लखनऊ: देश भर में साफ-सफाई पर काफी जोर है। गली-मोहल्लों, सडक़ों आदि की सफाई का अभियान छिड़ा हुआ है। साथ है जोर है नदियों की सफाई का। उन्हें निर्मल बनाने का। नदियों की निर्मलता के लिए शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए हैं ताकि नाली-नालों का गंदा पानी नदियों में सीधे न जाने पाए। इन एसटीपी को बड़ी रकम खर्च कर बनवाया गया है। दावा किया जाता है कि सब व्यवस्था चाकचौबंद है। ‘अपना भारत’ ने उत्तर प्रदेश में कुछ जगहों पर नदियों की सफाई और एसटीपी की स्थिति की पड़ताल की तो पाया कि नदियों में कचरा हमेशा की तरह गिर रहा है। एसटीपी लगे हैं लेकिन या काम नहीं कर रहे या कामचलाऊ स्थिति हैं।
रामगढ़ झील में गिराया जा रहा कचरा
पूर्णिमा श्रीवास्तव
गोरखपुर: गोरखपुर शहर का लाखों लीटर कचरा रामगढ़ झील, चिलुआताल, राप्ती और आमी नदी में गिराया जाता है। रामगढ़ झील में तो कुछ बैरियर हैं, लेकिन चिलुआताल, राप्ती और आमी नदी में बेरोकटोक कचरा गिराया जा रहा है। रामगढ़ झील में कचरा नहीं गिरने को लेकर जलनिगम के साथ प्रशासनिक अफसरों ने हलफनामा भी दाखिल कर रखा है, लेकिन अफसरों की अनदेखी से रोज लाखों लीटर गंदा पानी बिना ट्रीटमेंट किये ही रामगढ़ झील में गिर रहा है।
रामगढ़ झील में कचरा रोकने के लिए जलनिगम ने दो एसटीपी यानी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किया है। देवरिया बाईपास पर स्थापित एसटीपी 30 एमएलडी तो कूड़ा घाट में स्थापित एसटीपी 15 एमएलडी क्षमता का है। करोड़ों की लगात से बना एसटीपी सफेद हाथी साबित हो रहा है। रामगढ़ झील में चारों तरफ से कचरा बिना ट्रीटमेंट के ही गिराया जा रहा है। जलनिगम के अफसरों का दावा है कि नालों से सिर्फ बारिश का पानी ही झील में गिर रहा है। जल निगम ने एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में हलफनाम दाखिल कर रखा है कि 1700 एकड़ में फैले रामगढ़ ताल में नालों से आने वाले कचरे का शोधन कर ताल में गिराया जा रहा है।
दावे के उलट पैड़लेगंज, कूड़ाघाट, सहारा स्टेट और आवास विकास कॉलोनी से बिना ट्रीटमेंट के ही सीवर का पानी झील में गिर रहा है। पैड़लेगंज में जलनिगम के नाले से होकर आधे शहर का कचरा झील में गिर रहा है। बारिश के मौसम में इस पर कोई बंदिश नहीं रह गई है। सहारा स्टेट के 2000 से अधिक मकानों का कचरा भी बिना ट्रीटमेंट में झील में गिर रहा है। गिरधरगंज, कूड़ाघाट, शिवपुर, महेरवा की बारी, यादव टोला व आवास विकास कालोनी का गंदा पानी नालियों से होकर सीधे ताल में गिर रहा है। जलनिगम के दोएसटीपी पर लाखों रुपये बिजली का खर्च आता है। बिजली का खर्च नगर निगम और जीडीए मिलकर वहन कर रहे हैं। जीडीए और नगर निगम ने दो साल के रखरखाव के लिए 4 करोड़ रुपये जलनिगम को दिया है। रामगढ़ झील परियोजना के प्रोजेक्ट मैनेजर रतनसेन सिंह का कहना है कि मानसून के समय में बिना ट्रीटमेंट के झील में पानी गिराया जा सकता है। ऐसी छूट अनुमन्य है। बारिश का पानी झील में जाने से प्रदूषण का लेवल कम होगा। अमृत योजना के तहत सीवर लाइन बिछाई जा रही है जो ट्रीटमेंट कर झील में गिराया जाएगा।
