पढ़िए कहानी: शारदा ताई - इसी से हिली गृहस्थी की चूलें!

Update: 2018-09-17 09:02 GMT

कुसुम भट्ट

चांदी सी चमकती लटों वाला सिर, देह पर सफेद सूती साड़ी-ब्लाउज, सुघड़ तरीके से लिपटी साड़ी का पल्लू सिर पर। कद मध्यम, दोहरे गात की गुल-गुल गोरे गालों वाली स्त्री (अधेड़) की छोटी आंखों से झरती स्नेह की आब। जब उसने मुझे एकटक देखते हुए वात्सल्य पगी भाषा में कहा कि ए! मोनी...! मैं ही ठैरी तेरी इकलौती बोड़ी (ताई) आऽ... न इधर आ मेरे पास। मैं चुंबक सी उस स्नेह सलिला के पास लपक ली। उसने झट अपनी गुदाज छाती में समा लिया था मुझे गौरैया के बच्चे सा...। उसकी सफेद स्वच्छ धोती से जाने कैसी महक आ रही थी कि मैंने मां से कहा-तू भी ऐसे सफेद सूती साड़ी क्यों नहीं पहनती मां? मां ने कातर निगाहों से देखा। मुझे लगा अन्दर तक हिल गई है मां! उसके मुंह से एक शब्द नहीं फूटा।

हमारे गांव में आमों का अकाल था। पूरे गांव में दो मरियल पेड़ थे उनके आम भी खट्टे। ताई के गांव में आषाढ़ के महीने हवा भी आमों की भीनी-भीनी सुगंध से बौराते हुए जैसे गाने लगती- आम... आम... आम.. हरे पीले लाल लंगड़ा, दशहरी, पहाड़ी आम...।

ताई के गांव में पहली मर्तबा मैं मां के साथ आई थी। दादा जी की बड़ी बहन की बड़ी बहू शारदा ताई जिस गांव में रहती थी वह हमारे गांव से पांच मील की दूरी पर पहाड़ी के शिखर पर था। हमारे गांव से मां के साथ और भी स्त्रियां आम लाने जातीं और थकान के बावजूद उछाह से भरी लौटती मीठी-मीठी खुशबू से लबरेज!

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मेरी आंखों में गांव का मनोहारी दृश्य भिन्न-भिन्न तरह से आकार लेने लगता, जब मां आम का रसा निकालते हुए कहती-ओऽ बाबा! कितनी बड़ी उकाल ठैरी! चढ़ते चढ़ते पसीने से तर थकान से हलकान हो गये हम! तो मेरी गांव जाने की उम्मीद बिला जाती, एक दिन मां ने मेरी आंखों में गांव के बारे में जानने की जिज्ञासा को कौंधते देखा तो चिढ़ाने लगी थी-धार गांव के पेड़ों पर आम ऐसे लगते हैं जैसे आसमान में तारे... देखते ही मन तृप्त होने लगता है, खूब गलगले और रसदार आम। इतना स्वाद....! मैं टुकर टुकर मां को ताकती तो मां दबी मुस्कान से मेरा चेहरा टोहती-पर बड़ी उकाल है मोनूऽ... तू तो चढ़ ही नहीं पाएगी।

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मेरे लिये चुनौती थी इस बार मैंने स्वीकार कर ही ली थी। थकान से हलकान मेरी आंखों के आगे ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ की इबारत चमक रही थी, थकान से पस्त छलछलाते पसीने को ताई की छाती ने समूचा सोख लिया तो मैंने मां के हाथ से झोला खींचकर ताई के आगे रख दिया था-हमारे गांव की सौगात। आंखों से बोलकर ताई को जताना चाहा था कि हमारे गांव में भी धरती अनमोल सौगात उगलती है, यानि एक गांव के आम तो दूसरे का प्याज, हुआ न हिसाब बराबर? दादी का अखाणा-किसी का गुड़ का पैंणा तो किसी का पिन्ना का पैंणा। आंगन में बैठी मूंझ की खटिया पर ताई मुझे मुग्ध भाव से देखती हुई बोली थी-कितने बरस की ठैरी अपनी मोनी? तेरहवें में लगी है दीदी जीऽ ...। मां लकड़ी के बक्से पर बैठी झूल रही थी-इसकी भी चिन्ता ठैरी दीदी जी। ताई मेरे सिर को सहलाने लगी थी-इसकी डोली तो मैं इसी गांव लाऊंगी भुली (बहन)। ताई ने जैसे मन ही मन संकल्प ले लिया था। मैंने भी रोष भरकर संकल्प लिया था इस गांव में दुबारा पांव नहीं रखूंगी-धरती से एक पत्ती उगी नहीं कि पेड़ को खड़ा करना इन स्त्रियों का शगूफा। मन हुआ था कि ऊंची आवाज में कहूं कि छोटी लड़कियों को डोली में बैठने का सपना दिखाना कौन सा बहादुरी का काम है ताई? लेकिन कह नहीं पाई मुंहजोर के कलंक से डरने पर ताई के बारे में उपजी सारी धारणाएं एक पल में ध्वस्त हो गई थीं। मैं उठकर चौक की दीवार के पत्थर पर बैठ गई थी और चिडिय़ों की उड़ान देखने लगी थी। तभी हवा में हलवा भूनने की सोंधी-सोंधी महक मेरे चारों तिरने लगी और ताई का आदेश-भीतर आ जा मोनी।

