"धरती बाबा" जन्म दिन विशेष- आदिवासी नेता बिरसा मुंडा को शत शत नमन

Update:2018-11-15 16:32 IST

देश के आदिवासी समाज में रोशनी बन कर जन्म लेने वाले लोकनायक बिरसा मुंडा नदी के प्रवाह की तरह अपने जीवन में बहते रहे। लोकरीति और जन जनसमस्याओं के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करते विरसा को अपने जीवन में कई उपाधियां मिली।लोगों का विश्वास और प्यार इस हद तक विरसा के साथ रहा कि वो 'धरती बाबा', 'बिरसा भगवान',के रूप में पूजे जाने लगे।बिरसा के नेतृत्‍व में पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

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भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बिरसा मुंडा के नेतृत्व हिम्मत और मिसाल से क्रांतिकारियों के हौसले बढ़ते ही गए। बिरसा मुंडा का जन्म आज के ही दिन यानी 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था। संगीत प्रेमी बिरसा का बचपन चल्कड़ में बीता ,अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध आंदोलन खड़ा किया,धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रखा, और फिर बिरसा दाउद बने और अन्त में फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।

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सुगना मुंडा और करमी हटू के पुत्र बिरसा

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था। मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था। बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था। उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया जहा वो खेतों में काम करके अपना जीवन चलाते थे। उसके बाद फिर काम की तलाश में उनका परिवार बम्बा चला गया।

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स्वामी आनन्द पाण्डे से सम्पर्क में आने के बाद विरसा बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। वहीं इन्हें हिंदू धर्म ग्रंथों के बारे पता चलना शुरू हुआ। रामायण और महाभारत की कहानियों तो विरसा के जीवन में अचानक मोड़ ला दिया। भगवान के प्रति इनक विश्वास दृढ़ होता चला गया।1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं।

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संगीत प्रेमी विरसा

बिरसा का अधिकांश बचपन चल्कड़ में बीता था। बिरसा बचपन से अपने दोस्तों के साथ रेत में खेलते रहते थे और थोडा बड़ा होने पर उन्हें जंगल में भेड़ चराने जाना पड़ता था। जंगल में भेड़ चराते वक़्त समय व्यतीत करने के लिए बाँसुरी बजाया करते थे और कुछ दिनों बाँसुरी बजाने में उस्ताद हो गये थे।उन्होंने कद्दू से एक एक तार वाला वादक यंत्र तुइला बनाया था जिसे भी वो बजाया करते थे। उनके जीवन के कुछ रोमांचक पल अखारा गाँव में बीते थे।

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होशियार थे पढाई में बिरसा

गरीबी के इस दौर में बिरसा को उनके मामा के गाँव अयुभातु भेज दिया गया। अयुभातु में बिरसा दो साल तक रहे। वहाँ के स्कूल में पढने गये ।बिरसा पढाई में बहुत होशियार थे इसलिए स्कूल चलाने वाले जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने को कहा, उस समय क्रिस्चियन स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरूरी हुआ करता था तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था।

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अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा किया आंदोलन

बिरसा मुंडा एक आदिवासी नेता थे। ये मुंडा जाति से सम्बन्धित थे। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब 'बिरसा भगवान' कहकर याद करते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। 19वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे।

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हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी

जन-सामान्य का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।

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मुंडा विद्रोह का नेतृत्‍व

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया।

उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

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विद्रोह में भागीदारी

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उनके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।

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डोमबाड़ी पहाड़ी का संघर्ष

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।

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बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

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