570 डॉक्टर के भरोसे बच्चे, मौत के साये में बचपन, व्यवस्था पर सवाल

Update: 2017-09-08 07:12 GMT

अमित यादव की स्पेशल रिपोर्ट

लखनऊ: गोरखपुर और फर्रुखाबाद के अस्पतालों में बच्चों की मौत ने पूरे देश को हिला दिया है। बच्चों की मौत की सिर्फ यही घटनाएं नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के सरकारी अस्पतालों में पिछले एक महीने के दौरान बच्चों की मौत के आंकड़े भयावह हैं। इन मौतों के कारण कोई भी हो सकते हैं-इलाज में लापरवाही या संसाधनों की कमी या कुछ और। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का कहना है कि जिन बच्चों की मौत हुई है वे बहुत कम वजन वाले थे। इसके अलावा पीलिया, सांस लेने में तकलीफ जैसे कारण भी गिनाए जा रहे हैं। लेकिन असलियत यह है कि यूपी में 6 साल तक के बच्चों की संख्या (2011 की जनगणना के मुताबिक) 2,97,28,235 है और सरकारी अस्पतालों में बाल रोग विशेषज्ञ हैं सिर्फ 570। शिशु मृत्यु दर को कम करने के लिए डॅाक्टर और एएनएम को प्रशिक्षण दिया जाता है। लेकिन नवजात और एक से पांच साल तक की उम्र के बच्चों की मौत पर लगाम नहीं लग पा रही है। भारत में हर साल 54 लाख बच्चों का जन्म होता है, जिसमें से उत्तर प्रदेश में 7 प्रतिशत नवजात बच्चों की मौत होती है।

तत्काल इलाज का यह हाल है कि प्रदेश में सीएचसी-पीएचसी में डॉक्टरों व स्टाफ की भारी कमी है। देश भर की बात की जाए तो आंकड़ों के मुताबिक सीएचसी में विशेषज्ञों के 80 फीसदी पद खाली पड़े हैं। ऐसी स्थिति में लोग जब तक बड़े अस्पतालों तक पहुंचते हैं तब तक बीमार बच्चों की स्थिति काफी बिगड़ चुकी होती है। पूरे प्रदेश में सीएचसी-पीएचसी जोडक़र मात्र 23731 एएनएम हैं। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि प्रसूताओं की देखभाल कैसी होती होगी।

सरकारी उपायों पर सवालिया निशान

शिशुओं की मौतों पर नियंत्रण के लिए सरकार तमाम तरह के कार्यक्रम चला रही है। इनमें गर्भवती महिला को पोषण, विटामिन, आयरन की गोलियां वगैरह देना शामिल है। अस्पताल में प्रसव, शिशुओं के लिए विशेषज्ञ इलाज व्यवस्था आदि का अभियान जोरशोर से चलाये जा रहे हैं। इसके बावजूद बड़ी तादाद में शिशुओं की मौतें इन अभियानों पर सवाल भी खड़ा करती है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 22 करोड़ है। प्रदेश में पिछले कई महीनों से बच्चों की मौतों का सिलसिला जारी है। नौनिहालों की मौतों के लिए जिम्मेदार मेडिकल कॉलेंज से लेकर जिला चिकित्सालय जैसे अस्पताल हैं। लेकिन आबादी के हिसाब से अस्पतालों में सुविधा नहीं है। बीमार पडऩे पर लोग सबसे नजदीक के सामुदायिक या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का दरवाजा खटखटाते हैं। ये सरकारी स्तर पर इलाजे के पहले पायदान हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में यही पायदान बिगड़ा हुआ है।

प्रदेश के विभिन्न जिलों में पिछले एक महीने के दौरान बच्चों की मौत के आंकड़े काफी भयावह हैं। सूबे में स्वास्थ्य विभाग की हालत को सिर्फ इस आंकड़े से समझा जा सकता है कि यहां के सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 570 बाल रोग विशेषज्ञ तैनात हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक सूबे में छह साल तक के बच्चों की संख्या करीब तीन करोड़ है। इतने कम बाल रोग विशेषज्ञों के भरोसे इन बच्चों का इलाज संभव ही नहीं है। प्रदेश में सीएचसी और पीएचसी का बुरा हाल है। यहां डॉक्टरों व स्टाफ की भारी कमी है। तैनाती वाले केन्द्रों पर डॉक्टरों के न बैठने व प्राइवेट प्रैक्टिस में लिप्त होने की शिकायतें आम हैं। सूबे की आबादी के हिसाब से अस्पतालों में सुविधाएं नहीं हैं। बीमार पडऩे पर लोग सबसे नजदीक के सामुदायिक या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का ही दरवाजा खटखटाते हैं।

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की बेहद कमी है। 822 ब्लॉक के 22 करोड़ लोगों पर केवल 800 सीएचसी तथा 3300 पीएचसी काम कर रहे हैं। इतनी बड़ी आबादी पर केवल इतने ही अस्पताल प्राथमिक इलाज के लिए हैं। यहां भी हल्के-फुल्के रोगों का उपचार होता है।