धूल फांक रहा है प्रस्ताव
गीडा में स्थापित फैक्ट्रियों से निकलने वाले औद्योगिक कचरे के चलते जीवनदायनी आमी नदी प्रदूषण से कराह रही है। एनजीटी में दायर मामले में कड़ी फटकार के बाद गीडा प्रशासन ने औद्योगिक कचरे को रोकने के लिए 5 एमएलडी के सीईटीपी प्लांट का प्रस्ताव तो तैयार किया, लेकिन वह अभी भी फाइलों की धूल फांक रहा है।
बता दें कि आमी के प्रदूषण को लेकर मीरा शुक्ला और आमी बचाओ मंच के विश्वविजय सिंह ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में मुकदमा दायर कर रखा है। फटकार से बचने के लिए अधिकारियों ने 4 करोड़ की लागत से प्रस्तावित 5 एमएलडी के सीईटीपी प्लांट की कागजी योजना तो तैयार कर ली, लेकिन किया कुछ नहीं। केन्द्र सरकार की एजेंसी कांउसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के सर्वे में पाया गया कि आमी में रोज 50 लाख लीटर गंदा पानी गिर रहा है। सीएसआईआर के सर्वे के मुताबिक इस कचरे को 5 एमएलडी के प्लांट से दूर किया जा सकता है।
एसटीपी बनाएगा जीडीए
मेडिकल कॉलेज से सटे मानबेला में करीब 400 एकड़ में विकसित होने वाली विभिन्न परियोजनाओं के ड्रेनेज सिस्टम को लेकर जीडीए चिलुआताल के पास एसटीपी का निर्माण करेगा। जीडीए की टीम ने जमीन को चिन्हित कर लिया है। जीडीए चिलुआताल में करीब 25 एमएलडी का एसटीपी की स्थापना करेगा। मानबेला में जीडीए विभिन्न योजनाएं विकसित कर रहा है। करीब 50 एकड़ में राप्ती नगर विस्तार योजना विकसित हो रही है। इसके साथ ही मानबेला में पीएम आवास के तहत 1500 ईडब्ल्यूएस फ्लैट का निर्माण होना है। जीडीए पत्रकारों के लिए 500 फ्लैट की योजना भी लांच कर रहा है। भविष्य की योजनाओं में यहां मल्टीप्लेक्स, इंटरनेशनल स्टेडियम भी प्रस्तावित है। इन सभी योजनाओं के ड्रेनेज सिस्टम को देखते हुए जीडीए ने चिलुआताल में एसटीपी बनाने की योजना तैयार की है। जीडीए के मुख्य अभियंता संजय कुमार सिंह का कहना है कि मानबेला में अत्याधुनिक सुविधाएं दी जानी हैं। भविष्य में ड्रेनेज सिस्टम को लेकर अभी से तैयारी की जा रही है। एसटीपी के लिए चिलुआताल में जमीन चिन्हित कर ली गई है।
प्रदूषण ने आमी नदी को मार डाला
आमी नदी के वजूद को लेकर एनजीटी में याचिका दाखिल करने वाले आमी बचाओ मंच के विश्वविजय सिंह का कहना है कि भौतिक विकास के नाम पर फैलाए जा रहे प्रदूषण ने आमी को ही मार डाला है। ऐसे में आमी को प्रदूषण मुक्त किए बिना कबीर के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना बेमानी होगी। मगहर में किये जा रहे विकास कार्य का तब तक मतलब नहीं होगा जब तक आमी का जल निर्मल नहीं हो जाता। विश्वविजय सिंह का कहना है कि लम्बे संघर्ष और एनजीटी की रोक के बावजूद मगहर, खलीलाबाद का नगरीय कचरा बस्ती संतकबीरनगर, गोरखपुर स्थित गीडा का औद्योगिक कचरा आमी में प्रवाहित हो रहा है। मगहर और खलीलाबाद में एसटीपी की स्थापना के कोई प्रयास नहीं किए गए।
