जीवन दर्शन के लिए सुनें मन की पुकार, संसार निर्माण के पीछे दृष्टि महत्वपूर्ण
मनुष्य अपने चेतनाकाल से ही जीवन दर्शन के लिए लालायित रहा है। चेतना आते ही वह सोचने लगता है कि वह कौन है, कहां से आया है। उसके धरती पर आने का उद्देश्य क्या है। इस विषय पर चिंतन करना जरूरी है। चराचर जगत में प्रकृति निरंतर दृश्यमान है। हम जब प्रकृति और जीवन का संबंध तलाशते हैं तो यह अनेक रूपों में दिखाई पड़ता है। वैसे तो जीवन और दर्शन दो अलग-अलग शब्द हैं। इनको लेकर दार्शनिकों की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं। जीवन को जिसने जैसे देखा, वैसे ही परिभाषित किया। संसार के निर्माण के पीछे दृष्टि महत्वपूर्ण होती है।
परम उपलब्धि है जीवन : हमारे देश के ऋषियो-मुनियों ने जीवन को परम उपलब्धि माना है। वह जन्म से लेकर मृत्यु के बीच के अंतराल को ऐसा साधन बनाने का तरीका बताते हैं, जिससे कोई भी इन दोनों स्थितियों से पार जा सकता है। उसके जीवन के सभी भय समाप्त हो जाते हैं। जीवन एक पारदर्शी दर्पण की तरह है, जिससे सही परिभाषा मिलती है। हमारे दर्शन में एक शब्द है ‘सोऽहं’ (यानी मैं वही हूं), अहं ब्रह्माऽस्मि ( यानी मैं ब्रह्म हूं)। इसका भाष्य अलग-अलग मनुष्यों के जीवन के लिए अलग-अलग हो सकता है परन्तु तत्व एक है। अब आते हैं दर्शन शब्द पर। इसका साधारण अर्थ है देखना। इसका पारिभाषिक भाव तत्व विज्ञान है। मनुष्य ने देखने की शक्ति के साथ जन्म लिया है। जन्म के साथ ही मनुष्य के सामने एक विचित्र जगत होता है।
स्वभावत: मनुष्य की देखने की क्षमता का जितना विकास होता है उतना ही मनुष्य अनुभव करता है कि देखने में दृश्य जगत के साथ मनुष्य का यथार्थ से परिचय नहीं होता। मनुष्य यह अनुभव करने लगता है कि वह देखना संपूर्ण नहीं है। पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का अनवरत क्रम देखने पर प्रश्न यह उठता है कि इस संपूर्ण क्रम का उद्गम स्थल और विलीनता का केंद्र कहां है। प्रत्येक पदार्थ के किसी न किसी कारण से उत्पन्न होने का स्वभाव देखकर असंख्य पदार्थों के समिष्ट स्वरूप समस्त जगत के कारण संबंध का निर्णय करके जब तक पदार्थों के स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती, तब तक बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती कि यथार्थ बोध हो गया है।
बुद्धि के साथ भेदबोध का भी विकास : दृश्य जगत का क्रम देखते-देखते उनके केंद्र में रहने वाली नियम शृंखला की सत्ता हमारी दृष्टि को अपनी ओर खींचती है। निर्माण एवं ध्वंस के मूल में भी एकता और सामंजस्य जन्म लेता है। परमात्मा के उन सारे नियमों को और उनके अंतराल में विद्यमान, नियंत्रण करने वाली शक्ति को भलीभांति जाने बिना विकसित बुद्धि को इस बात का संतोष नहीं हो सकता कि संसार को संपूर्णता के साथ देख लिया है। इंद्रियों के विकार, मन के भाव और अवस्थाओं के परिवर्तन, ज्ञान की ह्रास-बुद्धि इन सबमें भी मनुष्य के ‘मैं’ का एकत्व नष्ट नहीं होता।