डॉक्टरों की है बेहद कमी: सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर जिला चिकित्सालयों तक में चिकित्सकों की भारी कमी है। जहां डॉक्टर हैं भी वो समय पर नहीं आते हैं। इन केंद्रों पर सुबह 8 बजे से 8 बजे तक डॉक्टरों के बैठने का समय है, लेकिन अधिकांश केंद्रों पर चिकित्सक समय पर नहीं पहुंचते हैं। राजधानी के सीएमओ डॉ. जीएस वाजपेयी का दावा है कि वह अपने इलाके में रोजाना निरीक्षण कर रहे हैं। अनुपस्थित रहने वाले चिकित्सकों व कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं।

इलाज फेल

बहराइच: इस जिले में अगस्त के 31 दिनों में 63 बच्चों की मौतें हुईं। इनमें से 57 मौतें तो जिला अस्पताल में इलाज के दौरान हुईं। बाकी 6 बच्चों की मौत पीएचसी या सीएचसी में हुई। डॉक्टरों का कहना है कि इन मौतों में से आधी का कारण संक्रामक रोग हैं। यह हालत तब है जबकि गंभीर रूप से बीमार शिशुओं के इलाज के लिये जिला अस्पताल में बाल पीआईसीयू बना हुआ है। इसमें 6 डॉक्टर तैनात होने चाहिये, लेकिन वास्तव में एक भी डॉक्टर तैनात नहीं है।

गोंडा: जिले में पिछले एक महीने के दौरान सरकारी अस्पताल में २४ बच्चों की मौत हुई है।

सीतापुर: जिला महिला अस्पताल के एसएनसीयू में 20 जलाई से 31 अगस्त तक 31 नवजात शिशुओं की जन्म के पांच दिनों के भीतर मौत हो गयी।

फैजाबाद: सरकारी अस्पताल में बीते 21 जुलाई से 6 अगस्त के बीच 15 दिनों में 7 बच्चों की मौत हुई है। फर्रुखाबाद में एक महीने में 49 नवजात शिशुओं की मौत हो गयी। जांच में पता चला कि ऑक्सीजन की कमी और इलाज में लापरवाही बरतने के कारण यह हादसा हुआ।गोरखपुर मेडिकल कालेज अस्पताल में तो इस साल 1304 बच्चों की मौत हो चुकी है। सिर्फ 30 व 31 अगस्त को ही 35 बच्चों की मौत हो गयी।

बच्चों की मौत चिंताजनक

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल लगभग 59 लाख बच्चों की मौत 5 वर्ष से कम उम्र में हो जाती हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की 2016-17 की रिपोर्ट बताती है कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में सबसे अधिक मृत्यु नवजात शिशु संबंधी रोग (53 फीसदी) से होती है। इसके अलावा निमोनिया (15 फीसदी), डायरिया (12 फीसदी), खसरा (3 फीसदी) और चोट या दुर्घटनाओं (3 फीसदी) से बच्चों की मौत होती है। ‘सेव द चिल्ड्रन’ की रिपोर्ट के अनुसार दो तिहाई से अधिक नवजात शिशुओं की मृत्यु पहले महीने में ही हो गई। इनमें से 90 फीसदी मृत्यु निमोनिया और डायरिया जैसे बीमारियों से हुई जिनका इलाज आसानी से हो सकता था। वर्तमान में नवजात बच्चों की मृत्यु दर 48 (प्रति 1,000) है, जबकि वर्ष 2015 में यह 43 थी।

निमोनिया और डायरिया बने काल: यूनिसेफ की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में दुनिया भर में लगभग 59 लाख बच्चों की मौत निमोनिया, डायरिया, मलेरिया, दिमागी बुखार, टिटनेस, खसरा जैसी बीमारियों से हुई।

समय पूर्व जन्म: अपरिपक्व बच्चा वह होता है जो गर्भावस्था के 37 सप्ताह के पूरा होने से पहले पैदा होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में हर वर्ष अनुमानित तौर पर डेढ़ करोड़ अपरिपक्व बच्चे पैदा होते हैं। 35 लाख के आंकड़ों के साथ भारत अपरिपक्व बच्चों के जन्म की सूची में सबसे ऊपर है।

राजधानी के सीएचसी व पीएचसी का हाल

अर्बन सीएचसी रेडक्रॉस: 8 बजकर 55 मिनट डॉ. रश्मि और डॉ आरके चौधरी, एचईओ मनोरमा, दो हेल्थ सुपरवाइजर, 5 ऐनम तथा वार्ड आया अनुपस्थित। कार्रवाई-एक दिन का वेतन रुका

अर्बन सिल्वर जुबली सीएचसी: 8 बजकर 45 मिनट - डॉ केपी सिंह तथा डाटा ऑपरेटर अनुपस्थित कार्रवाई-स्पष्टीकरण देने तक वेतन रोका

