Lok Sabha Election 2019: अयोध्या आंदोलन लील गया वाम दलों का जलवा

कभी वामदलों का यूपी में जलवा हुआ करता था लेकिन अयोध्या आंदोलन के बाद इन दलों का असर कम होता गया और हालात यहां तक पहुंच गए कि

Update:2019-04-11 21:03 IST

श्रीधर अग्निहोत्री

कभी वामदलों का यूपी में जलवा हुआ करता था लेकिन अयोध्या आंदोलन के बाद इन दलों का असर कम होता गया और हालात यहां तक पहुंच गए कि अब न तो विधानसभा और न ही लोकसभा चुनाव में उनका खाता खुलता है। 1991 के बाद से न तो सीपीआई और न ही सीपीएम का कोई सदस्य लोकसभा पहुंच सका है। देश में हो रहे लोकसभा चुनाव में अबतक उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 11 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे है।

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1991 में गाजीपुर सीट पर विश्वनाथ शास्त्री अंतिम सीपीआई सांसद निर्वाचित हुए थे। जिनका अभी कुछ दिनों पहले ही निधन हुआ। मंडल- कमंडल की राजनीति ने यूपी में वामदलों की राजनीति को कमजोर करने का काम किया। पिछले कई लोकसभा चुनाव में वामदल अब उन्हीं सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करती हैं जहां पार्टी का कुछ आधार बचा है।

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इसमें गाजीपुर, लालगंज, घोसी, संतकबीर नगर, आंवला, मुजफफरनगर, मेरठ, मैनपुरी और बांदा जैसे जिले हैं। पूर्वाचंल और बुंदेलखण्ड के कुछ जिलों में वामदलों का जरूर आधार बना रहा लेकिन ‘यूपी का मानचेस्टर’ कहे जाने वाले कानपुर में वामपथिंयो का प्रभाव कई सालों तक रहा।

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इसी तरह सैदपुर व गाजीपुर वामदलों के ऐसे ही लाल किले थें जहां सरजू पाण्डे 1957 और 1962 सैदपुर, व 1967 व 1971 में गाजीपुर से सांसद बने। 1991 मे रामलहर के बाद भी विश्वनाथ शास्त्री गाजीपुर से सासंद बने। इसी तरह घोसी सीट से 1962 व 1967 में इस पार्टी के जयबहादुर सिंह तथा 1971 व 1980 में झारखण्डे राय सांसद चुने गए। इस दौरान वामदलों के आधा दर्जन सांसद चुने जाते रहे।

इसी तरह 1989 में मित्रसेन यादव फैजाबाद, सत्यनारायण सिंह वाराणसी से 1967, जोगेश्वर यादव 1967 और 1989 में रामसजीवन यादव बांदा, लताफत अली 1967 और विजयपाल सिंह 1971 में मुजफ्फरनगर तथा 1989 में सुभाषिनी अली कानपुर से सांसद बनी।

 

वामदलों के जनाधार वाली लोकसभा सीटें कानपुर. गाजीपुर, बांदा, बलिया, गोरखपुर, राबर्टसगंज, बलिया, लालगंज तथा घोसी आदि रही हैं। कानपुर तो वामदलों का गठ रहा है जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा फारवर्ड ब्लाक आदि का अच्छा खासा असर रहा है।

 

हिन्दुस्तान के मानचेस्टर कहे जाने वाले कानुपर में मजदूरों के बीच दुख-दर्द बांटने वाले एस एम बनर्जी को यहां की जनता ने लगातार चार बार संसद पहुंचाया। वह भले ही निर्दलीय चुनाव लडते थें पर कम्युनिस्ट पार्टियों का उन्हे पूरा समर्थन रहता था।

 

एस-एम- बनर्जी की लगातार जीत का यह सिलसिला 1977 मे आपातकाल के बाद हुए चुनाव में टूटा. जब जनता पार्टी के मनोहर लाल यहां से विजयी हुए। लेकिन 1989 में जनता दल की लहर आने के बाद मिले समर्थन और बंद कपडा मिलों को दोबारा चालू करवाने की आस में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सुभाषिनी अली को यहां फिर विजय मिली।

जहां तक यूपी विधानसभा की बात है तो अपने स्वर्णकाल के दौरान 1989 में 81 सीटों तक में विजय पताका फहराई। लेकिन अंतिम बार 2002 के विधानसभा चुनाव में उसे केवल 2 सीटे ही मिल पाई। इसके बाद 2007 और 2012 में वह शून्य पर आ गयी। यूपी में विधानसभा चुनाव का यदि आकलन करें तो 1957 में 9, 1962 में 14, 1967 में 14, 1969 में 81, 1974 में 18, 1977 में 10, 1980 में 7, 1985 में 8, 1989 में 8, 1991 में 5,1993 में 4,1996 में 5, 2002 में 2 तथा 2007 2012 और 2017 में वामदलों का खाता भी नहीं खुल पाया।

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