गीडा में स्वीकृत 35 एमएलडी के सीईटीपी की स्थापना भी केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा धन न दिये जाने के कारण नहीं हो पा रही है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का स्थानीय कार्यालय और स्थानीय प्रशासन शासन व सरकार को लगातार झूठी रिपोर्ट भेज कर गुमराह कर रहा है।
वेटलैंड को नुकसान पहुंचा रहा जीडीए
गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो राधे मोहन मिश्रा ने झील के वेटलैंड को लेकर एनजीटी में याचिका दाखिल कर रखी है। उनका कहना है कि अंधाधुंध स्थायी निर्माण और अतिक्रमण ने 100 वर्ष में रामगढ़ ताल और इसके वेटलैंड को 4 हजार हेक्टेयर से सिकोडक़र 750 हेक्टेयर तक पहुंचा दिया। ताल और इसके वेटलैंड पर अतिक्रमण लोगों ने तो किया ही, जीडीए ने भी आवासीय और कामर्शियल निर्माण करा कर इस शानदार प्राकृतिक धरोहर को काफी नुकसान पहुंचाया।
करोड़ों खर्च फिर भी नतीजा शून्य
सुशील कुमार
मेरठ: मेरठ में नदी,नाला सफाई और एसटीपी पर हर साल करोड़ों रुपये बहाये जा रहे हैं, लेकिन नतीजा शून्य है। मेरठ में नगर निगम का एक और मेरठ विकास प्राधिकरण (एमडीए) के 13 एसटीपी प्लांट हैं। इन पर एक मोटे अनुमान के अनुसार हर साल करीब एक करोड़ रुपये खर्च होते हैं,लेकिन एक भी प्लांट सही तरीके से काम नहीं कर रहा है।
शहर के जागृति विहार एक्सटेंशन में करीब छह साल पूर्व जेएनएनयूआरएम में 38 करोड़ की लागत से शहर का सबसे बड़ा एसटीपी बना था,लेकिन निर्धारित 72 एमएलडी क्षमता से यह नहीं चल सका है। शहर के तेजगढ़ी, शास्त्रीनगर, मेडिकल और साकेत आदि के सीवरलाइन से ही 25-26 एमएलडी गंदा पानी प्लांट को मिल रहा है। वह भी बिजली पर बहुत अधिक निर्भर है। प्लांट को हमेशा 440 बोल्ट बिजली चाहिए जो कि उसे कभी-कभार ही मिल पाती है। 38 करोड़ के इस एसटीपी प्लांट का शहर के लोगों को कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। यही हाल शहर के दूसरे छोटे एसटीपी प्लांटों का भी है। बारिश आने पर शहर का आधे से अधिक हिस्सा पानी में डूबा दिखता है क्योंकि गंदा पानी एसटीपी से काली नदी में जाने की जगह बैक मारने लगता है।
नहीं दूर हो रहा प्रदूषण
शहर के नालों का पानी आसानी से काली नदी में गिर सके, इसके लिए नगर निगम प्रशासन ने काली नदी के उन स्थानों पर अपने स्तर से सफाई कराने का फैसला लिया था, जहां निगम के नाले जाकर गिरते हैं।
पिछले एक साल से अधिक समय से निगम की एक विशाल पोर्कलेन मशीन काली नदी पर जमी है। उसका रोजाना का डीजल खर्च पांच हजार रुपये से ज्यादा का है, लेकिन फिर भी काली नदी का स्तर जस का तस है। अब उक्त मशीन और उसकी सफाई पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं। मेरठ में कुल मिलाकर 285 नाले हैं। इनमें ओडियन,आबूनाला-1 और आबूनाला-2 मुख्य बड़े नाले हैं। यह सभी नाले काली नदी में जाकर गिरते हैं। इन नालों की सफाई के नाम पर पिछले तीन महीने में ही तीन करोड़ से ज्यादा का खर्च हो चुका है।
काली नदी में भरी है सिल्ट
