्थ दे दिये। कृष्ण की कुशलता थी कि उन्होंने सबको एक जैसा स्नेह दिया। पशु-पक्षी, शिक्षित-अशिक्षित, रूपवान-कुरूप सभी को समदृष्टि से देखा और अपने स्नेह से वश में कर लिया।

राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं लेकिन कृष्ण की कोई एक उपाधि नहीं है। कृष्ण कहीं योगी, कहीं प्रेमी, कहीं योद्धा, कहीं युद्धभूमि से भागे रणछोड़, कहीं कूटनीतिज्ञ, कहीं भोले-भाले ग्वाले। मनुष्य जीवन के जितने रंग, जितने सद्गुण, जीवन जीने के जितने आदर्श और व्यावहारिक दृष्टिकोण हैं, वे सब कृष्ण में समाहित हैं। आसक्ति से अनासक्ति का भाव सिर्फ कृष्ण में है। आसक्ति और विरक्ति की पराकाष्ठा कृष्ण का जीवन है। मेघ की तरह बरसकर रीता हो चल दिया इसलिए कृष्ण भारतीय जनमानस के नायक हैं। श्री कृष्ण कर्म मार्ग पर आचरण करने के लिए कहते हैं । अपने अपने धर्म में रहते हुए कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के लिए कहते हैं। योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं आत्माओं में उत्तम आत्मा हूँ; इसलिए पुरुषोतम हूँ | मैं अविद्या से अत्यंत सच्चिदानंदघन परब्रह्म हूं।

शास्त्र कहते हैं कि जिस स्थान पर ईश्वर या देवता अपनी दिव्य शक्ति के रूप में विराजमान होते हैं वह तीर्थ कहलाता है । इसी प्रकार जिस दिन परमेश्वर स्वयं अवतरित होते हैं वह दिन पूज्य, पवित्रता देने वाला व पर्वमय हो जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन मंदिरों को खासतौर पर सजाया जाता है, झांकियां सजाई जाती हैं और भगवान श्रीकृष्ण को झूला झुलाया जाता है और रासलीला का आयोजन होता है। माखन चोर श्रीकृष्ण के जन्म दिवस पर मटकी फोड़ प्रतियोगिता को हम खेल खेल में एक उपदेश के तौर पर समझ सकते है कि किस तरह स्वयं को संतुलित रखते हुए लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है; क्योंकि संतुलन और एकाग्रता का अभ्यास ही सुखमय जीवन का आधार है।

सृजन के अधिपति, चक्रधारी मधुसूदन का जन्मदिवस उत्सव के रूप में मनाकर हम सभी में उत्साह का संचार होता है और जीवन के प्रति सृजन का नजरिया जीवन को खुशनुमा बना देता है। यशोदा नंदन, देवकी पुत्र कृष्ण भारतीय समाज में सदियों से पूजे जा रहे हैं। तार्किकता के धरातल पर कृष्ण एकमात्र ऐसे राष्ट्रनायक हैं, जिसमें जीवन के सभी पक्ष विद्यमान है।

कृष्ण वो किताब हैं जिससे हमें ऐसी कई शिक्षाएं मिलती हैं जो विपरीत परिस्थिति में भी सकारात्मक सोच को कायम रखने की सीख देती हैं। समस्त शक्तियों के अधिपति युवा कृष्ण महाभारत में कर्म पर ही विश्वास करते हैं। कृष्ण का मानवीय रूप महाभारत काल में स्पष्ट दिखाई देता है। गोकुल का ग्वाला, बिरज का कान्हा धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों के मायाजाल से दूर मोह-माया के बंधनों से अलग है। कंस हो या कौरव-पांडव, दोनो ही निकट के रिश्ते फिर भी कृष्ण ने इस बात का उदाहरण प्रस्तुत किया कि धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों की बजाय कर्तव्य को महत्व देना आवश्यक है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि कर्म प्रधान गीता के उपदेशों को यदि हम व्यवहार में अपना लें तो हम सब की चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है। कृष्ण के अवतरण दिवस के पर्व पर संकल्पित होकर उनके चरित्र के कुछ अंशों व कुछ आदर्शों को अपने जीवन में आत्मसात कर सकें तभी इस पर्व को मनाने की सार्थकता है।

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