इस ‘मैं’ का भलीभांति परिचय पाए बिना मनुष्य का स्वयं को देखना, देखना है। अपने भीतर जिस ज्ञान की प्रेरणा, कर्म की प्रवृत्ति और भाव का हम सब अनुभव करते हैं, यह सब कहां से आते हैं। हमारे भीतर श्रेय और प्रेय, उचित और अनुचित, न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म का एक भेद बोध हमेशा मौजूद रहता है। हमारी बुद्धि के विकास के साथ-साथ इस बोध का भी विकास होता जाता है।
इस रहस्य का कोई आधार है या नहीं। यदि है तो उस आधार का स्वरूप क्या है, मनुष्य के जीवन का आंतरिक श्रेय क्या है, क्या करने पर मनुष्य की इच्छाओं की निवृत्ति होगी, इन समस्याओं के समाधान के बिना मानव अपने को पूर्ण रूप में नहीं देख सकता। इस प्रकार अपने और जगत के देखते-देखते बुद्धि के उत्कर्ष के साथ-साथ जिन गंभीर समस्याओं की उत्पत्ति होती है उन सभी समस्याओं का समाधान देखना होता है। तभी वह वास्तव में देखना होता है। ऐसे में ‘दर्शन’ शब्द का ही सही अर्थ निहित है। दर्शन एक प्रकार का अनुभव भी है। उस परमतत्व को श्रेष्ठ जनों ने अनंत रूपों में व्यक्त किया है। इसीलिए कहा गया है सर्वखलविदं ब्रह्म।सत्य की खोज में भूल जाती हैं कुछ बातें : हम जब सत्य की खोज करते हैं तो हम कुछ बातों को विस्मृत भी करते जाते हैं। जैसे सत्य हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में अभिव्यक्त होता है जो ज्ञान से रिक्त है। सत्य उस अवस्था में प्रकट होता है जब हमारा ज्ञान कार्यरत नहीं होता। मन ज्ञान का घर है। जब घर समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना सब छूट जाता है, तब उस अवस्था में जिज्ञासा की अभिव्यक्ति होती है, जो सत्य को जन्म देने में सक्षम है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति तथा अपनी अनुक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है।
आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते। सत्य कोई वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है। वह चैतन्य, सजीव व गतिमान है। जब मन सत्य की खोज करता है, तब वह परंपरागत प्रणाली, प्रतीकात्मक प्रतिक्रियाओं और पूर्ववर्ती धारणाओं का अनुशीलन कर आत्म प्रक्षिप्त को ही बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजता हुआ आत्म प्रक्षेपण को खोजने लगता है। अंतत: आदर्श आत्मप्रक्षेपण के कारण मन यथार्थ को नहीं, पर अयथार्थ को ही स्वीकार कर लेता है। यथार्थ वही है जो वास्तव में है, उसका कोई विपरीत नहीं। अब देखने वाली बात यह है कि हममें यथार्थ क्या है। समस्त भावों और धारणाओं के बीच हम जब लक्ष्य का चुनाव करते हैं तब हम पर हमारे ही विचारों का प्रक्षेपण होता है। आखिर वह क्या है, जिसकी खोज में हम जुटे हुए हैं। सत्य के अभाव में यह जानना नि:संदेह भ्रामक सिद्ध हो सकता है।