शहर में बरसात के दौरान जलभराव के लिए नगर निगम प्रशासन, निगम बोर्ड के पार्षद और महापौर तथा पूर्व शहर विधायक लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी काली नदी को जिम्मेदार ठहराते हैं। दरअसल शहर के सभी मुख्य नाले आखिरकार काली नदी में ही जाकर गिरते हैं, लेकिन काली नदी की लंबे समय से सिंचाई विभाग ने सफाई नहीं कराई है। उसमें सिल्ट भरी है तथा उसका स्तर भी काफी ऊपर है। काली नदी की सफाई के लिए लगाई गई पोर्कलेन मशीन एक साल से लगातार सफाई करने का दावा कर रही है। एक साल में मशीन में कई लाख रुपये का तेल फुंक गया, लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं है। काली नदी की सफाई का काम निजी ठेकेदारों के पास मौजूद विशालकाय मशीनें ही कर सकती है। निगम की मशीनें काफी छोटी हैं। ठेकेदारों की मशीनें एक महीने में ही काली नदी की सिल्ट को निकालकर बाहर कर देंगी। जिसके बाद नदी का स्तर नीचे हो जाएगा तथा शहर के नालों का पानी नदी में काफी ऊपर से झरने की भांति गिरेगा जिससे शहर का गंदा पानी खुद ब खुद बाहर पहुंच जाएगा। सख्ती से ही नालों के प्रति लोगों की लापरवाही पर अंकुश लगाया जा सकता है।
नगर निगम महापौर सुनीता वर्मा शहर के बंद एसटीपी और शहर के नालों की सफाई के नाम पर हुए गोलमाल पर यह कहते हुए अपना बचाव करती हैं कि वह कुछ ही महीनों पहले महापौर बनी हैं। पहले के महापौर ने क्या किया, क्या नहीं किया, मेरे से ज्यादा मीडिया जानती है। मुझसे जो बन पड़ेगा, वह मैं करूंगी। दूसरी तरफ नगर आयुक्त मनोज कुमार चौहान नाला सफाई के नाम पर हुए गोलामाल पर कुछ नहीं कहते। अलबत्ता वे एसटीपी का मामला गंभीर बताते हैं। वे कहते हैं कि सीवरलाइन और एसटीपी से सबकुछ गड़बड़ हुआ है। इसकी वह जांच कराकर शासन को रिपोर्ट भेजेंगे।
काला हो गया काली नदी का पानी
दरअसल,गन्ने का गढ़ और चीनी का कटोरा कहे जाने वाले पश्चिमी यूपी के लिए काली नदी अभिशाप बन गई है। कागज और चीनी मिलों से निकलने वाले केमिकल युक्त पानी से गांवों में पानी कि किल्लत तो हुई है, हजारों लोग त्वचा रोग, सांस और कैंसर का दर्द झेल रहे हैं। मुजफ्फरनगर के जानसठ तहसील के अंतवाड़ा गांव के जंगल से निकलने वाली काली नदी करीब 300 किलोमीटर का सफर तय कर कन्नौज के पास गंगा में मिलती है। लेकिन इससे पहले इसमें कई कागज और गत्ता मिल, चीनी मिल, बूचडख़ानों और औद्योगिक मिलों का केमिकल युक्त पानी और कस्बों के नालों का गंदा पानी गिरता है, जिससे इस नदी का पानी इसी के नाम की तरह काला हो गया है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार काली नदी में जिन उद्योगों का प्रदूषित पानी गिरता है वो 17 सबसे ज्यादा विषैला कचरा छोडऩे वाले उद्योंगों में शामिल हैं।
नीर संस्था के राजीव त्यागी कहते हैं कि काली नदी इस पूरे इलाके के लिए कलंक जैसी हो गई है। औद्योगिक इकाइयां दूषित पानी और कचरे को सीधे नदी में बहा रही हैं। राजीव त्यागी के अनुसार नीर संस्था की एक जनहित याचिका पर राष्टï्रीय हरित प्राधिकरण ने 24 मई 2017 को राज्य सरकार और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दिया कि वे क्षेत्र के सभी ऐसे हैंडपम्प को सील करें जो दूषित पानी देते हैं और जल्द से जल्द पानी की जांच कराएं,लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