बंद मिला अर्बन दौलतगंज पीएचसी: सीएमओ की टीम ने दोपहर एक बजे निरीक्षण किया तो पीएचसी के चैनल पर ताला लगा हुआ था। अस्पताल का कोई भी कर्मचारी नहीं था। स्थानीय लोगों ने बताया कि अक्सर यहां दोपहर बाद ताला लग जाता है।

अर्बन सीएचसी ऐशबाग: 52 कर्मचारियों में से 15 अनुपस्थित कार्रवाई-एक दिन का वेतन काटा

राजकीय टीबी क्लीनिक राजेंद्र नगर: 8 बजकर 30 मिनट- 15 कर्मचारी अनुपस्थित। कार्रवाई-एक दिन का वेतन काटा

मोहनलालगंज: दो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को केवल एक ही चिकित्सक चला रहा है। चिकित्सकों की कमी के चलते मरीजों को इलाज के लिए दूसरे अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है।

दाखिना पीएचसी का बुरा हाल: दाखिना पीएचसी परिसर के आसपास भारी मात्रा में बारिश का पानी कई दिनों से जमा है। मच्छरों के लार्वा पनप रहे हैं। ऐसे में बीमारी फैलने का खतरा बना हुआ है।

गोसाईंगंज की अमेठी पीएचसी: सीएमओ के निरीक्षण में पीएचसी पर ताला लटकता हुआ मिला। कोई भी कर्मचारी पीएचसी के आसपास तक नहीं मिला। सभी कर्मचारियों को नोटिस जारी करने के साथ ही एक दिन का वेतन काटने का आदेश हुआ है।

पीएचसी व सीएचसी पर हैं ये दिक्कतें: सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर काम करने वाले चिकित्सकों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रभारियों की शिकायत रहती है कि परिसर में अक्सर गंदगी रहती है। सफाई के लिए जिम्मेदार कर्मचारियों द्वारा लापरवाही होती है। कई बार बोलने पर काम होता है। नगर निगम द्वारा समय-समय पर आसपास के नाले साफ नहीं होते हैं। इसके अलावा बारिश के पानी का जमाव होने से लार्वा पनपने का खतरा बढ़ जाता है।चिकित्सकों के मुताबिक गंभीर मरीजों का इलाज करने का प्रेशर भी उनके तीमानदार देने लगते हैं। चूंकि प्राइमरी केंद्रों पर गंभीर मरीज का उपचार संभव नहीं होने के चलते बहस भी होती रहती है। उनके तीमारदार घर के पास ही उपचार कराना चाहते हैं।

नई सरकार जल्द करेगी संविदा पर चिकित्सकों की नियुक्ति

उत्तर प्रदेश में डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे सरकारी अस्पतालों के लिए चिकित्सकों की भर्तियां जल्द होने वाली हैं। इसके लिए शासन ने जिला स्तर पर सीएमओ से डॉक्टरों के रिक्त पदों की जानकारी मांगी है। सीएमओ द्वारा जानकारी भेजे जाने के बाद प्रत्येक जिले में अनुबंध के आधार पर चिकित्सकों की नियुक्ति होगी। इसमें पहले जिला चिकित्सालयों के लिए डॉक्टर चुने जाएंगे। फिर इसके बाद जाकर सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए चिकित्सकों की नियुक्ति होगी।

राजधानी में सीएचसी व पीएचसी की संख्या

लखनऊ में 9 सामुदायिक तथा 8 महिला सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। इसके अलावा 52 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है।

क्या है मानक

स्वास्थ्य केंद्रों पर कितने डॉक्टर व स्टाफ आदि तैनात होंगे इसका बाकायदा एक मानक है। लेकिन शायद ही कहीं मानक के अनुसार स्टाफ तैनात हों या मौजूद रहते हों।

कितना स्टाफ होना चाहिये

उपकेंद्र में

हेल्थ वर्कर (महिला) या एएनएम-01, अतिरिक्त एएनएम (संविदा पर)- 01, हेल्थ वर्कर (पुरुष)-01, स्वयंसेवी कार्यकर्ता-01

पीएचसी में

मेडिकल ऑफिसर-01, फार्मासिस्ट-01, नर्स मिड वाइफ-01 तथा दो संविदा पर हेल्थ वर्कर या एएनएम- 01, हेल्थ एजूकेटर-01, हेल्थ असिस्टेंट (पुरुष)-01, हेल्थ असिस्टेंट (महिला)-01, क्लर्क-02, लैब टेक्रीशियन-01, चतुर्थ वर्ग कर्मी-04, ड्राइवर-01,

सीएचसी में

मेडिकल ऑफिसर-04, ड्रेसर-01, फार्मासिस्ट-01, नर्स मिड वाइफ-07, लैब टेक्रीशियन-01, रेडियोग्राफर-01, वार्ड ब्वाय-02, धोबी , माली, स्वीपर, चौकीदार, आया, चपरासी-08।

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