सत्य के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट : हम अपने अस्तित्व को जिस तरह जानते हैं, वह कई तरह से प्रक्षेपित है। हम अनेक पूर्वाग्रहों, प्रतिबद्धताओं, धारणाओं से स्वयं को जानना चाहते हैं। इसीलिए यह जानकारी अधूरी सिद्ध होती है। हमारी समस्त जानकारियां जब मौन में विलीन हो जाएंगी तब हमें सत्य का प्रकाश दिखेगा। जैसे प्रकाश के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट रहता है, ठीक वैसे ही सत्य के अभाव में सबकुछ अस्पष्ट ही रहता है। सत्य रूपी सूरज का उदय होते ही जीवन में असीम ऊर्जा मुखरित हो जाती है और हमारा यह जीवन पवित्र मंदिर की तरह हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम जब भी जीवन के बारे में सोचें, मनुष्य और प्रकृति का संबंध निरूपित करें। अंतरात्मा की पुकार सुनें। उसका अनुभव करें। हम तभी सत्य तक पहुंच सकेंगे। हम तभी जीवन को समझ पाएंगे। उसका उद्देश्य जान पाएंगे और मानव मात्र का कल्याण कर पाएंगे।
योग का वास्तविक स्वरूप
योग सारे सम्प्रदायों और मत - मतान्तरों के पक्षपात और वाद- विवाद से रहित सार्वभौम धर्म है, जो तत्त्व का ज्ञान स्वयं अनुभव द्वारा प्राप्त करना सिखाता है और मनुष्य को उसके अंतिम ध्येय तक तक पहुंचाता है। योग के सम्बन्ध में नाना प्रकार की फैली हुई भ्रांतियों ले निवारणार्थ उसके वास्तविक स्वरूप को समझा देना आवश्यक है। मोटे शब्दों में योग स्थूलता से सूक्ष्मता की और जाना अर्थात बाहर से अन्तर्मुख होना है। चित्त की वृत्तियों द्वारा हम स्थूलता की ओर जाते हैं अर्थात अन्तर्मुख होते है।
आत्मतत्त्व से प्रकाशित चित्त, अहंकार रूप वृत्ति द्वारा, अहंकार, इंद्रियों और तन्मात्राओं रूप वृत्तियों द्वारा, तन्मात्राएं, सूक्ष्म और स्थूलभूत और इंद्रियां विषयों की वृत्तियों द्वारा बहिर्मुख हो रही हैं। जितनी वृत्तियां बहिर्मुख होती जाएंगी उतनी ही उसमें रज और तम की मात्रा बढ़ती जायेगी और उससे उलटा जितनी वृत्तियां अन्तर्मुख होती जाएंगी उतना ही रज और तम के तिरोभाव पूर्वक सत्त्व का प्रकाश बढ़ता जाएगा। जब कोई भी वृत्ति न रहे तब शुद्ध परमात्मास्वरूप शेष रह जाता हैं। योग के मुख्य तीन अंतर्विभाग किये जा सकते हैं- ज्ञान योग, उपासना योग और कर्मयोग।
ज्ञान योग - भौतिक पदार्थों का जान लेना अर्थात सांसारिक ज्ञान और विज्ञान, ज्ञानयोग नहीं हैं। बल्कि तीन गुणों और उससे बने हुए सारे पदार्थों से परे ( अर्थात स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर तथा स्थूल, सूक्ष्म, और कारण जगत अथवा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोष अथवा शरीर , इंद्रियों, मन, अहंकार और चित्त से परे गुणातीत शुद्ध परमात्मा को जिसके द्वारा इन सब में ज्ञान, नियम, और व्यवस्थापूर्वक क्रिया हो रही हैं। ) संशय, विपर्यय रहित पूर्ण रूप से जान लेना ज्ञान योग हैं। यह ज्ञान केवल पुस्तक पढ़ लेने से या शब्दों द्वारा सुन लेने मात्र से ही नहीं प्राप्त हो सकता। उसके लिए उपासना योग की आवश्यकता होती हैं।
उपासना योग - एक प्रत्यय का प्रवाह करना अर्थात चित्तवृत्तियों को सब ओर से हटाकर केवल एक लक्ष्य पर ठहराने का नाम उपासना हैं। किसी सांसारिक विषय की प्राप्ति के लिए इस प्रकार एक प्रत्यय का प्रवाह करना उपासना कहा जा सकता हैं उपासना योग नहीं। यह उपासना योग तभी कहलायेगा जब इसका मुख्य लक्ष्य शुद्ध परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति हो।