हिंडन का भी बुरा हाल
जिले से होकर गुजरने वाली हिंडन नदी का भी हाल कम बुरा नही है। अभियानों के बाद भी अभी भी रोजाना हजारों लीटर कचरा हिंडन के साथ ही उसकी सहायक नदियों में डाला जा रहा है। प्रदूषित पानी नदियों के किनारे गांवों में रहने वाले लोगों के लिए जहर बना हुआ है। करीब 355 किमी लंबी हिंडन नदी जो मेरठ और सहारनपुर मंडल के सात जिलों से होकर गुजरती है। इस नदी के किनारे करीब 312 औद्योगिक इकाइयां स्थापित हैं। इसमें सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बुढ़ाना, मेरठ, गाजियाबाद और नोएडा जिलों में कई औद्योगिक यूनिटें हिंडन को प्रदूषित करने में अभी भी कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। हाल ही में हिंडन नदी की स्थिति की पड़ताल में कई चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। अभी भी विभिन्न जिलों में औद्योगिक इकाइयों से तरल गैर शोधित व सीवरेज सीधे हिंडन नदी में डाला जा रहा है। सबसे खतरनाक स्थिति बेगराजपुर औद्योगिक इलाके से कुछ फैक्ट्रियों से निकलकर सीधे हिंडन में बह रहे तरल गैर शोधित और सीवरेज से बन रही है।
गंगा में गिर रहा नालों का पानी
कौशलेन्द्र मिश्र
इलाहाबाद: इलाहाबाद में गंगा और यमुना के प्रदूषण की स्थिति में कोई ठोस सुधार नजर नहीं आ रहा है। गंगा को प्रदूषण से मुक्ति दिलाकर उसे निर्मल और अविरल बनाने की तमाम कवायद हो रही है मगर गंगा में सीधे शहर के नालों का पानी जा रहा है जिसे रोका नहीं जा सका है। इसे रोकने के लिए स्थापित एसटीपी पर हर माह करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। सनातन संस्कृति की प्रतीक मां गंगा के जल में बढ़ते प्रदूषण को लेकर गंगा प्रेमियों की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंच रही है।
शहर में करीब दो दशक पहले तक लगभग 50 नाले ही चिन्हित किए गए थे, लेकिन इस बीच सलोरी और बेली कछार समेत दूसरे इलाकों में अधाधुंध भवनों का निर्माण करा लिया गया है। आबादी में खासा इजाफा हो जाने के कारण गंगा और यमुना में गिरने वाले छोटे और बड़े नालों की कुल संख्या अब बढक़र छह दर्जन से अधिक हो गई है।
शहर में छह ट्रीटमेंट प्लांट
गंगा और यमुना नदियों के पानी का शोधन करने के लिए शहर में कुल छह एसटीपी लगााए गए हैं। नैनी में 1982 में 60 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया, लेकिन पिछले साल इसकी क्षमता में 20 एमएलडी की वृद्घि की गई है। चालू समय में नैनी प्लांट की क्षमता 80 एमएलडी हो गई है। सलोरी में 2006 में 29 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया, लेकिन पिछले ही साल इसकी क्षमता में भी 14 एमएलडी का इजाफा किया गया है। सलोरी प्लांट की क्षमता अब बढक़र 43 एमएलडी हो गई है। राजापुर में 2012 में 30 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया। पिछले