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भूख से पेट में चूहे कुलबुला रहे थे, मां और ताई चूल्हे के पास बैठी बातों में मस्त कभी खुसर-फुसर करती तो कभी खिल-खिल हंसने लगती थी। ताई ने मेरा चिढऩा देखा था-डोली में बैठने को तीन वर्ष हैं। अभी गुस्सा क्यों होती है,मोनीऽ...। ताई ने मेरे आगे हलवा का कटोरा और चाय का गिलास रख दिया था।

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इतना बड़ा गिलास? मेरी आंखों में प्रश्न उठता देख ताई बोली थी-दूध में पत्ती डाली है बेटा। बहुत दूर जाना है न ताकत चाहिए होगी। गुड़ के स्वाद वाली चाय से मुंह के जायके के साथ मन भी बदलने लगा था। चाय पीकर ताई एक अंधेरे कमरे में जाकर मुझे पुकारने लगी थी। मैं भीतर गई तो चकित रह गई। आमों के ढेर के बीच जगह बनाती ताई पूछ रही थी-कितनी बड़ी डलिया ले जा सकेगी मेरी मोनी? वह घुटनों पर हाथ टिकाए उठी और उचककर टान्ड से बेंत की दो बड़ी-छोटी डलिया निकाल लाई- ये मीठु आम, ये लंगडू, ये लिम्बू आम और बड़ा बाम्बे आम। चुन-चुन कर ताई डलिया भरती जाती। ये तेरे ताऊ जी बनारस से लाए थे गुठली, सच्ची कहूं बाबा जैसे बच्चे पाले वैसे ही पेड़ भी। मां माँ बरतन मांज कर आई तो ताई ने बड़ी डलिया उसके सिर पर धर दी थी। बादलों का कोई भरोसा नहीं। कब बरस जाये.... जल्दी उतरो पहाड़ी। तभी बिजली कडक़ने लगी तो बोली थी-आज की रात ठहरो यहीं।

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मां ताई को सेवा लगाकर (पांव छूकर) लपक ली थी। मैं भी ताई को प्रमाण करते मां के पीछे..... ताई की आवाज टप्पा खाती गेंद सी मेरी पीठ पर पडक़र मेरे हलक को सुखा रही थी-तेरी डोली इसी गांव में... मोनीऽ...

आज सुबह चिडिय़ों की जागती बेला पर वन्दना का फोन आया कि शारदा पूफू मरी नहीं मोनी उसे मार दिया जालिमों ने! मुझे ताई के साथ वह पहली मुलाकात का दृश्य सजीव लगने लगा है, उनकी वह सफेद सूती साड़ी हवा मेंं फरफरा रही है। सुहागन होते हुए विधवा का भेष! वन्दना ने रहस्य की पोटली खोली थी। वन्दना मेरी ननिहाल की सहेली जिसे ताई अपनी इच्छा के वशीभूत मेरी तरह इस गांव में लाई थीं, वन्दना का मूक विलाप और स्वर का आक्रोश मेरे भी भीतर तीर सा बिंध रहा है, आखिर नब्बे वर्ष की बूढ़ी स्त्री जिसे आज नहीं तो कल जाना ही है,उसकी हत्या कोई क्यों करेगा...!