ही साल इसकी क्षमता में भी 30 एमएलडी की वृद्घि की गई है। इस प्लांट की क्षमता अब बढक़र 60 एमएलडी हो गई है। इसी प्रकार पोंगहट में 2014 में 10 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया। कोडरा में भी 2014 में ही 25 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया। नुमायाडीह में साल 2015 में 50 एमएलडी क्षमता का प्लांट लगाया गया है। पोंगहट, कोडरा और नुमायाडीह इन तीन प्लांटों की क्षमता में कोई इजाफा नहीं किया गया है।
बनेंगे तीन और एसटीपी
ग्रामीण इलाकों से निकलने वाले गंदे पानी को सीधे गंगा में गिरने से रोकने के लिए नैनी, झूंसी और फाफामऊ क्षेत्रों में तीन और एसटीपी स्थापित किए जाएंगे। इनकी क्षमता क्रमश: 50, 20 और 10 एमएलडी होगी। नैनी में प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है और इसकी निविदा की प्रक्रिया चल रही है। इसके विपरीत झूंसी और फाफामऊ में एसटीपी के लिए अभी तक जमीन का अधिग्रहण तक नहीं किया जा सका है।
नदियों में जा रहा अर्धशोधित पानी
जिन एसटीपी को उनकी क्षमता से अधिक पानी मिल रहा है वे अतिरिक्त पानी को अर्धशोधित दशा में ही गंगा और यमुना में छोड़ रहे हैं। सलोरी एसटीपी को 43 की बजाय 75 एमएलडी पानी मिल रहा है। राजापुर एसटीपी को 60 की जगह 90 से 105 एमएलडी पानी मिल रहा है। इसी प्रकार कोडरा एसटीपी को 25 एमएलडी की जगह 30 एमएलडी पानी प्राप्त हो रहा है।
एसटीपी पर सालाना 48 करोड़ का खर्च
शहर के नैनी, सलोरी, राजापुर, पोंगहट, कोडरा और नुमायाडीह स्थित एसटीपी पर सालाना 48 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। क्षमता के अनुसार किसी एसटीपी पर दस तो किसी पर छह करोड़ रुपये खर्च हो रहा है। हालांकि इस राशि में विद्युत समेत अन्य खर्च भी शामिल है। इलाहाबाद में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अभी तक सीवरेज शोधित जल को लेकर किसी योजना को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है।
यहां अंग्रेजों के जमाने का सीवेज सिस्टम
आशुतोष सिंह
वाराणसी: धार्मिक नगरी काशी को हाईटेक करने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी ने पूरी ताकत झोंक दी है। सडक़ से लेकर सीवर तक, हर स्तर पर शहर को चमकाने की कोशिश है। योजनाओं को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए सरकार ने खजाना खोल दिया है, लेकिन चार साल गुजर जाने के बाद भी कई ऐसे मोर्चे हैं जहां सरकार फेल नजर आ रही है। इसमें सबसे बड़ी समस्या है शहर की प्रमुख नदियों गंगा और वरुणा में बढ़ता प्रदूषण। लाख कोशिशों के बाद भी ये नदियां साफ नहीं हो पा रही है। सीवर का गंदा पानी खुलेआम इन नदियों में गिर रहा है। इसके चलते न सिर्फ नदियों का अस्तित्व संकट में है बल्कि सरकार की साख पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।
दो सौ साल पुराना है सीवेज सिस्टम
वाराणसी में सीवेज सिस्टम दो सौ साल पुराना है। कहा जाता है कि बनारस के शिल्पी कहे जाने वाले जेम्स प्रिन्सेप ने साल 1825 में शहर से पानी की निकासी के लिए योजना बनाई थी। इसके तहत शहर की घनी आबादी वाले इलाकों और इमारतों के नीचे से नालियों का जाल बिछाया गया था। हैरानी इस बात की है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी पूरा शहर इसी सिस्टम के सहारे है।
पूरे शहर में लगभग 24 किमी की सीवरलाइन बिछाई गई है। इसे शाही नाला भी कहा जाता है। हालांकि जेएनयूआरएम के तहत शहर में नया सीवर सिस्टम बनाने का काम जारी है। आजादी के इतने दिनों बाद भी शहर के हुक्मरान अभी तक सिर्फ 102 एमएलडी के तीन एसटीपी प्लांट ही बनवा पाए। मौजूदा वक्त में शहर में तीन एसटीपी प्लांट चल रहे हैं। इसमें दीनापुर में 80 एमएलडी, भगवानपुर में 12 एमएलडी और डीरेका मे 10 एमएलडी का एसटीपी है जबकि आज भी 300 एमएलडी सीवर का पानी सीधे गंगा और वरुणा में गिर रहा है।
नमामि गंगे योजना पर उठ रहे सवाल
मुगलसराय, रामनगर, चुनार आदि छोटे शहरों में भी एसटीपी निर्माण की कवायद ही नहीं शुरू हुई जबकि इन छोटे शहरों के लिए भी 50 एमएलडी का एसटीपी प्रस्तावित है। वहीं कोनिया नाला के लिए 120 एमएलडी की एसटीपी दीनापुर में प्रस्तावित है। नगवा नाले के लिए रमना में 50 एमएलडी एसटीपी प्रस्तावित है। नमामि गंगे नया नाम देकर 20 हजार करोड़ का फंड भी कायम कर दिया गया मगर अकेले वाराणसी में छोटे बड़े 32 नाले अभी भी बिना शोधन के गंगा में गिरते है। गंगा में प्रदूषण को रोकने के लिए फिलहाल तीन एसटीपी काम कर रहे हैं जबकि मोदी सरकार बनने के बाद एक भी एसटीपी का निर्माण नहीं हो पाया।
जलकल के जिम्मे सीवर सफाई
सीवर ओवरफ्लो होकर नालियों व नाली के रास्ते गंगा नदी में गिरता है। वर्तमान समय में सीवरलाइन का रखरखाव जलकल विभाग कर रहा है। इसके लिए 28 नियमित कर्मचारी कार्यरत हैं। ब्रांच सीवर लाइनों की सफाई अनुबंधित कर्मचारी करते हैं। धनाभाव व कर्मचारियों की कमी के कारण सीवर लाइनों की साफ सफाई का कार्य प्रभावित हो रहा है। वाराणसी शहर की सीवर व्यवस्था को सुधारने और उसके अनुरक्षण के लिए प्रतिवर्ष सफाई कर्मचारियों पर भारी धनराशि खर्च होती है। सफाई कर्मियों पर 3.62 करोड़ रुपये, जेटिंग मशीन के संचालन पर 61 लाख रुपये, सुपर संकर के संचालन पर 50 लाख तथा सीवर लाइन डालने, बदलने, मैनहोल मरम्मत एवं मैनहोल कवर की आपूर्ति पर 12.50 करोड़ रुपये सहित कुल 17.23 करोड़ रुपये का खर्च आता है।
सीवर के चलते गंगा और वरुणा के अस्तित्व पर सवाल
दरअसल गंगा निर्मलीकरण के लिए शुरू की गयी कवायद पूरी नहीं हो पाई है। वाराणसी में सीवेज सिस्टम का हाल ये है कि जेएनआरयूआरएम के तहत करीब चार सौ करोड़ की वरुणापार सीवेज योजना पूरी नहीं हो पाई है। अभी गोइठहां में 120 एमएलडी के एसटीपी निर्माण के साथ ही कई जगहों पर पाइपलाइन बिछाने का कार्य जारी है।
इसी प्रकार फुलवरिया, छावनी, लहरतारा, नक्खीघाट, कोनिया आदि इलाके में करीब चार सौ करोड़ से जायका के तहत पाइपलाइन बिछाई गई है और इसके लिए दीनापुर में 140 एमएलडी का एसटीपी निर्माणाधीन है। इस योजना का क्रियान्वयन दस सालों से जारी है। इन अधूरी योनजाओं के कारण गंगा में सीवेज जाने के विभिन्न माध्यम अब भी बरकरार है। इसके अलावा वरुणा से भी बड़ी मात्रा में मलजल गंगा में मिल रहा है।