शारदा पूफू की हत्या तो उसी रात हो गई थी मोनी जब उसके सीधे सज्जन दिखने वाले पति ने अमावस की अंधेरी रात में चमड़े के जूते से उसके तन से ज्यादा आत्मा को छलनी किया था, वह अलग बात है मोनी कि शारदा पूफू की जगह उनका नाती सुन्दर सो रहा था। शारदा ने उसे गंगा स्नान के लिए भेजा और साथ ही उस रात सफेद साड़ी भी मंगाई थी।

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वह पति से सारे सम्बन्ध तोड़ कर सफेद वस्त्र धारण कर लोगों की जलालत भरी नजरों को पीती रही थी जैसे शिव ने पिया था विष। लेकिन वन्दना कोई आदमी ऐसा पिशाचों जैसा कर्म क्यों करेगा आखिर। ताई में भी तो कुछ कमी रही होगी? मैंने वन्दना की बात को काटते हुए उल्टा प्रश्न किया था, जबकि मैं जानती थी ताई अपनी कुटुम्बी देवरानी की तिगड़ी के साथ नहीं बैठती थी। वह मुंहफट थी पर किसी का घर बिगाडऩे की बजाय बनाने का माद्दा रखती थी। उसकी सगी देवरानी को वे फूटी आंख नहीं सुहाती थी वे दूसरी देवरानी के साथ मिलकर ताऊ को भडक़ाती रहती। ताऊ बेवकूफ थे। शायद पत्नी के दुर्लभ गुणों को देखने के बजाय वे अन्य स्त्रियों पर विश्वास करते। इसी से हिली गृहस्थी की चूलें! जो नासमझ ताऊ की भी समझ में कभी नहीं आया। मैं भी इतना तो जानती थी कि गांव भर में ताई ही एक चेहरे वाली हैं। बाकी स्त्रियां छल प्रपंच में डूबी कुछ न कुछ उपद्रव करती रहती थीं। ताई की उन्हें समय-समय पर फटकार मिलती रहती थी।

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वन्दना, कुछ भी हो गांव में कोई किसी की जान नहीं ले सकता। मैं गुस्साई चीत्कार करती वन्दना को समझाती हूं पर वन्दना है कि कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। उसका विलाप-उन्होंने जानबूझ कर उसे रास्ते से हटा दिया मोनी...उन्हें पता था कि गांव में कोई नहीं चार विधवा स्त्रियों के अलावा। बगल में दो देवरानी थी उन्होंने आवाज नहीं सुनी? रात के निचाट अंधेरे में शांत जगह पर जहां चूहे के बिल से मिट्टी गिराने की आवाज भी सुनाई देती है।

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चिल्लाती रही थी शारदा पूफू - कोई खोलो दरवाजा...! कुन्डी किसने बन्द कर दी। मेरा दम घुट रहा है! वह जोर से लोहे का दरवाजा पीट रही थी... दस बजे रात पेशाब करने गई तो किसी ने दरवाजे पर कुन्डी लगा दी! हे भगवान! एक बूढ़ी औरत को मारने की साजिश! पहली बार पहाड़ में ऐसा जघन्य अपराध। इन्हें तो... वन्दना बोलती जा रही है। उधर शारदा ताई के बेटे सबूत खोज रहे हैं। कितनी बार कहा था उन्होंने मां हमारे साथ देश चल। उतनी बार ताई का जवाब मैं अपना गांव और पेड़ नहीं छोड़ सकती रे बाबा!

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अमूमन पहाड़ में ऐसी वारदातें नहीं होतीं, कहीं कुछ घटता भी है तो उसके पीछे ठोस कारण होते हैं। शारदा ताई की हत्या का कारण सिर्फ कुछ स्त्रियों के साथ उसके विचारों का न मिल पाना। मैं देख रही हूं और कोई ईष्र्या-द्वेष के चलते घृणा के बीज का वृक्ष बन जाना। इसका एक दूसरा कारण कि बुढ़ापे में ताई अपने स्वाभिमान के साथ कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुईं। देवरानियां उनके सुख से पल-पल जलती रहीं। बदले की आग मनुष्य को जघन्य कर्म करने को उकसाती हैं। वन्दना की भर्रायी आवाज के साथ सफेद स्वच्छ धोती में लिपटी एक बहुत बूढ़ी औरत मृत्यु से संघर्ष करते हुए पौ फटने तक दरवाजा पीटना और फिर बेहोश होकर गिर जाना...

मैंं आंखें मलती हूं। खुली आंखों से देखा यह दृश्य सच होगा? यथार्थ इतना क्रूर हो सकता है, वह भी शांत पहाड़ों के भीतर...?

हम कौन से युग में रह रहे हैं वन्दना? मैं चीख कर कहती हूं। वन्दना ने पस्त होकर फोन बंद कर दिया है शायद......

मुझे चारों तरफ से भेडिय़ों की गुर्राहट सुनाई देने लगी है....

(बी- 39, नेहरू कालोनी,देहरादून )

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