पूरी क्षमता से नहीं चल रहे एसटीपी
मानवेन्द्र मल्होत्रा
आगरा: ताजनगरी में करोड़ों रुपये खर्च कर बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहे। इन प्लांटों में साफ किया गया पानी गुणवत्ता को लेकर हमेशा संदेह के घेरे में रहा है। अब इन प्लांटों की क्षमता पर भी सवाल उठाया जा रहा है क्योंकि आगरा में एक भी एसटीपी अपेक्षित क्षमता से काम नहीं कर पा रही है। एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक घरेलू सीवेज 1995 से पहले कई नालियों के माध्यम से सीधे यमुना में प्रवेश करता था। नदी में बढ़ते प्रदूषण की जांच के लिए 1996 में एसटीपी स्थापित करने की योजना बनाई गई थी। 2001 में तीन प्लांट धाधुपुरा, पिलीखार और नगला बूढी में में विकसित किए गए थे। उस समय नौ सीवेज पंपिंग स्टेशन भी बनाए गए थे। 2010 में शहर के विस्तार और जनसंख्या में वृद्धि पर 26 एमएलडी की दो और एसटीपी जगनपुर और देवरी रोड में विकसित की गई थी। एसटीपी बिचपुरी और धान्धुपुरा 2 में 64 एमएलडी की कुल क्षमता 2013 में स्थापित की गई थी। वर्तमान में आगरा में सात एसटीपी की कुल क्षमता 180.25 एमएलडी है।
चल रहे सात एसटीपी
जल निगम की यमुना प्रदूषण इकाई की रिपोर्ट के अनुसार सात में से कोई भी एसटीपी पूरी क्षमता पर काम नहीं कर रहा है। देवरी रोड, बिचपुरी और धान्धू पुरा 2 एसटीपी की स्थिति सबसे खराब है। कुल मिलाकर सात एसटीपी केवल 125 एमएलडी सीवेज का इलाज कर रहे हैं, जबकि कुल क्षमता 180 एमएलडी है। धांधुपुरा 1 में एसटीपी की क्षमता 78 एमएलडी है, इसकी दक्षता 68.5 एमएलडी है। धान्धुपुरा 2 में संयंत्र की क्षमता 24 एमएलडी है, लेकिन यह सीवेज के सिर्फ 17.3 9 एमएलडी का पानी ट्रीट करती है। एसटीपी पिलखार दूसरों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला है, यह सीवेज को 9.81 एमएलडी ट्रीट कर रहा है जबकि इसकी कार्य क्षमता 10 एमएलडी है।
बीस साल में 500 करोड़ खर्च
नगला बुडी की न्यूनतम क्षमता 2.25 एमएलडी है और यह सिर्फ 1.75 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करता है। 14 एमएलडी की क्षमता वाले एसटीपी जगनपुर सीवेज के 12.50 एमएलडी का ट्रीट करते हैं। देवरी रोड प्लांट की क्षमता 40 एमएलडी है, लेकिन यह सिर्फ 6.9 9 एमएलडी ट्रीट करता है। रिपोर्ट के मुताबिक बिचपुरी एसटीपी 40.9 एमएलडी की क्षमता के साथ सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला है, लेकिन केवल 7.5 एमएलडी सीवेज का इलाज करता है। जल निगम के अनुसार पिछले बीस साल में सीवेज सिस्टम पर कुल 500 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। एक वरिष्ठï अधिकारी ने नाम न छापने कि शर्त पर बताया कि कुछ प्लांट पुराने हैं और पानी की आवश्यक आपूर्ति भी नहीं मिल रही है। हम प्लांट के उत्पादन में सुधार की दिशा में काम कर रहे हैं, लेकिन अधिक एसटीपी की आवश्यकता है।